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आरम्भिक बातें – 11
मरे हुए कामों से मन फिराना – 7
इब्रानियों 6:1-2 में उल्लेखित आरंभिक बातों के अध्ययन में, वर्तमान में हम पहली आरम्भिक बात, अर्थात मरे हुए कामों, अर्थात उन धार्मिक और भले प्रतीत होने वाले कामों से मन फिराने के बारे में विचार कर रहे हैं, जो उन्हें करने वालों के जीवनों में कोई आत्मिक बढ़ोतरी या परिपक्वता को नहीं लाते हैं। अभी तक हमने तीन प्रकार स्वयं निर्धारित मरे हुए कामों के बारे में बाइबल से देखा है, अर्थात स्व-निर्धारित सेवकाइयां (मत्ती 7:21-23), स्व-निर्धारित परमेश्वर के उपासना और आराधना (मत्ती 15:3-9), और स्व-निर्धारित उद्धार के विषय निर्णय (प्रेरितों 8:5-25), और फिर पिछले लेख से हमने एक अन्य प्रकार की बहुत प्रचलित गलत धारणाओं के बारे में देखना आरम्भ किया है जिनका कुछ मत और डिनॉमिनेशन बहुत बल देकर प्रचार करते और सिखाते हैं। ये पवित्र आत्मा, उन के विश्वासियों को उपलब्ध होने, तथा परमेश्वर के लोगों के मध्य उन की सेवकाई से सम्बन्धित शिक्षाएँ और बातें हैं। पिछले लेख में हमने पवित्र आत्मा प्राप्त करने से सम्बन्धित गलत शिक्षाओं को और बाइबल से सम्बन्धित सही शिक्षाओं को देखा था। आज हम इसी से सम्बन्धित एक अन्य प्रकार की गलत शिक्षा पर विचार करेंगे।
इन मत और डिनॉमिनेशनों के द्वारा प्रचार की जाने वाली सम्बन्धित गलत शिक्षाएँ हैं “अन्य भाषाओं” में बोलना, जिन्हें ये लोग बाइबल के लेखों की गलत व्याख्या और दुरुपयोग के द्वारा समर्थन करते हैं। इन्हें भी पवित्र आत्मा की सेवकाई से सम्बन्धित पहले के लेखों में विस्तार से देखा और समझा जा चुका है, किन्तु हमारे वर्तमान उद्देश्य के लिए हम संक्षिप्त में उनकी मुख्य शिक्षाओं को देखते हैं:
ये लोग प्रेरितों 2:1-11 के आधार पर प्रचार करते और सिखाते हैं कि “अन्य भाषाओं” में बोलना ही पवित्र आत्मा प्राप्त करने का प्रमाण है।
ये लोग 1 कुरिन्थियों 14:2 के आधार पर दावा करते हैं कि बाइबल में उल्लेखित “अन्य भाषाएँ” स्वर्गीय भाषाएँ हैं जिन्हें केवल परमेश्वर ही समझ सकता है, और इस आधार पर ये लोग मुंह से निरर्थक आवाजों के उच्चारण को “अन्य भाषा” बोलना कहते हैं।
ये लोग रोमियों 8:26-27 का दुरुपयोग करते हैं और दावा करते हैं कि अन्य भाषाएँ पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग की जाने वाली प्रार्थना की भाषा हैं।
वे इसमें यह भी जोड़ देते हैं कि विश्वासियों के प्रार्थना करने के लिए एक विशेष भाषा आवश्यक है जिस से कि प्रार्थनाएँ शैतान से गुप्त रखी जा सकें।
अब देखते हैं कि परमेश्वर का वचन बाइबल उपरोक्त बातों के सम्बन्ध में क्या कहती है:
बाइबल में “अन्य भाषा” का पहला उल्लेख प्रेरितों 2 का उपरोक्त खण्ड है। यह खण्ड बिलकुल स्पष्ट कहता है कि पिन्तेकुस्त के दिन पवित्र आत्मा से भरे जाने के बाद प्रभु यीशु के शिष्यों के द्वारा जो “अन्य भाषाएँ” बोली गईं, वे पृथ्वी ही की भाषाएँ थीं, जो उस समय वहाँ पर व्यवस्था का पालन करने के लिए एकत्रित हुए विभिन्न स्थानों से आए हुए यहूदियों के द्वारा बोली जाती थीं (प्रेरितों 2:6, 8, 11); और पद 9-11 में लगभग 15 विभिन्न भौगोलिक स्थानों का उल्लेख किया गया है।
