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सोमवार, 18 अप्रैल 2022

“बपतिस्मे” की समझ / Understanding "Baptism" - 14


दोबारा बपतिस्मा? 


बहुत बार लोगों के सामने यह प्रश्न होता है कि जिन्होंने एक बार पहले बपतिस्मा ले लिया है, क्या उन्हें दोबारा बपतिस्मा दिया जा सकता है; या दिया जाना चाहिए? इस प्रश्न का आधार ही बपतिस्मे के प्रति अधूरी या गलत समझ होना है। यदि परमेश्वर के वचन बाइबल में दी गई बातों के अनुसार, व्यक्ति बपतिस्मे के विषय सही समझ रखेगा, बाइबल की शिक्षाओं को स्वीकार करेगा, तो स्वतः ही उसे इस प्रश्न का उत्तर भी मिल जाएगा। इसलिए, हम बपतिस्मे से संबंधित उन बातों का, जिन्हें हम ने अभी तक देखा और समझा है, एक बार पुनः अवलोकन कर लेते हैं। 


अभी तक हम परमेश्वर के वचन से देख और समझ चुके हैं कि:

  • बपतिस्मे का अर्थ है डुबोया जाना; और बाइबल में वर्णित बपतिस्मा केवल पानी में डुबकी का बपतिस्मा ही है। 

  • बपतिस्मा हमेशा ही वयस्कों को दिया गया; उनके द्वारा पापों से पश्चाताप करने और प्रभु यीशु को अपना निज उद्धारकर्ता स्वीकार करने, तथा स्वेच्छा से बपतिस्मा लेने के लिए तैयार होने के पश्चात।

  • बाइबल में शिशुओं और बच्चों के बपतिस्मे का, पानी के छिड़कने या पानी में उँगली डुबो कर माथे पर चिह्न बनाने को बपतिस्मा कहने या मानने का कोई उल्लेख, समर्थन, अथवा प्रमाण नहीं है। न ही बाइबल में शिशुओं या बच्चों को इस प्रकार का ‘बपतिस्मा’ देने के बाद, युवा होने पर दृढ़ीकरण करने का कोई निर्देश अथवा शिक्षा है। ये सभी बातें बाइबल के बाहर की बातें हैं, मनुष्यों की बनाई हुई रीतियाँ हैं, जिनका परमेश्वर के वचन से कोई आधार अथवा स्वीकृति नहीं है; और न ही परमेश्वर इन्हें स्वीकार करने के लिए किसी भी रीति से बाध्य है।

  • उद्धार पाए हुए वयस्कों द्वारा स्वेच्छा से लिया गया बपतिस्मा, उनके अंदर पापों के पश्चाताप और प्रभु यीशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता ग्रहण कर लेने के निर्णय का, उसके द्वारा उनके जीवन में आए परिवर्तन की, एक सार्वजनिक गवाही है। इससे अधिक और कुछ नहीं है। 

  • प्रभु यीशु के शिष्यों के लिए बपतिस्मा लेना प्रभु की आज्ञा है, इसलिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को समय और अवसर के अनुसार उसे लेना है, उसकी अनदेखी नहीं करनी है, उसे हल्के में नहीं लेना है। किन्तु बपतिस्मा व्यक्ति को परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं बनाता है; वरन जो परमेश्वर के हो जाते हैं, वे बपतिस्मा लेते हैं। 

  • बपतिस्मे के द्वारा उद्धार और पापों की क्षमा नहीं है; जिन्होंने पश्चाताप और प्रभु यीशु को अपनाने के द्वारा पापों की क्षमा और उद्धार पाया है, उन्हें बपतिस्मा लेना है। इसे व्यक्ति विश्वास में आते ही, तुरंत भी ले सकता है, या बाद में समय और अवसर के अनुसार भी ले सकता है। 

  • बपतिस्मे के समय बोले गए शब्दों या वाक्यांशों के आधार पर, या बपतिस्मा दिए जाने के स्थान के आधार पर, बपतिस्मा जायज़ अथवा नाजायज़ नहीं होता है। बपतिस्मा तो उद्धार पाए हुए व्यक्ति की गवाही है; यदि गवाही सच्ची है, तो फिर वह जायज़ या नाजायज़ कैसे हो सकती है, किस संदर्भ में जायज़ या नाजायज़ हो सकती है?

