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कलीसिया का निर्माण – 7 – पतरस पर? – 7
परमेश्वर की कलीसिया के तथा उस की अन्य सन्तानों के साथ सहभागिता रखने योग्य भण्डारी होने के लिए, नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी होने के नाते, हम प्रभु की कलीसिया, तथा परमेश्वर की सन्तानों के साथ सहभागिता रखने के बारे में सीख रहे हैं। प्रभु ने मत्ती 16:18 में कहा कि वह ही अपनी कलीसिया बनाएगा। किन्तु शैतान इस पद का दुरुपयोग करके, एक गलत शिक्षा ले आया है, जो दुर्भाग्यवश, ईसाई या मसीही समाज में काफी मान्य और प्रचलित भी हो गई है, कि प्रभु ने अपनी कलीसिया पतरस पर बनाई है। हमने इस पद के विश्लेषण के द्वारा, तथा पवित्र शास्त्र के अन्य भागों से इस बात को देखा है कि यह एक अस्वीकार्य और गलत धारणा है। अभी हम बाइबल से पतरस के चरित्र के कुछ गुणों को देख रहे हैं जो यह दिखाते हैं कि क्यों वह कलीसिया का आधार कभी नहीं हो सकता था। पिछले दो लेखों में हमने कुछ गुण देखे हैं, और कुछ अन्य को आज देख कर इस भाग का समापन करेंगे।
पतरस में प्रभु की विश्वव्यापी कलीसिया की स्थापना का दर्शन नहीं था; इसी अपरिपक्वता और दर्शनों की नासमझी के कारण, वह यह नहीं समझ सका था कि प्रभु अन्यजातियों से भी उतना ही प्रेम करता है जितना यहूदियों से, जैसा उसने प्रेरितों 1:8 में शिष्यों तथा पतरस से सामरिया और संसार के छोर तक जाकर प्रचार करने के दायित्व देने के द्वारा प्रकट किया था। वह कुरनेलियुस के घर जाकर अपनी इसी अपरिपक्वता और नासमझी को प्रकट करता है, कुरनेलियुस के घर पहुँचने के बाद भी, पतरस वहाँ पर, यहूदी होने के कारण अपने आप को ‘उच्च’ दिखाने का प्रयास करता है, बजाए इसके कि जिसके यहाँ प्रभु ने उसे भेजा है, उसके साथ आदर से बात करे (प्रेरितों 10:28-29)। जो व्यक्ति प्रभु के सुसमाचार के विश्वव्यापी उद्देश्य को नहीं समझता था, वह प्रभु की विश्वव्यापी कलीसिया के दर्शन को क्या जानेगा, और उसका आधार कैसे होगा?
पतरस लोगों को दिखाने के लिए अपने मसीही व्यवहार को बदलने और कपट करने वाला व्यक्ति था, और उसके इस व्यवहार के कारण उसके साथ रहने वाले और भी लोग बहक जाते थे। गलातियों 2:11-21 में, घटना लिखी गई है जब पौलुस के मसीही हो जाने के चौदह वर्षों (गलातियों 2:1) से भी अधिक के बाद, अर्थात पतरस ने लगभग दो दशकों तक कलीसिया में कार्य करते रहने के बाद भी, लोगों को दिखाने के लिए अपने आप को यहूदियों को स्वीकार्य दिखाने का प्रयास किया था, और उसके साथ बरनबास जैसे विश्वासी लोग भी इस बात में गिर गए। यह इतनी गंभीर गलती थी, कि पतरस के इस व्यवहार और उसकी भर्त्सना के लिए पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा इस व्यवहार और उससे संबंधित बातों के लिए “कपट” (पद 13 ), “सुसमाचार की सच्चाई पर सीधी चाल नहीं चलना” (पद 14), “विश्वास की नहीं वरन कर्मों की धार्मिकता को दिखाने वाला” (पद 16), “पापी” (पद 17), “अपराधी” (पद 18), “परमेश्वर के अनुग्रह को व्यर्थ ठहराने वाला” (पद 21) जैसे कठोर और कटु शब्दों का सब के सामने, सार्वजनिक रीति से उपयोग किया, और इस घटना को तथा उससे संबंधित भर्त्सना के उन शब्दों को अनन्तकाल के लिए अपने वचन में लिखवा भी दिया, जिससे आज हम पतरस के समान ही मनुष्यों को प्रसन्न करने के लिए परमेश्वर की शिक्षाओं से विमुख होने की इस गलती में न पड़ जाएं।
अब विचार कीजिए, क्या प्रभु जो आदि से लेकर अन्त तक की हर बात को जानता है, जिससे कोई बात छुपी नहीं है, जिसके लिए भविष्य भी वर्तमान के समान ही है, क्या वह ऐसे अस्थिर और डांवांडोल व्यवहार और प्रवृत्ति रखने वाले मनुष्य पर कलीसिया स्थापित करेगा? वह भी अपनी स्वयं की शिक्षा (मत्ती 7:24-27) के विरुद्ध?
