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गुरुवार, 30 जून 2022

मसीही विश्वास एवं शिष्यता / Christian Faith and Discipleship – 12


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मसीही विश्वासी के गुण - पश्चाताप

    पिछले लेखों में हमने परमेश्वर के वचन बाइबल की प्रेरितों के काम पुस्तक, जो प्रथम चर्च या मण्डली के आरंभ तथा गतिविधियों का संक्षिप्त इतिहास है, में से उस मण्डली के लोगों, अर्थात मसीही  विश्वासियों से संबंधित सात बातों को देखा, जिनमें से चार में वे “लौलीन” रहते थे, और पाँचवीं, बपतिस्मा लेना, प्रत्येक मसीही विश्वासी की ज़िम्मेदारी थी। साथ ही हमने यह भी देखा कि जो मसीही विश्वासियों के लिए “लौलीन” रहने वाली बातें है, उन्हें तथा बपतिस्मा लेने को मसीही या ईसाई धर्म का पालन करने वालों ने एक रीति या रस्म बना लिया है, और उन्हें उस गणित के समीकरण के समान देखते, सिखाते, और निभाते हैं, कि मसीही विश्वासी इन बातों का पालन करते हैं इसलिए इन बातों का पालन करने वाले भी स्वतः ही मसीही विश्वासी होंगे। इन धर्म-कर्म-रस्म का पालन करने में भरोसा रखने वालों ने उन बातों के निर्वाह के संबंध में अपने ही नियम और विधियाँ, जिनका बाइबल में कोई उल्लेख नहीं है, स्थापित कर के, इन बातों के निर्वाह करने को धर्म के निर्वाह के लिए एक अपेक्षित तथा वांछनीय औपचारिकता बना दिया है। किन्तु जैसे प्रभु यीशु मसीह ने अपने समय के धर्म के अगुवों से, उनके द्वारा मनुष्यों की बनाई हुई विधियों को परमेश्वर की बातें कहकर सिखाने को व्यर्थ उपासना करना कहा था, और चिताया था कि सब व्यर्थ बातें हटा दी जाएँगी (मत्ती 15:9, 13-14), वैसे ही आज भी प्रभु की यही बात वर्तमान में भी मनुष्यों के गढ़े हुए विधि-विधानों पर उतनी ही लागू है, उनके विषय उतनी ही सत्य है जितनी तब थी।


हमने यह भी देखा था कि सच्चे मसीही विश्वासियों के इन सात गुणों के बारे में लोगों को बताए जाने का आरंभ, यरूशलेम में धार्मिक पर्व मनाने के लिए एकत्रित हुए “भक्त यहूदियों” के मध्य में पतरस तथा प्रभु यीशु के शिष्यों द्वारा किए गए सुसमाचार प्रचार को सुनने के बाद, उन भक्त यहूदियों द्वारा उठाए गए एक प्रश्न से हुआ था, “तब सुनने वालों के हृदय छिद गए, और वे पतरस और शेष प्रेरितों से पूछने लगे, कि हे भाइयो, हम क्या करें?” (प्रेरितों 2:37)। उनके इस प्रश्न के उत्तर में पतरस द्वारा दिए गए उत्तर में हम इन सात बातों को देखते हैं। हम सात में से उन पाँच बातों को देख चुके हैं, जिन्हें मसीही विश्वास के स्थान पर मसीही या ईसाई धर्म का पालन करने वाले औपचारिकता के रूप में निभाते रहते हैं, और समझते हैं कि ऐसा करने से वे भी मसीही विश्वासियों के समान उद्धार या नया जन्म पाए हुए हो गए हैं; जो परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार एक बिल्कुल गलत धारणा है। आज हम शेष दो बातों, पश्चाताप करना और सांसारिकता से पृथक होने में से पहली बात, पश्चाताप करना, के बारे में कुछ विस्तार से देखेंगे।

 

मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अंग्रेजी अनुवाद ‘Repent’ और हिन्दी अनुवाद ‘मन फिराओ’ किया गया है, उसका शब्दार्थ है “बिलकुल भिन्न सोच या विचारधारा रखना”। अर्थात किसी बात के लिए पश्चाताप करने का अर्थ है, उस बात के लिए अपनी सोच या विचारधारा को पूर्णतः बदल देना, और उसे परमेश्वर की सोच और विचारधारा के अनुरूप ले आना, जिससे वह परमेश्वर की सोच और विचारधारा से संगत हो जाए, परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाए। पश्चाताप करना कोई औपचारिकता पूरी करना अथवा किसी धार्मिक रीति का निर्वाह करना नहीं है; यह पूरे मन से उस बात के प्रति अपनी समझ और व्यवहार को पूर्णतः परिवर्तित कर लेना है, अपनी भूतपूर्व सोच और विचारधारा से बिलकुल बदल कर, एक नई सोच और विचारधारा को स्वीकार करना और पालन करना है। संसार भर से आए हुए ये भक्त यहूदी यरूशलेम में इसलिए एकत्रित थे कि वे अपने धर्म और धार्मिक अनुष्ठानों के निर्वाह के द्वारा परमेश्वर की दृष्टि में भी धर्मी ठहरें और परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाएं। किन्तु पवित्र शास्त्र में दी गई जिस व्यवस्था और बातों के आधार पर वे ऐसी धारणा रखे हुए थे, जब उसी पवित्र शास्त्र में से पतरस ने परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई और सामर्थ्य से उनके मध्य में परमेश्वर को स्वीकार्य होने की वास्तविकता को रखा, तो उनकी आँखें खुल गईं। पतरस की बात सुनकर उनके हृदय छिद गए, उन्हें बोध हुआ कि उनकी यह धर्म-कर्म-रस्म की धार्मिकता उनके किसी काम की नहीं है, उसे निभाने के बाद भी वे परमेश्वर को वैसे ही अस्वीकार्य हैं, जैसे पहले थे। और तब, जब उन्हें परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी एवं स्वीकार्य होने के लिए और कुछ नहीं सूझ पड़ा, तो उन्होंने पतरस तथा शेष प्रेरितों से ही पूछा “हे भाइयों हम क्या करें?”