पवित्र आत्मा प्राप्त करने के बाद, जब शिष्यों ने “अन्य भाषाओं” में बोलना आरम्भ किया, तो वहाँ एकत्रित लोग न केवल उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं को पहचान सके, बल्कि उसे भी समझ सके जो कहा जा रहा था – परमेश्वर के बड़े-बड़े काम (पद 11)। यही बात, अर्थात भाषा की पहचान तथा उसमें कही गई बात को समझना, कुरनेलियुस के घर में पतरस के प्रचार के बाद विश्वास करने वालों पर पवित्र आत्मा उतरने के समय भी हुआ (प्रेरितों 10:46)।
हम 1 कुरिन्थियों 14:27-28 में किसी अन्य भाषा में बोलने से सम्बन्धित कलीसिया को दिया गया एक स्पष्ट और विशिष्ट निर्देश पाते हैं कि केवल दो या तीन ही लोग बोलें, एक-एक करके बोलें, और तब ही बोलें जब उनका अनुवाद करने वाला कोई जन उपलब्ध हो, अन्यथा शान्त रहें। इसका स्पष्ट तात्पर्य है कि ये उल्लेखित अन्य भाषा पृथ्वी ही की भाषा है, जिसे अन्य लोग भी जानते, बोलते, समझते, और अनुवाद कर सकते हैं। लेकिन आज सामान्य रीति से यही देखा जाता है कि लगभग सभी एकत्रित लोग, एक साथ ही, ऊँची आवाज़ में “अन्य भाषा” में बोलते हैं, जो कि केवल मुँह से निकाली और बारंबार दोहराई जाने वाली तथा समझ न आने वाली निरर्थक ध्वनियाँ ही होती हैं, और कोई भी किसी अन्य के लिए अनुवाद नहीं कर रहा होता है – जो कि परमेश्वर के निर्देश का स्पष्ट उल्लंघन है; लेकिन फिर भी ये लोग यही मानते हैं कि वे ही सच्चे मसीही विश्वासी हैं। इसलिए, मुँह से विचित्र, समझ न आने वाली निरर्थक ध्वनियाँ निकालने को स्वर्गीय भाषाएँ कहने का बाइबल से कोई समर्थन नहीं है।
इस तर्क का कि जब भी व्यक्ति पवित्र आत्मा से भरा जाता है, तो वह अवश्य ही अन्य भाषा में भी बोलता है, और इसलिए पवित्र आत्मा से भरने का प्रमाण अन्य भाषा बोलना है, भी झूठ है। पुराने नियम में जिन पर पवित्र आत्मा आया, उन्होंने कभी कोई अन्य भाषा नहीं बोली (उदाहरण के लिए देखिए, न्यायियों 3:10; 6:34; 13:25; 14:6, 19; 15:14; 1 शमूएल 10:10; 11:6; 16:13; आदि)। नए नियम में पवित्र आत्मा पाने वाले पहले चार लोगों (यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला, लूका 1:15; प्रभु की माता मरियम, लूका 1:35; यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की माता इलीशिबा, लूका 1:41; यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले का पिता ज़कर्याह, लूका 1:67) ने कभी कोई अन्य भाषा नहीं बोली। प्रेरितों के काम पुस्तक में, जब भी पवित्र आत्मा से भरे जाने का उल्लेख हुआ है, साथ ही हमेशा ही अन्य भाषा में भी बोलने का भी उल्लेख नहीं हुआ है (उदाहरण के लिए, प्रेरितों 4:8, 31; 13:9, 52)। इसलिए उनका यह दावा, यह धारणा, जिसे वे प्रमाण के समान प्रस्तुत करते हैं कि पवित्र आत्मा से भरने के साथ ही हमेशा ही लोगों ने अन्य भाषा बोली है, झूठा है।
यह दावा कि अन्य भाषा स्वर्गीय भाषा है, 1 कुरिन्थियों 14:2 के आधार पर किया जाता है, और यह इस पद का जानते-बूझते हुए किया गया दुरुपयोग है। यहाँ, इस पद में, पौलुस ताना मार रहा है, यह जताने के लिए कि जो निरर्थक ध्वनियाँ वे निकालते हैं उन्हें कोई नहीं समझता है। इस बात की पुष्टि थोड़ा सा ही आगे चलकर पौलुस द्वारा प्रयुक्त एक अन्य वाक्याँश से हो जाती है, पौलुस पद 9 में कहता है कि उनका अन्य भाषा बोलना हवा में बातें करने के समान है; जो कि निरर्थक और न समझी जाने वाली भाषा जताने के लिए आलंकारिक भाषा का उपयोग है। लेकिन ये लोग इस पद 9, जहाँ पौलुस उनके बोलने को हवा में बातें करना कहता है, के बारे में बिलकुल चुप रहते हैं, परन्तु पद 2 पर बहुत बल देकर अपनी बात सही ठहराने का प्रयास करते हैं। अब, यदि अन्य भाषा बोलना स्वर्गीय भाषा बोलना है तो फिर ये लोग पद 2 और 9 में सामंजस्य कैसे बैठा सकते हैं? यदि पद 2 के अनुसार अन्य भाषा बोलना परमेश्वर से बात करना है, तो फिर तुरन्त ही, पद 9 में वह हवा में बातें करना कैसे हो गया? यह तो तब ही संभव है जब इस प्रकार से “अन्य भाषा” बोलना हमेशा ही निरर्थक ध्वनियाँ निकालना रहा, जिसे वे व्यर्थ ही स्वर्गीय भाषा कहते आ रहे हैं, पौलुस जिस बात का ताना मारने के द्वारा पर्दाफाश कर रहा था।
बाइबल में कहीं भी प्रार्थना के लिए किसी विशेष भाषा की आवश्यकता का न तो कोई उल्लेख है, और न ही कोई शिक्षा है। पौलुस ने अपने पाठकों को उसके लिए प्रार्थना करने के लिए कई बार लिखा है, लेकिन उस ने कभी भी यह नहीं कहा है कि प्रार्थना को और भी प्रभावी बनाने के लिए किसी विशेष भाषा में प्रार्थनाएँ की जाएँ। पौलुस रोमियों 8:26-27 में आहें भरने के बारे में लिख रहा है, जो कि गहरी या गंभीर भावनाएँ दर्शाने वाली ध्वनि होती हैं, न कि कोई भाषा। और पौलुस यह भी कह रहा है कि आत्मा की ये आहें ब्यान से बाहर हैं, या व्यक्त नहीं की जा सकती हैं। बहुत स्पष्ट है कि यहाँ पर पौलुस किसी भी प्रकार की भाषा बोलने की बात नहीं कर रहा है। इसके अतिरिक्त, यहाँ पर पवित्र लोगों के लिए जिस बिनती करने की बात की गई है, वह बिनती पवित्र आत्मा कर रहा है, न कि वह विश्वासियों से बुलवा रहा है। तो फिर इन पदों को किस आधार पर यह सिखाने के लिए उपयोग किया जा सकता है कि अन्य भाषा प्रार्थना की भाषा है, और वह भी पवित्र आत्मा की प्रार्थना की भाषा है?
जहाँ तक इस धारणा की बात है कि अन्य भाषा विश्वासियों के लिए एक विशेष प्रार्थना की भाषा का काम करती है जिससे उस की प्रार्थनाएं शैतान से गुप्त रहें, तो क्या बाइबल में इस बात का कहीं कोई उल्लेख है, बाइबल से इसका कोई प्रमाण, ऐसी कोई शिक्षा है? जब अन्य भाषा में प्रार्थना करने वाला स्वयं ही यह नहीं जानता ही कि उसने कहा क्या है, तो उसे कैसे पता कि उसने वास्तव में प्रार्थना की है अथवा परमेश्वर की निन्दा की है? क्या जो लोग अन्य भाषा में प्रार्थना नहीं करते हैं, उनकी प्रार्थनाएं नहीं सुनी और उत्तर दी जाती हैं? यदि शैतान बिना किसी रोक-टोक के परमेश्वर के सामने स्वर्ग में जा सकता है, वहाँ पर स्वर्ग की जो भी भाषा है उसमें परमेश्वर से बात-चीत कर सकता है (अय्यूब 1:6-12; 2:1-7), तो फिर किसी स्वर्गीय भाषा के उपयोग द्वारा प्रार्थनाओं को शैतान से गुप्त रखने का क्या आधार रह जाता है? और किसी भी हाल में, शैतान परमेश्वर के लोगों को परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमा से बाहर नहीं छू सकता है, इसलिए शैतान के द्वारा प्रार्थना सुन और समझ लिए जाने से क्या समस्या है? यदि शैतान को मालूम चल जाए कि क्या प्रार्थना माँगी गई है, तो क्या परमेश्वर द्वारा प्रार्थना का उत्तर देने में कोई बाधा आ जाएगी? क्या शैतान इतना बलशाली है कि वह परमेश्वर को प्रार्थना का उत्तर देने से बाधित कर सकता है? क्या परमेश्वर को कुछ भी गुप्त में करने की कोई आवश्यकता है? यदि हाँ, तो किस से छुपा कर और क्यों? कौन उसके उद्देश्यों को पूरा होने से रोक सकता है?
