परमेश्वर के वचन में फेर-बदल – 6
परमेश्वर के वचन के प्रति मसीही विश्वासी के भण्डारी होने के सन्दर्भ में हम देखते आ रहे हैं कि शैतान किस प्रकार से परमेश्वर के वचन पर आक्रमण करता है, उस में फेर-बदल करवाता है, और इस प्रकार से उसे अप्रभावी और व्यर्थ मनुष्य का वचन बना देता है। हमने उल्लेख किया था कि परमेश्वर के वचन को भ्रष्ट और अप्रभावी करने के शैतान के दो मुख्य तरीके हैं। पहला मुख्य तरीका, जो कि बहुत कुटिल और अप्रत्यक्ष है, शैतान समर्पित मसीही विश्वासियों, बाइबल के शिक्षकों और प्रचारकों द्वारा बाइबल के लेख और वाक्यांश को लेकर उनको उन अर्थ और अभिप्रायों के साथ उपयोग करवाता है जो उनके लिए बाइबल में नहीं दिए गए हैं। और दूसरा मुख्य तरीका है, शैतान द्वारा बाइबल के लेखों में कुछ जोड़ देना या उस में से कुछ हटा देना, और इस तरह प्रत्यक्ष रीति से परमेश्वर के वचन के लेख में बदलाव ले आना। पिछले लेखों में हमने पहले मुख्य तरीके के तीन स्वरूपों को देखा है। गलती के ये तीनों स्वरूप सामान्यतः किए जाते हैं, लेकिन बहुधा या तो पहचाने नहीं जाते हैं, नहीं तो, यदि पहचाने भी जाएँ तो भी या तो उनकी अनदेखी कर दी जाती है, अथवा उन्हें गलती स्वीकार ही नहीं किया जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये गलतियाँ, चाहे जान-बूझकर अथवा अनजाने में, कलीसिया के अगुवों, प्रमुख लोगों, बाइबल के जाने-माने प्रचारकों और शिक्षकों के द्वारा की जाती हैं, और ये लोग तथा इनके अंध-भक्त किसी गलती अथवा आलोचना को सहज ही स्वीकार नहीं करते हैं। जिन तीन स्वरूपों को हम अभी तक देख चुके हैं, वे हैं: पहला, बाइबल के सही लेख का एक गलत अर्थ और अभिप्राय के साथ उपयोग करके ऐसे सन्देश देना जो उन लेखों के लिए बाइबल में कहे ही नहीं गए हैं; दूसरा है परमेश्वर के पक्ष में तो बात को कहना, किन्तु ऐसी बातें जो परमेश्वर की दृष्टि में सही नहीं हैं या जो परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं हैं, चाहे वे परमेश्वर के प्रति आदर और श्रद्धा के साथ ही क्यों न कही गई हों; और इस गलती का तीसरा स्वरूप जिसे हमने पिछले लेख में देखा था, वह था मसीही विश्वास का जीवन जीने में मनुष्यों के द्वारा बनाए गए नियमों, विधियों, परम्पराओं आदि के निर्वाह की अनिवार्यता को बाइबल के लेखों के दुरुपयोग के द्वारा जायज़ ठहराना।
आज से हम इस गलती के एक चौथे स्वरूप को देखना आरम्भ करेंगे, जो है बाइबल के सही लेखों का दुरुपयोग करके उनसे बाइबल के विरुद्ध ऐसी धारणा को बताना, जो लोगों को, यहाँ तक कि नया जन्म पाए हुए परमेश्वर के लोगों को भी बहका कर, उन्हें अपने कर्मों के आधार पर अपने उद्धार को बनाए रखने पर भरोसा रखने, तथा अपने भले और भक्ति के कार्यों के द्वारा परमेश्वर को स्वीकार्य बने रहने की ओर ले जाती है। यह शैतान की एक ऐसी युक्ति है जो लोगों के प्रभु परमेश्वर के अनुग्रह पर भरोसा रखने की बजाए, उन्हें अपने प्रयासों, योग्यताओं, और कर्मों के द्वारा परमेश्वर को ग्रहण योग्य होने पर भरोसा करवाती है। इस युक्ति का आधार अदन की वाटिका में शैतान द्वारा हव्वा से, जो उस समय निष्पाप दशा में थी, कही गयी बात है, ‘तुम भले बुरे का ज्ञान पाकर परमेश्वर के तुल्य हो जाओगे’ (उत्पत्ति 3:5)। शैतान जो हव्वा को समझा रहा था, वह था, भले और बुरे में अंतर पहचानने की क्षमता प्राप्त कर लेने के बाद तुम परमेश्वर के तुल्य हो जाओगे, और तुम में भी अपने आप को शुद्ध और पवित्र रखने के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं उसकी योग्यता आ जाएगी।
यदि शैतान का यह तर्क सही था, तो इसका अर्थ है कि मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा अपने आप को शुद्ध और पवित्र रख सकता है, और इसलिए परमेश्वर और उसके वचन की आज्ञाकारिता की अनिवार्यता के बिना ही स्वर्ग जाने के योग्य बन सकता है। हव्वा शैतान के इस बहकावे में आ गई, और उसने भी पाप कर दिया, साथ ही आदम से भी करवा दिया। यद्यपि आदम और हव्वा ने भले और बुरे में पहचान करना तो सीख लिया, किन्तु उन्हें कभी भी शुद्ध पवित्र, और निष्पाप बने रहने की क्षमता प्राप्त नहीं हुई। इसकी बजाए, वे और उनके वंशज हमेशा के लिए पाप से दूषित हो गए, उन में पाप करने तथा हमेशा ही परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता, तथा उन्हें जो सही लगता है वही करते रहने का स्वभाव आ गया। इस प्रकार से, जैसा कि सँसार तथा इस्राएल के इतिहास से प्रकट है, शैतान सरलता से मानव-जाति को कुटिलता से उपयोग करने और परमेश्वर का अनाज्ञाकारी बनाए रखने में सफल हो गया। यद्यपि उनके पास परमेश्वर की आज्ञाएं और निर्देश उपलब्ध थे, फिर भी परमेश्वर के लोगों इस्राएल के लिए भी स्थिति में कोई भिन्नता नहीं थी।