पतरस के उत्तर की सर्वप्रथम बात थी, ‘मन फिराओ’; अर्थात धार्मिकता के प्रति अपनी वर्तमान विचारधारा और व्यवहार से निकाल कर, अपने-अपने पापों की क्षमा, उद्धार, तथा परमेश्वर को स्वीकार्य धार्मिकता की समझ एवं निर्वाह के लिए प्रभु यीशु मसीह द्वारा किए गए कार्य को स्वीकार करो; अपने जीवन में उसका पालन करो। पतरस द्वारा दिए गए इस उत्तर में निहित है कि मसीही विश्वास और परमेश्वर को स्वीकार्य धार्मिकता के जीवन का आरंभ प्रत्येक व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत रीति से अपने जीवन में विद्यमान पापों का अंगीकार करने, फिर उनके लिए प्रभु यीशु मसीह से क्षमा माँगने के द्वारा होता है। यह करने के पश्चात, जिन बातों से उसके जीवन में पाप को प्रवेश और पैठ मिलती है उनसे संबंधित अपने विचारों और व्यवहारों के मार्ग को दृढ़ निश्चय के साथ पूर्णतः छोड़ देना है। साथ ही, प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चल निकलने तथा हर परिस्थिति का सामना करते हुए चलते ही रहने के लिए कटिबद्ध हो जाना है।

  

आज के मसीही या ईसाई समाज में ऐसी कितनी ही बातों, रीति-रिवाजों, त्यौहारों, आदि को मानने और मनाने पर जोर दिया जाता है, जिनका उल्लेख भी बाइबल में नहीं है, और जिनके लिए प्रभु यीशु अथवा पवित्र आत्मा ने कभी कोई शिक्षा नहीं दी है। फिर भी उन्हें बहुत उत्साह और लग्न से माना और मनाया जाता है; यहाँ तक कि यदि कोई उन बातों को न माने या मनाए, अथवा उनके मानने और मनाने के बारे में कोई प्रश्न उठाए, तो उसे विधर्मी समझा जाता है, उसके मसीही होने पर संदेह किया जाता है। किन्तु पश्चाताप और मन फिराव जैसे महत्वपूर्ण विषय को, जो बाइबल के अनुसार मसीही विश्वास में प्रवेश का, उद्धार एवं पापों की क्षमा प्राप्त करने के लिए व्यक्ति द्वारा उठाया जाने वाला पहला कदम है, उसके बारे में न बताया या सिखाया जाता है, और न ही इसके महत्व के बारे में शिक्षा दी जाती है। अगले लेख में हम इस बात के परम-महत्व को समझने के लिए परमेश्वर के वचन बाइबल में से पश्चाताप या मन फिराव से संबंधित कुछ पदों को देखेंगे।

  

यदि आप ने अभी तक अपने पापों से पश्चाताप नहीं किया है, अपना जीवन स्वेच्छा और सच्चे मन प्रभु यीशु को समर्पित नहीं किया है, तो आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • अय्यूब 17-19 

  • प्रेरितों 10:1-23

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English Translation

 The Characteristics of a Christian Believer - Repentance


In the previous articles we had seen seven characteristics of a Christian Believer from the Book of Acts, the historical account of the activities of the first Church of the Bible. Of these seven, we saw from Acts 2:42 that four were things in which the saved, or Born-Again initial Christian Believers, continued steadfastly, and a fifth, taking “Baptism” was the Lord’s commandment for every Born-Again Believer. We also saw that the things in which the Christian Believers continued steadfastly, have been turned into a formality, a ritual by the followers and adherents of the Christian religion, and have been taken, taught, and used like a mathematical equation, i.e., since Christian Believers do these things, therefore those who do these things will be considered as Christian Believers. The followers of this concept of having righteousness through religion-works-rituals, have created and added their own rules and ceremonies to these things, which have no support or affirmation from God’s Word. They have turned these five essential characteristics of a Christian Believer into religious formalities, expected and desirable in “Christians'' instead of retaining them in their initial form of commandments of the Lord to be observed steadfastly, as was being done by the early Christian Believers. But just as the Lord Jesus, during His time of Ministry on earth, had said to the then religious leaders about their teaching and enforcing such man-made rules, regulations and rituals being a “vain worship”, which would be removed by God (Matthew 15:9, 13-14) similarly, what the Lord had said at that time, is equally true and applicable to the current man-made rules, regulations, and traditions rampant today in Christendom.


