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सोमवार, 28 मार्च 2022

व्यवस्था और मसीही जीवन / The Law and the Christian Life - 15


व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? (10)

 व्यवस्था की सीमाएं (2)

इस प्रश्न पर विचार करते हुए कि व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है, पिछले लेख में हमने व्यवस्था की सीमाओं के बारे में रोमियों 7 अध्याय से देखना आरंभ किया था। पिछले लेख में हमने रोमियों 7:1, 5 से व्यवस्था की दो सीमाओं को देखा और समझा था। पहली, पद 1 से थी कि व्यवस्था प्रभुता करती है; उसमें दया, करुणा, व्यक्ति की परिस्थिति को समझना नहीं है; वह केवल दोषी ठहरा सकती है और दोष का दण्ड बता सकती है। दूसरी, पद 2 से थी कि व्यवस्था के कारण शरीर में अभिलाषाएं उत्पन्न होती हैं, जिनमें गिरा कर शैतान पाप करवा देता है। आज हम रोमियों 7 अध्याय में दी गई व्यवस्था की कुछ और सीमाओं और बातों को देखेंगे, जो उसे उद्धार देने में असमर्थ करती हैं।


तीसरी और बहुत महत्वपूर्ण सीमा रोमियों 7:6 में दी गई है, जहाँ लिखा है, “परन्तु जिस के बन्धन में हम थे उसके लिये मर कर, अब व्यवस्था से ऐसे छूट गए, कि लेख की पुरानी रीति पर नहीं, वरन आत्मा की नई रीति पर सेवा करते हैं” (रोमियों 7:6)। प्रभु के शिष्यों, उस पर विश्वास और उसे जीवन समर्पण करने वाले लोगों, मसीही विश्वासियों, को व्यवस्था से छुड़ा लिया गया है; अब व्यवस्था उनके लिए लागू, और उन पर कार्यकारी नहीं है। वे अब व्यवस्था की बातों के पालन से, उस पर आधारित होकर परमेश्वर के समक्ष धर्मी बनने और परमेश्वर को स्वीकार्य होने से मुक्त कर दिए गए हैं। रोमियों में ही पौलुस आगे लिखता है, “क्योंकि हर एक विश्वास करने वाले के लिये धामिर्कता के निमित मसीह व्यवस्था का अन्त है” (रोमियों 10:4)। परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में, इसी विषय पर, प्रेरित पौलुस ने, कुलुस्से की मसीही मण्डली को, प्रभु यीशु मसीह द्वारा हमारे उद्धार के लिए किए गए काम के विषय लिखा, “और उसने तुम्हें भी, जो अपने अपराधों, और अपने शरीर की खतनारहित दशा में मुर्दा थे, उसके साथ जिलाया, और हमारे सब अपराधों को क्षमा किया। और विधियों का वह लेख जो हमारे नाम पर और हमारे विरोध में था मिटा डाला; और उसको क्रूस पर कीलों से जड़ कर सामने से हटा दिया है। और उसने प्रधानताओं और अधिकारों को अपने ऊपर से उतार कर उन का खुल्लमखुल्ला तमाशा बनाया और क्रूस के कारण उन पर जय-जय-कार की ध्वनि सुनाई” (कुलुस्सियों 2:13-15)। अब जिसे परमेश्वर ने ही प्रभु यीशु मसीह में पूरा कर के, हमारे सामने से हटा दिया है, तो उसके सहारे से, उसके पालन के द्वारा, हम परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य कैसे हो सकते हैं? इसलिए व्यवस्था के पालन के द्वारा उद्धार पाने के प्रयास व्यर्थ हैं, असफल ही होंगे। 