  • बपतिस्मा केवल एक ही है - पानी में दिया गया डुबकी का बपतिस्मा। बाइबल में इस एक बपतिस्मे से अधिक किसी अन्य बपतिस्मे को लेने की कोई शिक्षा या निर्देश नहीं है।

  • बाइबल में बहुचर्चित और ज़ोर देकर सिखाए जाने वाले “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” का कोई उल्लेख, समर्थन अथवा शिक्षा नहीं है। और न ही इस “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” से संबंधित अन्य गलत शिक्षाओं का कोई आधार अथवा औचित्य है। 

  • पानी, आग (नरक की आग की झील), और पवित्र आत्मा वे माध्यम हैं, जिनमें व्यक्ति कभी-न-कभी डुबोया जाएगा, जिनसे कभी-न-कभी ओतप्रोत होगा। ये तीन पृथक ‘बपतिस्मे’ नहीं हैं। 


पुनःअवलोकन की उपरोक्त बातों के आधार पर यह प्रकट और स्पष्ट है कि निम्न प्रकार के बपतिस्मे बाइबल की शिक्षाओं, निर्देशों, और उदाहरणों के आधार पर “बपतिस्मा” नहीं माने जा सकते हैं:

  • यदि शिशु अवस्था में, या बाल अवस्था में “बपतिस्मा” लिया गया है; चाहे बाद में दृढ़ीकरण भी क्यों न किया गया हो। 

  • यदि पापों के लिए पश्चाताप और प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता ग्रहण किए बिना लिया गया। चाहे वह मण्डली या चर्च की रीतियों के पालन के अनुसार लिया गया हो। 

  • यदि स्वेच्छा से लेने की बजाए, किसी भी दबाव या परंपरा के पालन, या लोगों को प्रसन्न करने के लिए लिया गया हो।  

  • ऐसा कोई भी “बपतिस्मा” जो उपरोक्त बाइबल की शिक्षाओं, निर्देशों, और उदाहरणों के अनुसार, या उनके अनुरूप नहीं है।  


इससे यह प्रकट और स्पष्ट है कि ऐसा कोई भी “बपतिस्मा” वास्तव में बाइबल के अनुसार और परमेश्वर को स्वीकार्य “बपतिस्मा” नहीं है, नहीं था। वह केवल एक औपचारिकता, या एक रस्म थी; वास्तविक बपतिस्मा नहीं। इसलिए अब, वास्तविकता में मसीही विश्वास में आने के बाद, व्यक्ति जब भी बपतिस्मा लेगा, वह उसका “पहला” बपतिस्मा ही होगा, कोई “दूसरा” बपतिस्मा नहीं। उसकी वह “पहली” गवाही तो गलत और अस्वीकार्य थी, इसलिए वह तो मानी ही नहीं गई, और न मानी जाएगी। अब जो वह बाइबल की बातों और शिक्षाओं के अनुरूप अपने सही गवाही दे रहा है, वही मानी और गिनी जाएगी। 


यह सही है कि बाइबल में किसी दूसरे बपतिस्मे के लिए या दिए जाने का कोई उल्लेख नहीं है; और इसी तर्क को आधार बना कर लोग उद्धार पाने के बाद “दूसरा” बपतिस्मा लेने के लिए मना करते हैं। किन्तु इसी के साथ यह भी तो उतना ही सही और जायज़ तर्क है कि उपरोक्त अनुचित और गलत “बपतिस्मों” का भी बाइबल में कोई उल्लेख एवं उदाहरण नहीं है, किन्तु “दूसरा” बपतिस्मा लेने का विरोध करने वाले ये लोग, फिर भी अपनी ही गढ़ी हुई धारणाओं के अनुसार, ये अनुचित “बपतिस्मे” देते चले जा रहे हैं। किन्तु मसीही विश्वास में आने वाले व्यक्ति को प्रभु की आज्ञाकारिता में होकर सही बपतिस्मा लेने से रोकते हैं, उस प्रभु के जन से प्रभु की अनाज्ञाकारिता करवाते हैं।


