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मंगलवार, 8 फ़रवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया के कार्यकर्ता और उनकी सेवकाई (7)

 

उपदेशकों / शिक्षकों की सेवकाई      


हम पिछले लेखों में इफिसियों 4:11 में कलीसिया की उन्नति के लिए प्रभु द्वारा नियुक्त पाँच प्रकार के सेवकों तथा उनकी सेवकाइयों के बारे में देखते आ रहे हैं। हम देख चुके हैं कि ये पाँचों सेवकाइयां परमेश्वर के वचन की सेवकाई से संबंधित हैं; और हमने वचन से यह भी देखा है कि एक ही व्यक्ति एक से अधिक प्रकार की सेवकाई कर सकता है, और करता रहा है। पिछले लेख में हमने इनमें से पांचवें, उपदेशक, अर्थात शिक्षक होने के बारे में देखा था, और देखा था कि कैसे प्रभु यीशु भी एक शिक्षक, सुसमाचार प्रचारक, और अन्य सेवकाइयों को करने वाले जाने जाते थे। आज हम वचन से ही उचित रीति से वचन की शिक्षा दिए जाने और वचन की सही शिक्षा के लोगों के जीवनों पर प्रभावों के कुछ उदाहरणों को देखते हैं:

  • प्रभु यीशु मसीह ने जब लोगों को सिखाया, तब, फरीसियों और शास्त्रियों के समान नहीं, परंतु अधिकारी के समान, और अधिकार के साथ सिखाया (मत्ती 7:28-29; मरकुस 1:22; लूका 4:32)। अर्थात प्रभु यीशु ने वचन को ‘किताबी या मानवीय’ ज्ञान के अनुसार नहीं वरन वचन की गहराई से समझ और दृढ़ता के साथ सिखाया। किन्तु साथ ही वह लोगों को उनकी समझ के अनुसार भी सिखाता था, और परमेश्वर की शिक्षाओं को सरल दृष्टांतों के द्वारा लोगों को समझाता था (मरकुस 4:33-34)। मसीही शिक्षक को वचन की शिक्षा देने की विधि का यही उदाहरण लेकर चलना चाहिए। 

  • पौलुस ने कुरिन्थुस की मण्डली को उन्हें उससे मिली सुसमाचार की शिक्षा के विषय स्मरण दिलाया, “और हे भाइयों, जब मैं परमेश्वर का भेद सुनाता हुआ तुम्हारे पास आया, तो वचन या ज्ञान की उत्तमता के साथ नहीं आया। और मेरे वचन, और मेरे प्रचार में ज्ञान की लुभाने वाली बातें नहीं; परन्तु आत्मा और सामर्थ्य का प्रमाण था। इसलिये कि तुम्हारा विश्वास मनुष्यों के ज्ञान पर नहीं, परन्तु परमेश्वर की सामर्थ्य पर निर्भर हो” (1 कुरिन्थियों 2:1, 4-5)। अर्थात, पौलुस जैसे ज्ञानवान और पवित्र शास्त्र की उत्तम शिक्षा पाए हुए व्यक्ति के द्वारा पवित्र आत्मा की अगुवाई में जो सुसमाचार की शिक्षा दी गई, वह आत्मा की सामर्थ्य से तो थी, किन्तु उसकी शिक्षाओं में ज्ञान बघारने की बातें, या संसार के ज्ञान की बातें नहीं थीं। वह परमेश्वर के वचन में अपनी ओर से कुछ नहीं जोड़ता था, वचन को रोचक या आकर्षक बनाने के प्रयास नहीं करता था, सांसारिक बातों और ज्ञान को वचन में नहीं मिलाता था; वह केवल वचन के सत्य को प्रकट करता था, और लोगों में शेष कार्य परमेश्वर पवित्र आत्मा करता था (2 कुरिन्थियों 4:2)।  