हम देखते हैं कि इन मत और डिनॉमिनेशनों की कोई भी धारणा सामान्य समझ के सामने ही नहीं टिकने पाती है, परमेश्वर के वचन के सामने तो बिल्कुल भी नहीं। इसलिए चाहे किसी भी रीति से देखें, मसीही विश्वासियों के लिए कोई अनजान स्वर्गीय भाषा की कोई आवश्यकता नहीं है, और यह समस्त शिक्षा और प्रचार निराधार है, व्यर्थ है, झूठ है। इन बातों का बाइबल से कोई समर्थन नहीं है, और किसी भी मसीही विश्वासी को बाइबल से बाहर की इन बातों में फँसने की कोई आवश्यकता नहीं है – ये भी एक प्रकार के मरे हुए काम हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 11
Repentance From Dead Works - 7
In our study of Elementary Principles from Hebrews 6:1-2, we are presently considering the first principle, i.e., repentance from dead works; i.e., repentance from those seemingly religious and good works, that do not cause any spiritual growth or maturity in the person doing them. So far, having seen three kinds of self-determined dead works from the Bible i.e., self-determined ministries (Matthew 7:21-23), self-determined worship of God (Matthew 15:3-9), and self-determined status of salvation (Acts 8:5-25), since the last article we have begun considering another kind of very common misconceptions, that are quite emphatically preached and taught by some sects and denominations. They are teachings and practices regarding God the Holy Spirit, His availability and His ministry amongst the people of God, but do not have any Biblical support to make them acceptable. In the last article we have seen the wrong teachings they preach about receiving the Holy Spirit, and have also seen the related actual Biblical teachings. Today we will consider another related false teaching.
Another group of false teachings propagated by these sects and denominations, by misinterpreting and misapplying various Biblical texts is about "speaking in tongues." These have already been considered in detail and explained in the earlier articles related to the ministry of God the Holy Spirit. But for our present purposes, let us briefly consider their main teachings:
They, on the basis of Acts 2:1-11, preach and teach that speaking in "tongues" is the proof of having received the Holy Spirit.
On the basis of 1 Corinthians 14:2 they claim that the "tongues" mentioned in the Bible are "heavenly languages" understood only by God, and thereby they justify uttering gibberish as “speaking in tongues”.
They misuse Romans 8:26-27 to claim that speaking in tongues is heavenly prayer language, used by the Holy Spirit.
They add, that this special prayer language is necessary to keep prayers secret from Satan.
Let us now see what God’s Word the Bible has to say about the above:
The very first mention of tongues in the Bible is in the above-mentioned passage of Acts 2. This passage clearly states that the "tongues" been spoken by the disciples of the Lord after being filled by the Holy Spirit on the day of Pentecost, were earthly languages spoken by the Jews assembled from the various places (Acts 2:6, 8, 11); about 15 different geographical locations are mentioned between verses 9 to 11, for fulfilling the requirements of the Law.
On receiving the Holy Spirit, when the disciples started speaking in “tongues,” the assembled people on hearing what was being spoken by the disciples through the Holy Spirit, could not only identify the language being spoken (v.6, 8), but those who spoke that language could also understand the content of what was being spoken - the wonderful works of God (v.11). The same, knowing and understanding the language and the spoken content, happened in the house of Cornelius, after Peter had preached the gospel there (Acts 10:46) and the Holy Spirit fell on those who believed.