We had also seen that the teaching about these seven characteristics of a Christian Believer began in Jerusalem, in the first preaching to the “devout Jews” by Peter and the disciples of Christ, in response to a question raised by those devout Jews who heard Peter’s sermon “Now when they heard [this], they were pricked in their heart, and said unto Peter and to the rest of the apostles, Men [and] brethren, what shall we do?” (Acts 2:37). Peter responded to this question by asking them to do seven things, of which five we have already seen; and the followers of the Christian religion fulfill as a formality, as a ritual and think that by doing this they too like the saved, Born-Again Christian Believers have become saved and acceptable to God, which is an unBiblical and a patently false notion on their part. We will now start considering the remaining two characteristics, i.e., Repentance and Separation from the world, in some detail from today.


The word used in the original Greek language, and translated as ‘Repent’ literally means “to come into a totally different point-of-view or understanding” about something. That is to say that to repent from sins literally means to completely turn away from one’s own thinking and understanding and to bring it around to God’s way and behavior towards sin.. This replacement of one’s own views, attitudes, behaviors etc. about things with God’s views, attitudes and behavior about them has to be done so to be acceptable to God, and then one has to continually live according to this new thinking and understanding. This makes it evident that ‘repentance from sins’ is not fulfilling a formality or a ritual; rather, it is voluntarily taking a decision with a fully committed and submitted heart for Lord Jesus to turn away from own or man-made and taught ways and commandments, to learn and live according to the Lord’s ways and commandments. Take note, the first people to hear this from Peter and the disciples, on that day were devout Jews who had come from all over the world to fulfill the requirements and ceremonies of their religion, to become righteous and acceptable to God. They had learnt and followed their concepts of righteousness and being acceptable to God from the teachings given in the Law and other parts of their Holy Scriptures. But when Peter, under the guidance of the Holy Spirit, placed before them the truth about being righteous and acceptable to God, it was a stark revelation for them. On hearing what Peter had to say, they were pricked to their hearts, they realized and understood that their righteousness based upon religion-works-rituals is vain, they are still as unacceptable to God after fulfilling all of those things, as they were before fulfilling them. Therefore, when they could not figure out any other way to be righteous and acceptable before God, they asked Peter and the other disciples “... Men [and] brethren, what shall we do?” 


In answer to their question, under the guidance of the Holy Spirit, the first thing that Peter asked them to do was to ‘repent’; i.e., completely and radically change their present attitude and thinking about being righteous, and believe in and accept the work done on the Cross of Calvary by the Lord Jesus for the forgiveness of sins, salvation, and becoming acceptable to God, and then to continue on this way lifelong. Implied in this answer given by Peter is the fact that Christian faith and righteousness acceptable to God in a person’s life begin only when he acknowledges the presence of sins in his life, asks for the Lord Jesus to forgive him for them and unconditionally surrenders his life to the Lord. After this, then the person has to turn away from all the things that provided an entry of sin into his heart and make him provide a place for sin to reside within him; he has to resolutely and diligently move away from all behavior, company, and things that can lead him back into a life of sin. Instead, as a disciple of the Lord Jesus he now has to walk on the way shown by the Lord, live according to His guidance; even though he will have to face difficult circumstances and many problems from the world in doing so, but he has to strive nevertheless.


In the present Christendom emphasis is laid upon accepting and fulfilling or observing many things that are not even given in the Bible, things about which neither the Lord Jesus nor the Holy Spirit ever gave any teaching of instructions. But still people fulfill and observe them with great enthusiasm and fervor; so much so that if anyone raises any questions about their observance, or if someone does not fulfill or observe them then he is considered a blasphemer, his being a Christian is questioned and doubted. But these Biblical, God instructed, very important things like repentance, change of heart, forgiveness of sins, obedience to God’s Word and not to man-made rules, regulations, and rituals etc., which form the very basis of being saved and made acceptable to God are, the very first step for actually being a Christian Believer, are usually never taught or even mentioned to the people, or are not explained and emphasized to them.