  • इसी प्रकार थिस्सलुनीकिया की मसीही मण्डली को पौलुस ने लिखा, “क्योंकि हमारा सुसमाचार तुम्हारे पास न केवल वचन मात्र ही में वरन सामर्थ्य और पवित्र आत्मा, और बड़े निश्‍चय के साथ पहुंचा है; जैसा तुम जानते हो, कि हम तुम्हारे लिये तुम में कैसे बन गए थे। और तुम बड़े क्‍लेश में पवित्र आत्मा के आनन्द के साथ वचन को मान कर हमारी और प्रभु की सी चाल चलने लगे” (1 थिस्स्लुनीकियों 1:5, 6)। यहाँ पर भी हम देखते हैं कि पौलुस द्वारा वचन की शिक्षा मनुष्य के ज्ञान के द्वारा नहीं, वरन, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और बड़ी दृढ़ता से दी गई। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि परमेश्वर के वचन का पालन करने में थिस्सलुनीकिया के मसीही विश्वासियों को क्लेश तो उठाना पड़ा, किन्तु साथ ही उनमें पवित्र आत्मा का आनंद भी था, और उनके जीवन में परिवर्तन आया, और वे प्रभु की सी चाल चलने लगे - जो उन्हें मिली वचन की शिक्षा के सच्चे, खरे, और परमेश्वर की ओर से होने का प्रमाण है। 

  • परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस ने लोगों को वचन की शिक्षा देने के संदर्भ तिमुथियुस को लिखा था:

    • अपने आप को परमेश्वर का ग्रहण योग्य और ऐसा काम करने वाला ठहराने का प्रयत्न कर, जो लज्ज़ित होने न पाए, और जो सत्य के वचन को ठीक रीति से काम में लाता हो। पर अशुद्ध बकवाद से बचा रह; क्योंकि ऐसे लोग और भी अभक्ति में बढ़ते जाएंगे” (2 तीमुथियुस 2:15-16)। अर्थात, वचन की सेवकाई करने वाले को यह ध्यान रखना है कि वह वचन को अपने स्वार्थ या इच्छा-पूर्ति के लिए नहीं, वरन, ठीक रीति से काम में लाए, अशुद्ध बकवाद से बचा रहे, उसका जीवन और व्यवहार किसी भी रीति से लज्जित करने वाला न हो, और वह तथा उसका कार्य मनुष्यों को नहीं वरन परमेश्वर को ग्रहण योग्य हो - परमेश्वर के कहे और इच्छा के अनुसार हो, न कि लोगों को लुभाने वाला हो।  

    • कि तू वचन को प्रचार कर; समय और असमय तैयार रह, सब प्रकार की सहनशीलता, और शिक्षा के साथ उलाहना दे, और डांट, और समझा। क्योंकि ऐसा समय आएगा, कि लोग खरा उपदेश न सह सकेंगे पर कानों की खुजली के कारण अपनी अभिलाषाओं के अनुसार अपने लिये बहुतेरे उपदेशक बटोर लेंगे। और अपने कान सत्य से फेरकर कथा-कहानियों पर लगाएंगे। पर तू सब बातों में सावधान रह, दुख उठा, सुसमाचार प्रचार का काम कर और अपनी सेवा को पूरा कर” (2 तीमुथियुस 4:2-5)। अर्थात, वचन की शिक्षा देने वाले को हर समय अपने आप को तैयार रखना चाहिए, और धैर्य के साथ इस सेवकाई को निभाना चाहिए। वचन के शिक्षक को, वचन को समझाने के लिए यदि आवश्यकता पड़े तो लोगों को उलाहना देने और डांटने की भी अनुमति है, वरन, ऐसा करना उनकी ज़िम्मेदारी है; इसमें निहित है कि वचन की शिक्षा पाने वालों को उलाहना और डाँट सुनने के लिए भी तैयार और नम्र रहना चाहिए। वचन के शिक्षक को सार्थक और सच्ची बातों के द्वारा खराई से परमेश्वर की बातों, निर्देशों, और शिक्षाओं को लोगों तक पहुँचाना है, चाहे वे कटु सत्य ही क्यों न हों। उसे लुभावनी बातें सुनाकर लोगों से प्रशंसा और प्रमुख स्थान पाने से बच कर रहना है। चाहे यह सब करने के लिए उसे लोगों से विरोध का सामना ही क्यों न करना पड़े, दुख ही क्यों न उठाने पड़ें। 