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो परमेश्वर पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता एवं अधीनता में वचन की सच्चाइयों को उससे समझें। किसी के भी द्वारा कही गई कोई भी बात को तुरंत ही पूर्ण सत्य के रूप में स्वीकार न करें, विशेषकर तब, जब वह बात बाइबल की अन्य बातों के साथ ठीक मेल नहीं रखती हो। सदा इस बात का ध्यान रखें कि वचन के हर शब्द, हर बात को न केवल उसके तात्कालिक संदर्भ में देखें, समझें, तथा व्याख्या करें, वरन यह भी सुनिश्चित करें कि आपकी वह समझ और व्याख्या वचन में अन्य स्थानों पर दी गई संबंधित बातों एवं शिक्षाओं के अनुरूप भी है, उनके साथ किसी प्रकार का कोई विरोधाभास नहीं है। कभी भी किसी भी गलत शिक्षा को न तो स्वीकार करें और न ही उसका प्रचार और प्रसार करें; परमेश्वर अपने वचन की सच्चाइयों की अवहेलना करने वालों को फिर उन्हीं की मनसा के अनुसार भयानक भ्रम और विनाश में डाल देता है (यहेजकेल 14:7-8; 2 थिस्सलुनीकियों 2:10-12)।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Building the Church – 7 – On Peter? – 7
To be worthy stewards of God’s Church and of fellowshipping with God’s other children, as Born-Again Christian Believers, we are learning about the Church of the Lord and about the fellowshipping with God’s children. The Lord said in Matthew 16:18, that He will build His Church. But Satan has manipulated the Lord’s Word, and brought in a false teaching, that unfortunately has been commonly accepted and believed upon in Christendom, that the Lord has built His Church on Peter. We have seen from the analysis of this verse, as well as other portions of the Scriptures that this is an untenable false notion. We are now considering some of Peter’s character traits from the Bible, that show why he could never be the foundation of the Church. We have already seen some of these in the previous two articles, and will see some more today, and conclude this part.
Peter did not have the vision of the world-wide Church of the Lord that included the gentiles; because of this lack of spiritual maturity and his inability to understand the visions from the Lord, he did not understand that the Lord loved the gentiles just as much as he loved the Jews, as the Lord had expressed when He had asked the disciples, including Peter, to go to Samaria and the ends of the world with the gospel (Acts 1:8). Peter exposed this lack of spiritual maturity and lack of understanding on reaching the house of Cornelius, after reaching the house of Cornelius, Peter tries to show off his ‘superiority’ as a Jew, instead of treating the one to whom the Lord has sent him, respectfully (Acts 10:28-29). The person who does not understand the world-wide application of the gospel, how can he be expected to have an understanding about the world-wide Church of the Lord Jesus? How then can he ever be the foundation for building that world-wide Church?
Peter was prone to change his Christian behavior and be hypocritical about it, to please people and be seen to be right in their eyes, and because of this, others with him too would fall into the same wrong. In Galatians 2:11-21, an incident is given, when more than 14 years after the conversion of Paul (Galatians 2:1), i.e., after Peter,s nearly two-decades of working in and for the Church of the Lord, he tried to make himself pleasing to men and not offend them by acting hypocritically, and even Believer’s like Barnabas fell into the same hypocrisy because of him, with him. This was such a serious wrong that the Holy Spirit through Paul rebuked him severely, called his behavior by various unpleasant, very strong and deprecating expressions, e.g., “hypocrisy” (v. 13), “that they were not straightforward about the truth of the gospel” (v. 14), showing himself as justified by works and not by faith (v. 16), “sinners” and “minister of sin” (v. 17), a “transgressor” (v. 18), and one who “set aside the grace of God” (v. 21). Not only did the God the Holy Spirit say all this to Peter and the others through Paul openly and publicly, but also had it recorded for eternity in God’s eternal unalterable Word, so that today, we may not fall into the same grave mistake of going against the teachings of the Lord for the sake of pleasing men.
Now think for yourself, can the Lord God who knows everything about everything and everyone, from the beginning to the end; from whom nothing is hidden; for whom past-present-future are all alike, without any differentiation, would He establish His Church on such a shaky and vacillating man; one who could make others fall because of his hypocrisy, rashness, and impatience, and refuse to obey God for the sake of his own contrived righteousness? Will the Lord go against His own teachings of Matthew 7:24-27 for such a man?
If you are a Christian Believer, then you should learn to discern and understand the truths of God’s Word under the guidance and teaching of the Holy Spirit. Do not accept anything and everything as the truth unless and until you have cross-checked and verified it from the Bible with the help of the Holy Spirit; more so when that thing does not seem to be consistent with the other related things of the Bible. Those who knowingly and willingly choose to go against the truths and facts of God’s Word, choose to believe and do according to their thinking and mentality, God sends them into a terrible deception and destruction (Ezekiel 14:7-8; 2 Thessalonians 2:10-12).
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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