In the next article, to understand the paramount importance and absolute necessity of repentance and asking for forgiveness of sins, we will look at some verses about this from the Bible. If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Job 17-19 

  • Acts 10:1-23



बुधवार, 29 जून 2022

मसीही विश्वास एवं शिष्यता / Christian Faith and Discipleship – 11


Click Here for the English Translation   

मसीही विश्वासी के गुण 

   

पिछले लेखों में हमने परमेश्वर के वचन बाइबल की प्रेरितों के काम पुस्तक, जो प्रथम चर्च या मण्डली के आरंभ तथा गतिविधियों का संक्षिप्त इतिहास है, में से उस मण्डली के लोगों से संबंधित पाँच बातों को देखा, जिनमें वे “लौलीन” रहते थे। साथ ही हमने यह भी देखा कि जो मसीही विश्वासियों के लिए “लौलीन” रहने वाली बातें है, उन्हीं को मसीही या ईसाई धर्म का पालन करने वालों ने एक रीति या रस्म बना लिया है, और उन्हें उस गणित के समीकरण के समान देखते, सिखाते, और निभाते हैं, कि मसीही विश्वासी इन बातों का पालन करते हैं इसलिए इन बातों का पालन करने वाले भी स्वतः ही मसीही विश्वासी होंगे। इन धर्म-कर्म-रस्म का पालन करने में भरोसा रखने वालों ने उन बातों के निर्वाह के संबंध में अपने ही नियम और विधियाँ, जिनका बाइबल में कोई उल्लेख नहीं है, स्थापित कर के, इन बातों के निर्वाह करने को धर्म के निर्वाह के लिए एक अपेक्षित तथा वांछनीय औपचारिकता बना दिया है। किन्तु जैसे प्रभु यीशु मसीह ने अपने समय के धर्म के अगुवों से, उनके द्वारा मनुष्यों की बनाई हुई विधियों को परमेश्वर की बातें कहकर सिखाने को व्यर्थ उपासना करना कहा था, “और ये व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं, क्योंकि मनुष्यों की विधियों को धर्मोपदेश कर के सिखाते हैं” (मत्ती 15:9), वैसे ही आज भी प्रभु की यही बात वर्तमान में भी मनुष्यों के गढ़े हुए विधि-विधानों पर उतनी ही लागू है, उनके विषय उतनी ही सत्य है जितनी तब थी। प्रभु ने उन बातों और उनके औपचारिक निर्वाह की शिक्षा देने वालों के लिए एक और बात भी कही थी, और वो भी आज के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है, “उसने उत्तर दिया, हर पौधा जो मेरे स्‍वर्गीय पिता ने नहीं लगाया, उखाड़ा जाएगा। उन को जाने दो; वे अन्धे मार्ग दिखाने वाले हैं: और अन्‍धा यदि अन्धे को मार्ग दिखाए, तो दोनों गड़हे में गिर पड़ेंगे” (मत्ती 15:13-14)।

    प्रेरितों 2 अध्याय में, परमेश्वर पवित्र आत्मा के सामर्थ्य प्राप्त करने के तुरंत बाद यरूशलेम में संसार के विभिन्न भागों से पर्व मनाने के लिए एकत्रित “भक्त यहूदियों” को प्रेरित पतरस द्वारा किया गया प्रथम सुसमाचार प्रचार दर्ज है। पतरस द्वारा किए गए इस सुसमाचार प्रचार की प्रतिक्रिया में, लिखा है, “तब सुनने वालों के हृदय छिद गए, और वे पतरस और शेष प्रेरितों से पूछने लगे, कि हे भाइयो, हम क्या करें?” (प्रेरितों 2:37)। उनके इस प्रश्न का पतरस द्वारा दिया गया उत्तर था “पतरस ने उन से कहा, मन फिराओ, और तुम में से हर एक अपने अपने पापों की क्षमा के लिये यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा ले; तो तुम पवित्र आत्मा का दान पाओगे। क्योंकि यह प्रतिज्ञा तुम, और तुम्हारी सन्‍तानों, और उन सब दूर दूर के लोगों के लिये भी है जिन को प्रभु हमारा परमेश्वर अपने पास बुलाएगा। उसने बहुत और बातों में भी गवाही दे देकर समझाया कि अपने आप को इस टेढ़ी जाति से बचाओ” (प्रेरितों 2:38-40)। यहाँ हम पवित्र आत्मा की अगुवाई में पतरस द्वारा उन मसीही विश्वासियों के करने के लिए कही गई तीन बातों को देखते हैं: “मन फिराओ”, “बपतिस्मा लो”, और “अपने आप को इस टेढ़ी जाति से बचाओ”। दिए गए क्रम के अनुसार, मसीही विश्वासी, या प्रभु यीशु मसीह का अनुयायी हो जाने के लिए उठाया जाने वाला पहला कदम है व्यक्ति के द्वारा मन-फिराव, अर्थात पापों से पश्चाताप करके, पापी जीवन से मुँह मोड़ लेना, और उन बातों को छोड़ देना। फिर दूसरा कदम है अपने मन-फिराव के निर्णय को लोगों पर बपतिस्मा लेने के द्वारा प्रकट करना, और तब तीसरा कदम है अपने इस बदले हुए मन और जीवन के अनुसार अपनी संगति को सुधारना और उन लोगों से पृथक हो जाना जो वापस उन्हीं बुराइयों और सांसारिकता की बातों में ले जा सकते हैं - अपने आप को इस टेढ़ी जाति से बचाओ। 


    जो मसीही विश्वासी बन जाते हैं, फिर वे प्रेरितों 2:42 की चारों बातों में, जिन्हें हम देख चुके हैं, लौलीन रहते हैं। अर्थात, हमें यहाँ पर परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पतरस के द्वारा मसीही विश्वासी हो जाने के सात चिह्न प्रदान किए हैं:

  1. स्वेच्छा से मन-फिराव का निर्णय ले लेना 

  2. अपने बदले हुए जीवन की गवाही के लिए बपतिस्मा लेना 

  3. बदले हुए जीवन की सुरक्षा और अपनी आत्मिक उन्नति के लिए बुरी संगति और बातों से अपने आप को पृथक कर लेना 

प्रभु परमेश्वर और व्यावहारिक मसीही जीवन को जानने, उसमें बढ़ने, और उसे जीने के लिए:

  1. बाइबल की शिक्षा लेते रहना 

  2. अन्य मसीही विश्वासियों की संगति में बने रहना 

  3. प्रभु-भोज में नियमित भाग लेते रहना 

  4. प्रार्थना में लगे रहना 


उपरोक्त सभी बातों से स्पष्ट है कि बाइबल के अनुसार मसीही विश्वास का जीवन किसी धर्म के निर्वाह का जीवन नहीं है, वरन प्रभु यीशु की शिष्यता और आज्ञाकारिता का जीवन है। साथ ही मसीही विश्वासी या प्रभु यीशु के अनुयायी होने के लिए किसी धर्म परिवर्तन की नहीं, वरन मन परिवर्तन की, और परिवर्तित जीवन का निर्वाह करने की आवश्यकता है। इसलिए यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने एक परिवार विशेष में जन्म अथवा उस परिवार और अपने जन्म से संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर परमेश्वर के वचन बाइबल की सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। 


    आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • अय्यूब 14-16 

  • प्रेरितों 9:22-43

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English Translation

 The Characteristics of a Christian Believer

In the previous articles we have seen five things from the Book of Acts, the historical account of the activities of the first Church of the Bible, in which the saved, or Born-Again initial Christian Believers, continued steadfastly. We also saw that the things in which the Christian Believers continued steadfastly, have been turned into a formality, a ritual by the followers and adherents of the Christian religion, and have been taken, taught, and used like a mathematical equation, i.e., since Christian Believers do these things, therefore those who do these things will be considered as Christian Believers. The followers of this concept of having righteousness through religion-works-rituals, have created and added their own rules and ceremonies to these things, which have no support or affirmation from God’s Word. They have turned these five essential characteristics of a Christian Believer into religious formalities, expected and desirable in “Christians” instead of retaining them in their initial form of commandments of the Lord to be observed steadfastly, as was being done by the early Christian Believers. But just as the Lord Jesus, during His time of Ministry on earth, had said to the then religious leaders about their teaching and enforcing such man-made rules, regulations and rituals being a “vain worship”, “And in vain they worship Me, Teaching as doctrines the commandments of men” (Matthew 15:9), similarly, what the Lord had said at that time, is equally true and applicable to the current man-made rules, regulations, and traditions rampant today in Christendom. The Lord has said another thing about those who teach and preach and believe in these man-made rules, regulations, and traditions, and that too is equally applicable and important even today: “But He answered and said, "Every plant which My heavenly Father has not planted will be uprooted. Let them alone. They are blind leaders of the blind. And if the blind leads the blind, both will fall into a ditch” (Matthew 15:13-14).


In Acts chapter 2, we have the record of the first sermon preached by the apostle Peter to the “devout Jews” gathered in Jerusalem to celebrate their feasts and festivals, immediately after receiving and being empowered by God the Holy Spirit. In response to this sermon, it is written that, “Now when they heard this, they were cut to the heart, and said to Peter and the rest of the apostles, "Men and brethren, what shall we do?” (Acts 2:37). And then Peter had replied, “Then Peter said to them, "Repent, and let every one of you be baptized in the name of Jesus Christ for the remission of sins; and you shall receive the gift of the Holy Spirit. For the promise is to you and to your children, and to all who are afar off, as many as the Lord our God will call." And with many other words he testified and exhorted them, saying, "Be saved from this perverse generation” (Acts 2:38-40). Here we see three things that Peter, under the guidance of the Holt Spirit, tells them to do: “Repent”, “be baptized”, “Be saved from this perverse generation”. In accordance with the sequence given here, to become a disciple of the Lord Jesus, or a Christian Believer, the first step is that the person should repent of his sins, i.e., confess his sins and turn away from them, leave those things behind. This is followed by the next step, to express this change by witnessing through baptism, and then is the practical demonstration of this changed life by separating from the people who can pull back into the evils and systems of the world, to change one’s fellowship as well - Be saved from this perverse generation.


Those who become Christian Believers, they continue steadfastly in the four things of Acts 2:42, which we have already seen. So, from this passage, we have seven characteristics of a saved, Born-Again Christian Believer:

1. Decides to repent of his sins voluntarily and willingly.

2. Witnesses about his changed life through water Baptism.

3. Changes his fellowship and company for his spiritual growth and security, i.e., separates himself from his former fellowship and company which can pull him back into evil.

Then, for his growth in his spiritual and Christian life, in nearness to the Lord God, he,

4. Continually keeps learning God’s Word

5. Continues in fellowship with Christian Believers

6. Regularly participates in the Lord’s Table or Holy Communion in the way given in God’s Word.

7. Leads a life of prayer.


From the above it is evident that the life of Christian faith is not a life of following a religion, i.e., of fulfilling religious formalities, but of accepting and living a life of being an obedient and committed disciple of Christ Jesus. Also, being a Christian Believer or a disciple of Lord Jesus is not a matter of converting from one religion to another, but of converting the heart and mind and practically living out this changed life. If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


Through the Bible in a Year: 

  • Job 14-16 

  • Acts 9:22-43



मंगलवार, 28 जून 2022

मसीही विश्वास एवं शिष्यता / Christian Faith and Discipleship – 10


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बपतिस्मा और मसीही विश्वास


पिछले लेखों में हमने देखा कि मसीही विश्वास के स्थान पर मसीही या ईसाई धर्म का निर्वाह करने वाले प्रेरितों 2:42 में दी गई मसीही विश्वासियों के लिए ‘लौलीन’ रहने वाली चार बातों (वचन की शिक्षा पाना, संगति रखना, प्रभु-भोज में सम्मिलित होना, प्रार्थना करना) को उद्धार या नया जन्म प्राप्त कर लेने के लिए गणित के एक समीकरण के समान, एक रस्म के समान मान तथा मना लेते हैं। वे इन चारों बातों के वास्तविक महत्व को समझने और उसके आधार पर प्रभु की आज्ञाकारिता में उनका निर्वाह करने की बजाए एक रीति के समान इनकी औपचारिकता को पूरा करने के द्वारा समझते हैं कि वे भी नया जन्म या उद्धार पाए हुए हैं। किन्तु बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार उनका यह मान्यता रखना एक सर्वथा गलत धारणा ही है, तथा धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह द्वारा प्रभु परमेश्वर की दृष्टि में स्वीकार्य होने के लिए उनका एक व्यर्थ एवं निष्फल प्रयास हैं। पिछले लेखों में हम प्रेरितों 2:42 की चारों बातों के औपचारिक निर्वाह के बारे में देख चुके हैं। आज हम प्रेरितों 2 अध्याय में स्थापित हुई पहली मण्डली के लोगों के साथ तब जुड़ी, और आज मसीही विश्वासियों तथा ईसाई धर्म-समाज के साथ भी घनिष्ठता से जुड़ी एक और बात के बारे में कुछ और विस्तार से देखेंगे, जिसे भी गणित के समीकरण के समान लेकर, उसके विषय भी गलत धारणा बना ली गई है, और उसे मनुष्यों द्वारा दिए गए भिन्न स्वरूपों में बड़ी निष्ठा से निभाया भी जाता है, बिना यह देखे और विचारे कि बाइबल में उसके बारे में क्या कुछ लिखा और सिखाया गया है। यह पाँचवीं बात है बपतिस्मा।

  

5. बपतिस्मा: प्रभु यीशु मसीह और बाइबल की शिक्षा है कि जो प्रभु यीशु मसीह का शिष्य बने उसे ही बपतिस्मा दिया जाए “इसलिये तुम जा कर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्रआत्मा के नाम से बपतिस्मा दो” (मत्ती 28:19)। अर्थात बपतिस्मा उनके लिए है जो प्रभु यीशु का शिष्य बनना स्वीकार करता है, जो अपने इस मसीही विश्वास के द्वारा प्रभु का जन बन जाता है। इस आयत से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि बपतिस्मा किसी को प्रभु यीशु का अनुयायी नहीं बनाता है; वरन वो जो प्रभु यीशु का अनुयायी बनने का निर्णय ले लेते हैं, उन्हें प्रभु यीशु के प्रति आज्ञाकारिता के अन्तरगत, बपतिस्मा लेना चाहिए, और यही बात बाइबल के अन्य हवालों से भी प्रकट है।

 

जब हम यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के द्वारा पहले दिए जा रहे बपतिस्मे के बारे में देखते हैं, और फिर बाद में प्रभु यीशु की उपरोक्त आज्ञाकारिता में उनके शिष्यों के द्वारा दिए जाने वाले बपतिस्मे के बारे में देखते हैं, तो यह प्रकट है कि बाइबल में तो बपतिस्मा केवल उन्हें ही दिया गया जो पापों के लिए पश्चाताप और प्रभु के प्रति सच्चे समर्पण के साथ बपतिस्मा लेने के उद्देश्य से स्वेच्छा से आए। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने अपनी सेवकाई का आरंभ मन फिराव के आह्वान के साथ किया (मत्ती 3:2); और यही प्रभु यीशु ने भी किया (मरकुस 1:15)। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के प्रचार को मानकर जो लोग अपने पापों का अंगीकार करते थे, उन्हें वह बपतिस्मा देता था (मत्ती 3:5, 6) - यूहन्ना उन्हें बपतिस्मा देने के लिए नहीं जाता था, लोग स्वतः बपतिस्मा लेने के लिए यूहन्ना के पास आते थे। किन्तु जब कपटी फरीसी और सदूकी, पाखण्ड में होकर उससे बपतिस्मा लेने के लिए आए, तो उसने उनकी भर्त्सना की और पहले मन फिराने के लिए कहा (मत्ती 3:7-8)। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने स्पष्ट कहा कि वह “मन फिराव का बपतिस्मा” देता था (मत्ती 3:11)।