व्यवस्था की चौथी सीमा, रोमियों 7:13 में लिखी है, किन्तु उसे उसके संदर्भ के पद - पद 7-13 में देखना आवश्यक है। पद 7 में पवित्र आत्मा ने लिखवाया है कि व्यवस्था पाप नहीं है, वरन पाप की पहचान करवाती है - अर्थात एक ऐसा मानक है जिसके सामने रख कर परमेश्वर की दृष्टि में क्या सही और स्वीकार्य है, तथा क्या नहीं है, उसकी पहचान की जाती है। फिर पद 8-11 में पाप की पहचान के कारण उत्पन्न होने वाली अभिलाषाओं, और उनमें होकर पाप में गिर जाने की बात समझाई गए है, जिसे हम 7:5 के संदर्भ में पिछले लेख में देख चुके हैं। फिर पद 12 में पवित्र आत्मा व्यवस्था के तीन और गुण लिखवाता है, कि वह पवित्र, ठीक, और अच्छी है। तब वह पद 13 में लिखवाता है, “तो क्या वह जो अच्छी थी, मेरे लिये मृत्यु ठहरी? कदापि नहीं! परन्तु पाप उस अच्छी वस्तु के द्वारा मेरे लिये मृत्यु का उत्पन्न करने वाला हुआ कि उसका पाप होना प्रगट हो, और आज्ञा के द्वारा पाप बहुत ही पापमय ठहरे” (रोमियों 7:13)। अर्थात, कमी व्यवस्था में नहीं है; कमी व्यवस्था के प्रति हमारी समझ और व्यवहार, और शैतान द्वारा हमारे अंदर बसे हुए पाप के स्वभाव को उकसा कर व्यवस्था का उल्लंघन करवाते रहने में है। इससे प्रकट है कि इस संदर्भ में व्यवस्था की सीमा है कि वह पाप की पहचान तो करवा सकती है, लेकिन पाप पर जयवंत नहीं कर सकती है; हमें पाप करने से रोक नहीं सकती है, और पौलुस अपने जीवन और व्यवहार के उदाहरण से इस बात को पद 14-24 में समझाता है।


व्यवस्था की पाँचवीं सीमा पद 23 और 25 में दी गई है; “परन्तु मुझे अपने अंगो में दूसरे प्रकार की व्यवस्था दिखाई पड़ती है, जो मेरी बुद्धि की व्यवस्था से लड़ती है, और मुझे पाप की व्यवस्था के बन्धन में डालती है जो मेरे अंगों में है” (रोमियों 7:23); “मैं अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर का धन्यवाद करता हूं: निदान मैं आप बुद्धि से तो परमेश्वर की व्यवस्था का, परन्तु शरीर से पाप की व्यवस्था का सेवन करता हूं” (रोमियों 7:25)। व्यवस्था मनुष्य की बुद्धि पर तो काम कर सकती है, उसे भले-बुरे की पहचान करवा सकती है; किन्तु शरीर पर काम करने और पाप करने से रोकने में असमर्थ है। परमेश्वर का सत्य जानना बुद्धि का कार्य है; उस सत्य का पालन करना और जीवन में दिखाना, शरीर का कार्य है। व्यवस्था शरीर को नियंत्रित कर के उस सत्य मार्ग पर चलवाने में असमर्थ है, जो बुद्धि जानती और समझती है। बहुत सामान्य और जानी-पहचानी बात है, लोग जानते हैं कि शराब, तम्बाकू, मादक-पदार्थों, और अन्य ऐसे व्यसन के प्रयोग का परिणाम शरीर की हानि ही होता है; किन्तु फिर भी शरीर की लालसा के आगे असमर्थ हैं, उनका नियमित प्रयोग करते रहते हैं। सभी जानते हैं कि चोरी, धोखा, लूट, मार-पीट आदि करने के कारण दण्ड के भागी बन जाते हैं; किन्तु फिर भी इन बातों को करते हैं, और दण्ड भी भुगतते हैं। किन्तु शरीर के आगे असमर्थ हैं, और सद्बुद्धि की बातों का पालन नहीं करने पाते हैं। 


अगले लेख में हम व्यवस्था के उद्देश्य, और उसकी माँग, फिर उसके बाद उसकी उपयोगिता के विषय देखेंगे। किन्तु अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अपनी धार्मिकता को किसी “व्यवस्था” के पालन के द्वारा - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - प्रमाणित करने की, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो व्यवस्था की सीमाओं को पहचानते हुए, आपको इन व्यर्थ प्रयासों से निकलकर, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने की आवश्यकता है। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।   


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

  

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • न्यायियों 4-6   

  • लूका 4:31-44     


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Why can't the law save us? (10)

 Limitations of the Law (2)


Considering the question of why the law cannot save us, in the previous article, we began to look at the limits of the Law from Romans 7. We saw and understood two limitations of the Law from Romans 7:1, 5. The first was from verse 1 that the law asserts dominion. There is no kindness, compassion, understanding of the person's situation, etc., in the Law, it can only convict and give the punishment. The second limitation, from verse 5 was that desires arise in the flesh because of the Law, and Satan exploits them, by causing people to fulfill those desires gets them to fall into sin. Today we'll look at some more limitations of the Law from Romans 7; things that render it incapable of providing salvation.