लेकिन प्रभु यीशु मसीह के जगत का उद्धारकर्ता और छुड़ाने वाला बनकर आने के बाद शैतान के लिए समस्या खड़ी हो गई। प्रभु यीशु मसीह द्वारा समस्त मानव जाति के पापों के लिए क्रूस पर दिए गए बलिदान, उनके गाड़े जाने, और मृतकों में से जी उठने के द्वारा उन सभी के लिए जो उस पर विश्वास करते हैं, उद्धार का मार्ग खुल गया। अब जो प्रभु यीशु पर और उसमें होकर मिलने वाले उद्धार पर विश्वास करता है, अपना जीवन प्रभु को समर्पित करता है, उसके पाप क्षमा हो जाते हैं, वे परमेश्वर की सन्तान और हमेशा उसके साथ स्वर्ग में रहने वाले बन जाते हैं। इन नया जन्म और उद्धार पाए हुए लोगों को, परमेश्वर के मार्गों से भटकाने, और परमेश्वर की बजाए अपने प्रयासों पर भरोसा रखने की अपनी कुटिल युक्ति में फँसा लेने के लिए शैतान के सामने अब दोहरी समस्या है। उनके लिए शैतान की पहली समस्या है कि मसीही विश्वासी को परमेश्वर के इस आश्वासन से कैसे भटकाए कि उसके जीवन भर के सारे पाप हमेशा के लिए क्षमा हो गए हैं और उसका उद्धार कभी नहीं जाएगा; और दूसरी समस्या है उद्धार पाए हुए मनुष्य को किस तरह से यह मानने के जाल में फँसाए कि उसे परमेश्वर के अनुग्रह पर नहीं परन्तु अपने भले कामों पर भरोसा रखना है, और इसके द्वारा उसे परमेश्वर की आशीषों के मार्ग से भटका दे।
शैतान जानता है कि नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी कभी उद्धार नहीं खोएगा, हमेशा ही परमेश्वर की संतान बना रहेगा, स्वर्ग का वारिस रहेगा। लेकिन शैतान उसमें होकर और उसके साथ दो बातें करना चाहता है। एक है जहाँ तक हो सके और जितना हो सके उसकी आशीषों की हानि करे, और दूसरा, सँसार के लोगों सामने मसीही विश्वासी के गिरे हुए जीवन और गवाही के द्वारा सँसार के पापियों और अविश्वासियों में यह भावना बैठाना कि उद्धार पाने और मसीही विश्वासी बनने से कोई लाभ नहीं है, फिर भी कर्मों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। पहली बात से मसीही विश्वासी की हानि होगी, और दूसरी से शैतान का लाभ होगा। इसे कार्यान्वित करने के लिए शैतान ने एक बड़ी चालाकी की युक्ति बनाई है, परमेश्वर के वचन के सही लेखों के दुरुपयोग के द्वारा उन्हें अनुचित अर्थ और अभिप्राय देना और विश्वासियों को गलत मार्ग पर भटका देना। इसके बारे में हम अगले लेख में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Altering God’s Word – 6
In a Christian Believer’s stewardship towards the Word of God, we have been seeing how Satan subtly attacks God’s Word, gets it altered, and thereby converts it into an ineffective and vain word of man. We have mentioned that of the two major forms of corrupting God’s Word, one, that is much more devious is that he very often and very subtly induces the committed Christian Believers, the Bible preachers and teachers, to preach and texts or phrases from the Bible with meanings and implications not given for those texts in the Bible. The second major form, is of Satan either adding to or subtracting from God’s Word and thereby evidently changing its text. In the previous articles, we have seen three forms of this first main error. These errors are frequently committed, but very often unrecognized, and even if recognized, still usually either ignored or unaccepted as error. This happens because these errors are often, whether knowingly or unknowingly, but commonly practiced by Church leaders, elders, reputed Bible preachers and teachers; and neither they nor their blind followers easily accept any mistakes or criticism. The three forms we have seen so far are: one is to use the right Biblical text to wrongly convey a Biblically unintended message through it; second, is to say things in favor of God, but in a manner that is not correct in the eyes of God, things that are not acceptable to God, even though they have been said reverentially and to honor Him; and the third form of this error, which we saw in the last article is, justifying the role or the necessity of some kinds of works, observance of some man-made rules, regulations, customs etc. in man’s life of salvation through misuse of Biblical texts.