    • हर एक पवित्र शास्‍त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये लाभदायक है। ताकि परमेश्वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिये तत्‍पर हो जाए” (2 तीमुथियुस 3:16-17)। अर्थात मसीही शिक्षक को परमेश्वर की शिक्षाओं को लोगों तक पहुँचाने के लिए परमेश्वर के वचन ही का प्रयोग करना चाहिए, जिसे स्मरण करवाने, सिखाने, और समझाने के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा निवास करता है (यूहन्ना 14:26; यूहन्ना 16:13-14; 1 कुरिन्थियों 2:10-13)। परमेश्वर के वचन के प्रयोग के द्वारा ही लोग परमेश्वर की वास्तविक शिक्षाओं को सीखने पाते हैं, और उसी से वे सिद्ध बनकर भले कार्यों के लिए तैयार होने पाते हैं। 

    उपरोक्त सभी उदाहरणों में हम वचन की शिक्षा से संबंधित कहीं किसी नाटकीय व्यवहार, या सांसारिक अथवा शारीरिक लाभ की बातों को नहीं पाते हैं। हर उदाहरण परमेश्वर के वचन के खराई से प्रयोग, और पवित्र आत्मा की सामर्थ्य के साथ था, जिसका प्रमाण लोगों के जीवन बदलने के द्वारा देखा गया, न कि कुछ समय के लिए कुछ अच्छा अनुभव हुआ, सुनने में अच्छा लगा, और फिर जीवन बदले बिना ही व्यक्ति अपनी पहले की से दशा में फिर से पहुँच गया। वचन को सुनने और मानने वालों ने इसके लिए क्लेश सहना भी स्वीकार किया, किन्तु वचन की खराई और सच्चाई से पीछे नहीं हटे। परमेश्वर की ओर से नियुक्त शिक्षक जब परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से परमेश्वर के वचन को बताते और सिखाते हैं, तो वह ‘मनुष्य की अभिलाषाओं के अनुसार कानों की खुजली’ मिटाने वाली कथा-कहानियों का प्रचार नहीं होता है (2 तिमुथियुस 4:3-4), वरन मन और जीवन बदलने वाली सामर्थी शिक्षाएं, परमेश्वर की दोधारी तलवार होता है जो “जीव, और आत्मा को, और गांठ गांठ, और गूदे गूदे को अलग कर के, वार पार छेदता है; और मन की भावनाओं और विचारों को जांचता है” (इब्रानियों 4:11)। 


यदि आप मसीही विश्वासी हैं, और आपको लोगों को परमेश्वर के वचन की शिक्षा देने का दायित्व मिल है, परमेश्वर ने आपके लिए यह सेवकाई निर्धारित की है, तो अपनी सेवकाई के लिए परमेश्वर से यशायाह 50:4 आपके लिए पूरा करना माँगिए। उपरोक्त बातों और प्रभु यीशु के शिक्षा देने के उदाहरण का ध्यान रखिए और पालन कीजिए। यह आपके लिए भी तथा औरों के लिए भी उन्नति का कारण ठहरेगा। आप जितना वचन को औरों के साथ बाँटेंगे, आप पाएंगे के आप स्वयं भी वचन की समझ और गहराई में उतना अधिक बढ़ते चले जा रहे हैं, और परमेश्वर अपने वचन के गूढ़ भेद आप पर और भी अधिक प्रकट करता जा रहा है। परंतु सावधान रहिए, ऐसा होने से शैतान आपके अन्दर कोई घमण्ड न ले आए, आप अपने आप को विद्वान और विशिष्ट न समझने लगें; जहाँ घमंड होगा, वहाँ बहुत शीघ्र ही पतन भी आ जाएगा।  


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • लैव्यव्यवस्था 4-5       

  • मत्ती 24:29-51