 

A third and very important limitation is given in Romans 7:6, where it is written, "But now we have been delivered from the law, having died to what we were held by, so that we should serve in the newness of the Spirit and not in the oldness of the letter" (Romans 7:6). The disciples of the Lord Jesus, those who believe in Him and surrendered themselves to Him, i.e., Christians, have been redeemed from observing the Law. Now the Law no longer applies to them, nor is it effective for them. They have now been set free from obeying the Law, from being righteous before God and being accepted by God through the Law. In Romans itself, Paul further writes, "For Christ is the end of the law for righteousness to everyone who believes" (Romans 10:4). On the same topic, under the guidance of God's Holy Spirit, the apostle Paul wrote to the Christian congregation in Colossae about the work done by the Lord Jesus Christ for our salvation, and said, "And you, being dead in your trespasses and the uncircumcision of your flesh, He has made alive together with Him, having forgiven you all trespasses, having wiped out the handwriting of requirements that was against us, which was contrary to us. And He has taken it out of the way, having nailed it to the cross. Having disarmed principalities and powers, He made a public spectacle of them, triumphing over them in it" (Colossians 2:13-15). So then, how can we be righteous and acceptable to God through obeying that, which God has fulfilled in the Lord Jesus Christ, and has taken away from us? Therefore, all efforts to be saved by obeying the Law are vain, and are doomed to failure.

 

The fourth limit of the Law is written in Romans 7:13, but it is necessary to look at it in its context in verses 7-13. In verse 7 the Holy Spirit has written that the Law is not sin, rather it identifies sin — it is a standard to measure, to identify what is right and acceptable in the eyes of God, and what is not. Then verses 8–11 explain how desires arise from the recognition of sin, and by falling for fulfilling those desires we fall into sin, which we saw in the previous article in the context of 7:5. Then in verse 12 the Holy Spirit writes down three more qualities of the Law, that it is holy, just, and good. Then Paul writes in verse 13, "Has then what is good become death to me? Certainly not! But sin, that it might appear sin, was producing death in me through what is good, so that sin through the commandment might become exceedingly sinful” (Romans 7:13). That is to say that the deficiency is not in the Law; it is in our understanding and utilization of the Law. And Satan continually incites us to violate the Law and commit sin by provoking the sin nature that is ingrained in us. It is evident from this that the Law has a limitation in this context, that it can identify sin for us, but it cannot help us to overcome sin; it cannot keep us from sinning, and Paul illustrates this in verses 14–24 with the example of his life and behavior.

 

The fifth limit of the Law is given in verses 23 and 25; “But I see another law in my members, warring against the law of my mind, and bringing me into captivity to the law of sin which is in my members” (Romans 7:23); “I thank God--through Jesus Christ our Lord! So then, with the mind I myself serve the law of God, but with the flesh the law of sin” (Romans 7:25). The Law can work in the mind of man, it can make him identify good and bad. But it is incapable of working on the body, to keep it from committing things they know as sins, in their minds. To know and recognize God’s truth is a work of the mind; but to obey and live out that truth in life is the function of the body. The Law is unable to control the body and lead it on to the right path which the mind already knows and understands. It is a very common and well-known thing, people know that the use of alcohol, tobacco, drugs, and other such addictions results in harm to the body. But still, they are unable to control the craving of the body for them, and keep using them regularly. Everyone knows that for committing theft, cheating, plundering, violence, etc., they will be punished; but they still do these things, and they also suffer punishment. But they are helpless before the desires of the body, and are unable to follow the truth their minds know.

 

In the next article, we'll look at the purpose of the Law, and its demands, then its utility. But for now, if you're a Christian, and have trusted in your being righteous through observance of some "law"—whether that of God, or of your religion, creed, community, or religion; or have been trying to prove yourself righteous and acceptable to God through this, i.e., through works of the flesh; then it is time you recognize the limitations of the Law you are trusting, and you need to step out of these vain efforts, and follow the path of repentance and submission given by God. Now, while you have the time and opportunity, make the right decision and leave the vain and fruitless path.

 

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

  

Read the Bible in a Year:

  • Judges 4-6

  • Luke 4:31-44