साथ ही इस पर भी विचार करना चाहिए कि जिस समय बाइबल की पुस्तकें लिखी जा रही थीं, उस समय पर वे अनुचित “बपतिस्मे” थे ही नहीं। जो बपतिस्मा था, वह वही उपरोक्त सही बपतिस्मा था। इसलिए किसी को भी गलत “बपतिस्मे” के बाद कोई सही बपतिस्मा लेने, या उसकी शिक्षा और समझ देने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। इसलिए बाइबल में इस बात के लिए कोई शिक्षा या कोई उदाहरण कहाँ से आता, क्यों आता? यदि ऐसा कुछ लिखा भी जाता, तो लोगों को समझ में भी नहीं आता, और शैतान के लिए गलत शिक्षा के रूप में दुरुपयोग करने का एक आधार बन जाता। इन कारणों से बाइबल में “दूसरा” बपतिस्मा लेने के लिए न लिखे होने को इसे वर्जित करने का आधार नहीं बनाया जा सकता है। वर्जित करने वाले, यदि “पहले” और गलत बपतिस्मे का प्रयोग बन्द कर दें, और सही बपतिस्मे की ओर आ जाएं, तो समस्या का समाधान स्वतः ही हो जाएगा। 


हाँ, उद्धार पा लेने, और बपतिस्मे के द्वारा उसकी सार्वजनिक गवाही एक बार दे देने के बाद, फिर मुड़कर पुनः बपतिस्मा लेने की कोई आवश्यकता, औचित्य, अथवा कारण नहीं है।  


 यदि आप मसीही हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप मनुष्यों की बनाई हुई रीतियों और प्रथाओं का नहीं, परमेश्वर के वचन का पालन करने वाले हों। क्योंकि अन्ततः आपका न्याय, मनुष्यों के द्वारा बनाई और धर्म-उपदेश करके सिखाई गई, मनुष्यों की बातों के आधार पर नहीं होगा। क्योंकि मनुष्यों द्वारा बनाए गए धर्मोपदेश न केवल व्यर्थ हैं (मत्ती 15:9) किन्तु हटा भी दिए जाएंगे (मत्ती 15:13)। सभी का न्याय प्रभु यीशु के द्वारा (प्रेरितों 17:30-31), उसके वचन की अटल और अपरिवर्तनीय बातों के आधार पर होगा (यूहन्ना 12:48)। इसलिए आपके लिए मनुष्यों को नहीं परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला बनना अनिवार्य है, नहीं तो अनन्त जीवन में अनंतकाल की हानि उठानी पड़ेगी। अपने जीवन में गंभीरता से झांक कर देख लें, और जिन भी बातों को सही करना है, उन्हें अभी समय और अवसर रहते हुए सही कर लें; कहीं कल या “बाद में” पर टाल देने से बहुत विलंब और हानि न हो जाए।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • 2 शमूएल 3-5      

  • लूका 14:25-35       


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Re-Baptism?

Many times, people face the question, should those who have been baptized once before, be baptized again; should re-baptism be given? The basis of their raising this question is their having an incomplete or incorrect understanding of baptism. If a person has the right understanding of baptism, as is given in God's Word Bible, and if he accepts the teachings of the Bible about it, then he will automatically get the answer to this question as well. So, let's again take a look at what we have seen and understood about baptism so far.


So far, we have seen and understood from the Word of God that:

  • To be baptized means to be immersed; And the baptism described in the Bible is only the immersion baptism.

  • Baptism was always given only to adults; After they repented of their sins and accepted the Lord Jesus as their Savior, and were voluntarily desirous of taking baptism.

  • There is no mention, support, or evidence of baptism of infants and children in the Bible, by sprinkling water, or making a mark on the forehead by dipping a finger in water, or in any other manner. Nor is there any instruction or teaching in the Bible for infants or children to be “Confirmed” when they are young. All these are things outside the Bible, they are customs made by men, which have no basis or approval from the Word of God; Nor is God obliged in any way to accept or honor them.

  • Voluntary baptism taken by saved adults is a public testimony of the change brought in their lives, because of their repentance of sins and their decision to accept the Lord Jesus as their personal Savior. Baptism is nothing more than this public testimony of an inner personal change.

  • Taking Baptism is a command of the Lord Jesus, for His disciples, so every Christian Believer has to take it, according to the available time and opportunity, and not ignore it, nor take it lightly. But baptism does not make a person acceptable to God; rather, those who become of the children of God should take baptism.

  • Baptism does not give salvation and forgiveness of sins; but those who have received forgiveness and salvation of sins through repentance and accepting the Lord Jesus are to be baptized. It can be taken immediately as soon as the person comes into faith, or may also be taken later according to the time and opportunity.