 

प्रभु यीशु मसीह ने भी अपने शिष्यों से उन्हें ही बपतिस्मा देने के लिए कहा जो पहले स्वेच्छा से उसके शिष्य बनना स्वीकार कर चुके थे (मत्ती 28:19-20), और हम पहले देख चुके हैं कि प्रभु यीशु का शिष्य बनने के लिए व्यक्ति को पहले अपने पापों से पश्चाताप करना अनिवार्य है। अर्थात प्रभु यीशु द्वारा दिए गए बपतिस्मा देने और लेने के निर्देश में पहले व्यक्ति द्वारा पश्चाताप करना अनिवार्यतः निहित है। यही बात, अपने आप में, शिशुओं या बच्चों के, तथा चर्च की रीति पूरी करने के लिए बपतिस्मा देने या लेने को निषेध कर देती है। 


संपूर्ण बाइबल में कहीं भी किसी शिशु अथवा बच्चे को बपतिस्मा देने का कोई उदाहरण नहीं है; जिनका भी बपतिस्मा होने के उदाहरण हैं वे सभी वयस्क थे और उन्होंने स्वेच्छा से पापों से पश्चाताप करने के पश्चात ही बपतिस्मा लिया। साथ ही जहां कहीं भी बपतिस्मा दिए जाने का उल्लेख है, वहाँ यह भी स्पष्ट संकेत है कि वह पानी के छिड़काव या माथे पर पानी से चिह्न बना देने के द्वारा नहीं, वरन किसी नदी या बहुत जल के स्थान पर पानी के अंदर उतर कर, फिर पानी में से बाहर आने, अर्थात डुबकी के द्वारा दिया गया बपतिस्मा था (मत्ती 3:16; यूहन्ना 1:28; 3:23; प्रेरितों 8:36-39)। और न ही बाइबल में किसी दृढ़ीकरण या confirmation की कोई बात, आवश्यकता, अथवा विधि दी गई है। 


किन्तु इस “समीकरण” वाली धारणा के अधीन, लोग सामान्यतः यही मान लेते हैं कि किसी भी आयु में, किसी भी प्रकार का “बपतिस्मा” लेने से वे मसीह के जन, उसके शिष्य, और उद्धार या नया जन्म पाए हुए व्यक्ति बन जाते हैं; जो कदापि सत्य नहीं है, बाइबल और प्रभु यीशु की शिक्षा नहीं है। बपतिस्मा न तो नया जन्म देता है, न उद्धार और पापों की क्षमा देता है, और न ही प्रभु यीशु का शिष्य बनाता है। प्रत्येक चर्च अथवा मण्डली में ऐसे कितने ही लोग मिल जाएंगे, जिन्होंने एक रस्म या रीति के तौर पर बपतिस्मा तो लिया और उससे संबंधित विधि-विधान तो पूरे किए, किन्तु सच्चे मन से पापों से पश्चाताप नहीं किया, न ही प्रभु यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण किया। उनके जीवन, आदतें, बोल-चाल, व्यवहार, यदि सभी कुछ दिखा देते हैं कि वे वास्तव में उद्धार पाए हुए नहीं हैं। उनके बपतिस्मे ने उनका जीवन नहीं बदला; वे अभी भी अपने पापों ही में जी रहे हैं। उद्धार या नया जन्म पाए हुए व्यक्ति के लिए बपतिस्मा प्रभु का निर्देश है; किन्तु हर बपतिस्मा पाया हुआ व्यक्ति उद्धार पाया हुआ और प्रभु का जन नहीं होता है - मनुष्यों द्वारा गढ़ी और लागू की गई इस गलत धारणा की बाइबल में कहीं कोई समर्थन अथवा पुष्टि नहीं है।


आज मसीही विश्वास के स्थान पर ईसाई धर्म को मानने और मनाने वाले लोग बड़ी निष्ठा और लगन से किन्तु गलत धारणा और विचारधारा के साथ प्रभु भोज और बपतिस्मे में सम्मिलित तो होते हैं, किन्तु यह नहीं जानते और समझते हैं कि यदि उन्होंने पापों से पश्चाताप नहीं किया है, प्रभु यीशु को स्वेच्छा से अपना उद्धारकर्ता ग्रहण नहीं किया है, सच्चे मन से उसके शिष्य नहीं बने हैं, तो यह सब उनके लिए व्यर्थ और निष्फल है; वे अभी भी अपने पापों में पड़े हुए हैं और अनन्त विनाश के मार्ग पर ही अग्रसर हैं। इसलिए यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने एक परिवार विशेष में जन्म अथवा उस परिवार और अपने जन्म से संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर परमेश्वर के वचन बाइबल की सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। 


आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • अय्यूब 11-13 

  • प्रेरितों 9:1-21


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English Translation

Baptism and the Christian Faith

    In the previous articles we have been seeing that those who believe in and follow the Christian religion instead of the Christian faith, use the four integral things in a Born-Again Christian Believer’s life, related to the Christian faith, and mentioned in Acts 2:42 (Bible study, Fellowship, Lord’s Table, Prayer), like a mathematical equation, to consider themselves as being saved or Born-Again. Instead of understanding the actual meaning and significance of these things, and then observing them as an act of obedience to the Lord, the followers of the Christian religion observe these four things ritualistically, to fulfill religious formality, and then think themselves to be saved as well. This is a misunderstanding, a wrong notion on their part, and does not reconcile them with God, since it is similar to the notion of salvation by works, i.e., through observance of religion-good works-rituals and ceremonies etc. In our study on the significance and observance of these four things of Acts 2:42, we have seen about their ritualistic and formal observance; today we look at another important thing - Baptism which is also often misunderstood and practiced quite enthusiastically but inappropriately in various forms and ways, again like a mathematical equation, without learning from the Bible what all has been written and taught about it, by those who follow the Christian religion.


5. Baptism: It is the Lord’s teaching and a teaching of the Bible, that only those who voluntarily and willingly decide to become the disciples of the Lord Jesus, should be baptized, “Go therefore and make disciples of all the nations, baptizing them in the name of the Father and of the Son and of the Holy Spirit” (Matthew 28:19); i.e., baptism is to be given to those who decide to become the Lord’s people, who come into the Christian faith. This verse makes it very clear that baptism does not make one a disciple of Lord Jesus; rather those who decide to become the disciples of the Lord Jesus, they ought to get baptized as an act of obedience to the Lord Jesus, and this is evident from the other Biblical references as well.


When we see about the baptism John the Baptist was administering, and then later on, the baptism administered by the disciples of the Lord Jesus, then it is quite clear that baptism was given to only those who repented of sins and came forth to be baptized with a complete surrender and submission to the Lord. John the Baptist began his ministry with the call to repent of sins (Matthew 3:2), and so did the Lord Jesus (Mark 1:15). John the Baptist baptized only those who believed in his preaching and teachings and repented of their sins (Matthew 3:5-6), note here that John never went to baptize anyone; it was the people who came to him for this. But when the hypocritical Pharisees and Sadducees, came to him for baptism in their hypocrisy, he denounced them, and asked them to first repent and only then come (Matthew 3:7-8). John the Baptist stated it very clearly that he baptized with a baptism of repentance (Matthew 3:11).


Lord Jesus also told His disciples to baptize only those who would first willingly decide to become His disciples (Matthew 28:19-20), and as we have seen earlier, this is only possible by repenting of sins. Hence, in the Lord Jesus’s commandment about taking and giving of baptism, the absolute necessity of repentance is definitely implied. This one fact by itself very obviously reveals the un-Biblical nature of the practice of infant or child baptism, and also of baptism being administered ritualistically as a denominational requirement, and firmly negates these practices.


Throughout the Bible, there is no instance or example of any infant or child baptism being given by anyone; all those who have been baptized in the Bible have been adults, and they were all baptized only after voluntarily and willingly repenting of their sins. Also, wherever baptism is mentioned in the Bible, it has been clearly indicated that it was never given by dipping a finger in water and making the mark of the cross on the forehead, or by sprinkling of water; it was always done in a river or stream, or place of enough water into which one could enter in and then then come up from the water, i.e., it was a baptism by immersion in water (Matthew 3:16; John 1:28; 3:23; Acts 8:36-39). Nor is there any instruction or teaching anywhere in the Bible about the practice of “Confirmation” so commonly practiced by the followers of the Christian religion in many denominational Churches.


But those acting under and following the concept of it functioning like a mathematical equation, trust that by “baptizing” a person, irrespective of the age or methodology, the “baptism” makes the person into a follower of the Lord, His disciple, and one who is saved or Born-Again - which has never ever been the teaching of the Lord or the Bible. Baptism neither saves, nor makes a person Born-Again, nor provides forgiveness of sins, nor does it make a person a disciple of the Lord Jesus Christ. In every Church and Assembly, there are any number of people who have taken baptism to fulfill a ritual or denominational requirement, have fulfilled all the related practices and ceremonies, but have never ever truly repented of their sins nor ever accepted the Lord Jesus as their personal savior. Their lives, habits, speech, behavior, etc., everything makes it evident that they are not actually saved. Their getting baptized never changed their lives; they are still living in their sins, just as they were before being baptized. For those saved or Born-Again, to be baptized is a commandment of the Lord Jesus; but not every baptized person becomes a saved or Born-Again person. There is no support or affirmation in God’s Word the Bible of this man-made, contrived and wrong doctrine.


Today, the followers of the Christian religion, very sincerely, enthusiastically and religiously, but with a wrong notion and complete misunderstanding, participate in the Holy Communion and take baptism, but they do not know or understand that if they have not repented of their sins, and have not willingly accepted the Lord Jesus as their savior, have not submitted their lives to Him, they actually are not the disciples of the Lord and doing all this is vain and fruitless for them; they are still in their sins and are heading towards eternal destruction in their sins. If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


Through the Bible in a Year: 

  • Job 11-13 

  • Acts 9:1-21