We see from 1 Corinthians 14:27-28, a clear and categorical instruction that in the Church, when speaking in an unknown language, only two or at the most three people should speak, one at a time, and it is only to be done if there is an interpreter, otherwise to keep silent. The unambiguous implication is that the unknown language is a language of the world; a language that other people also know, speak, understand, and can translate or interpret. But the commonly seen thing is that practically everyone tries to speak “in tongues” at the top of their voice, simultaneously uttering unintelligible sounds repetitively, not even the speaker knowing what they are saying, and with no one “interpreting” for another – a clear breach of God’s commandment; but yet they believe that they are the real Believers. So, the gibberish spoken and passed off as "heavenly language" has no Biblical support.
The argument that whenever a person is filled with the Holy Spirit, he also speaks in tongues, and therefore the proof of being filled with the Holy Spirit is speaking in tongues is also false. None of those who were filled with the Holy Spirit in the Old Testament, ever spoke in any unknown languages (e.g., Judges 3:10; 6:34; 13:25; 14:6, 19; 15:14; 1 Samuel 10:10; 11:6; 16:13; etc.). The first four people who were filled with the Holy Spirit, in the New Testament (John the Baptist, Luke 1:15; Mary, the mother of Lord Jesus Luke 1:35; Elizabeth the mother of John the Baptist, Luke 1:41; Zechariah the father of John the Baptist, Luke 1:67), never spoke in tongues. In the book of Acts, every time being filled with the Holy Spirit is mentioned, speaking in any kind of tongue is not always mentioned (e.g., Acts 4:8, 31; 13:9, 52). So, their notion offered as proof that, filling with the Holy Spirit has always been accompanied by speaking in tongues is false.
The claim that "tongues" is a heavenly language, made on the basis of 1 Corinthians 14:2 is a deliberate misuse of this verse. In this verse, Paul is using sarcastic language to say that no one understands those who utter gibberish. This is affirmed by another phrase used by Paul, a little ahead in verse 9, where he calls speaking in tongues as speaking in the air, a figure of speech for speaking unintelligibly and incomprehensibly. But these people keep absolutely quiet about v.9, and ignore it altogether, while emphatically misusing v.2 to make their case. Now, how can they reconcile v.2 and 9, if speaking in tongues is speaking in a heavenly language? If speaking in unknown tongues is speaking to God in v.2, then how can it immediately become speaking in the air in v.9, unless it always was speaking unintelligible gibberish, which they were trying to wrongly pass off as a "heavenly language," whereas Paul was using sarcastic language to debunk their gibberish.
Nowhere in the Bible, the necessity of a special prayer language has been mentioned or taught. Paul often requests for prayers from his readers and usually for urgent or serious matters, but he never said to pray in any special language for the prayers to be effective. In Romans 8:26-27, Paul is mentioning "groanings" or "sighing" that are sounds uttered to express of deep feelings and not any language, and Paul says that these groanings of the Holy Spirit cannot be uttered, or expressed. Very clearly here, Paul is not saying anything about any kind of languages or tongues. Moreover, the intercessions mentioned here on behalf of the saints, are done by the Holy Spirit; not that He makes the Believers speak those intercessions. So, how can these verses be taken to mean that speaking in tongues is a prayer language, and that too of the Holy Spirit?
As for the notion that tongues serve as a special prayer language of the Believers to keep the prayers secret from Satan, is there any Biblical mention or proof of any such teaching, anywhere in the whole of God's Word? When even the person speaking in “tongues” does not know what he has said or prayed, how is he even sure that he has prayed to God and not blasphemed Him? Are not the prayers of those who do not speak in tongues heard and answered by God? If Satan can freely go into God's presence in heaven and converse with God in heaven (Job 1:6-12; 2:1-7), in whatever language is used in heaven, then where is the logic or need for a special “heavenly” prayer language to keep prayers secret from Satan? In any case, as these passages from Job show, Satan cannot touch God’s people beyond the limits set for him by God. Therefore, what’s the problem if Satan gets to hear the contents of prayers? Will God in any way become hampered from answering prayers, if Satan knows what has been asked? Is Satan so strong that he can obstruct God from answering prayers? Does God need to do anything secretly or in a covert manner? If so, from whom should God hide and why? Who can obstruct or defeat His purposes?
We see that none of the notions of these sects and denominations stand up to even common sense, nor at all to God's Word. So, one way or the other, there is no need or logic for Christian Believers having or using unknown heavenly languages, and this whole preaching and teaching is false, baseless and vain. It does not have any support from God's Word, and no Believer has any need to fall for this unBiblical doctrine – which is just another kind of "dead works."
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.