  • Baptism cannot be considered valid or invalid, based on the words or phrases spoken at the time of the baptism, or on the place where the baptism is administered. Baptism is only a publicly expressed personal testimony of the saved person; If the testimony is true, then how can its expression, their baptism be said to be valid or invalid, and in what context can one’s personal experience be called valid or invalid?

  • There is only one baptism - immersion baptism given in water. There is no teaching or instruction in the Bible to take more than this one baptism, or any baptism other than this one.

  • There is no mention, support, or teaching of the often publicized and emphasized “baptism of the Holy Spirit” in the Bible. Nor is there any Biblical basis or justification for this "baptism of the Holy Spirit" and related erroneous teachings.

  • Water, fire (i.e., hell's lake of fire), and the Holy Spirit are the mediums, and every person will eventually be immersed into one of them; at some time he will surely be thoroughly soaked with one of these. These three are not separate 'baptisms'.


Based on the above observations, it is evident and clear that the following types of baptism cannot be considered as "baptism" based on the teachings, instructions, and examples of the Bible:

  • If “baptism” has been taken in infancy, or in childhood; Even if it was later followed by Confirmation.

  • If “baptism” has been taken without repentance for sins and without receiving the Lord Jesus as Savior. Even if it has been taken in accordance with the customs of the local Christian Assembly or the local Church and/or its denomination.

  • If baptism has been taken under any coercion, or for the sake of fulfilling a ritual, or to please people, rather than taking it voluntarily.

  • Any “baptism” that does not conform to the above-mentioned teachings, instructions, and examples of the Bible.


From this it is evident and clear that any such "baptism" is not, in fact, Biblical and is not a "baptism" that is acceptable to God. That was only fulfilling a formality, or a ritual; Not an actual baptism. So now, after actually coming into the Christian Faith, whenever a person is baptized, it actually will be his "first" baptism, not a "second" baptism. That "first" testimony of his was baseless, false and unacceptable, so it was not accepted, and neither ever will be. Now that he is giving his true testimony, testimony according to the instructions and teachings of the Bible, only that will be considered and counted.


It is very true that in the Bible there is no mention of a re-baptism being given or taken; And based on this argument, people refuse allowing or taking a "second", or a re-baptism after being saved. But at the same time, it is equally right and justified to argue that there is no mention and example of the above mentioned improper and wrong "baptisms" in the Bible, but the people who oppose the "second" or a re-baptism, still insist and persist in doing their own thing and continue to administer them with impunity. Based on their contrived assumptions, they continue to give wrong "baptisms." But they prevent a Christian Believer, one who has come into the faith, from being properly baptized in obedience to the Lord, thereby causing that child of God to disobey the Lord, just as Satan beguiled Eve into disobeying God.


Another fact that should also be considered is that at the time the books of the Bible were being written, there were no improper "baptisms". The only baptism that was there at that time was the correct baptism as has been mentioned above. So, there was no need for anyone to receive a correct re-baptism, or to be taught and understand about a wrong “baptism.” Therefore, how and from where would any teaching or any example of a re-baptism come into the writings of the Bible? Even if something like this were written, people wouldn't even understand it, and it would become a ground for Satan to misuse it as a false teaching. For these reasons the absence of mention of a "second" or a re-baptism in the Bible cannot be used as a ground for forbidding it. If those not in favor of re-baptism stop administering the wrong "first" baptism, and shift only to the correct baptism, then the problem will automatically be solved.


Yes, having been saved, and having given the public testimony for it through baptism, there is no need, or justification, or reason for anyone to turn back and be baptized again.


If you are a Christian, it is essential for you to follow the Word of God, not the customs and traditions created by men. Because in the end, you will neither be judged by any man, nor on the basis of any man-made doctrines and teachings, all of which not only are vain (Matthew 15:9) but will also be taken away (Matthew 15:13). But everyone will be judged by the Lord Jesus (Acts 17:30-31), and only on the basis of His unalterable and firmly established Word (John 12:48). Therefore, it is necessary for you to be pleasing to God, instead of striving to please men; else you will have to suffer the loss of eternal life and eternity. Take a serious account of your life, and whatever things you need to rectify, do it right now, while you have the time and opportunity; procrastinating and postponing it for tomorrow or "later" may be very harmful.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


Read the Bible in a Year: 

  • 2 Samuel 3-5

  • Luke 14:25-35