From today we will begin to see a fourth form of the misuse of correct Biblical texts, to preach and teach an unBiblical notion, designed to drive people, even the saved, the Born-Again people of God, into trusting maintaining their salvation on the basis of works, and believing that they can keep themselves justified before God through their good works, or works of godliness. This is another satanic ploy to make people believe not in the love and grace of the Lord God, but on their own efforts, abilities, and works to be, or to remain acceptable to God. The underlying basis of this ploy is what Satan had said to Eve, who was in a sinless condition, in the Garden of Eden, ‘you will be like God, knowing good and evil’ (Genesis 3:5). What Satan was implying to Eve was that you will become equivalent to God and because of knowing how to discern between good and evil, you will also have the capability of deciding what to do and what not to do in your lives to keep yourself pure and holy.
If Satan’s contention was correct, then it means that man can keep himself pure and holy through his works, and thereby qualify for being in heaven, without the help and necessity of man’s obedience to God and His Word. Eve fell for the ploy and sinned, and also made Adam commit the same sin. Though Adam and Eve did learn to discern between good and evil, but they never got the capability of staying pure, holy and sinless. Instead, they and their posterity forever became tainted by sin, got a sinful nature, of always disobeying God and His Word, and the tendency of doing what seemed right to them in their thinking. So, as is evidenced by the history of mankind and of Israel, Satan could easily continue to manipulate mankind and make them disobey God. The situation was no different for Israel, the people of God even though God had given to them His Commandments and instructions.
But after the coming of the Lord Jesus as the redeemer and savior of mankind, Satan ran into a problem. After the Lord Jesus atoned for the sins of entire mankind through His sacrifice on the Cross of Calvary, being buried and being resurrected from the dead, the way of salvation was opened for everyone who believes in Him. Those who now believe on the Lord Jesus and His salvation for them, have submitted their lives to Him, their sins are forgiven, and they become children of God, to be with Him for eternity in heaven. For these Born-Again Christian Believers, Satan has a two-fold problem in making man accept his devious deviation from God’s ways, of relying on self-efforts, instead of trusting God. Satan’s first problem is, how to mislead and trap the Christian Believer’s into disregarding God’s assurance of all of his sins of his entire life-time have eternally been forgiven, and he will never loose his salvation; and second problem is how to entangle a saved man into the trap of not relying on God’s grace, but on his doing good works, and thereby deviate him away from God’s path of blessings for him.
Satan knows that a Born-Again Christian Believer will never lose his salvation, will always remain a child of God, entitled to heaven. But there are two things that Satan wants to do to, and through the Believer; one is to harm him by losing his blessings as much as possible, and secondly, through presenting a poor life and testimony of the Believer to the people of the world, make the sinners and unbelievers not to trust on Christ Jesus for salvation and for becoming a Believer, since they will still have to rely on their works. The former will harm the Believers, and the latter will benefit Satan by corrupting and rendering ineffective the message of the Gospel. To achieve this Satan has deployed a very clever strategy through misuse of God’s Word, through using the right Biblical texts, in a Biblically unintended way; and we will look at this in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.