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सोमवार, 24 अक्टूबर 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया के कार्यकर्ता और उनकी सेवकाई - सुसमाचार प्रचारक /The Workers in the Church of Christ Jesus - Evangelists


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सुसमाचार प्रचार का महत्त्व एवं अनिवार्यता


इफिसियों 4:11 में कलीसिया की उन्नति के लिए प्रभु द्वारा नियुक्त किए गए पाँच प्रकार के सेवकों या कार्यकर्ताओं और उनकी सेवकाई या कार्यों की सूची दी गई है, कलीसिया में उनकी सेवकाई के विषय बताया गया है। मूल यूनानी भाषा में इन सेवकों के लिए प्रयोग किए गए शब्दों के आधार पर, ये पाँचों कार्यकर्ता और उनके कार्य, वचन की सेवकाई से संबंधित हैं। इनमें से पहले दो, प्रेरित और भविष्यद्वक्ता और इनकी सेवकाइयों के विषय हम पिछले लेखों में देख चुके हैं। परमेश्वर के वचन बाइबल में दी गई इनकी सेवकाई के हवालों से यह प्रकट है कि आज जो प्रेरित और भविष्यद्वक्ता होने का दावा करते हैं, उनमें, उनके कार्यों में और बाइबल में इन सेवकाइयों के बारे में दी गई बातों में कोई सामंजस्य नहीं है। अधिकांशतः ये लोग उन मत, समुदाय, डिनॉमिनेशंस में देखे जाते हैं जो परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाओं को मानते, मनवाते, और उन गलत शिक्षाओं का प्रचार एवं प्रसार करते हैं। ये लोग अपने आप ही, या कुछ अन्य मनुष्यों या किसी संस्था अथवा मत के अगुवों द्वारा प्रेरित या भविष्यद्वक्ता बन बैठते हैं, और इसे एक पदवी के समान औरों पर अधिकार रखने तथा सांसारिक लाभ की बातों को अर्जित करने के लिए प्रयोग करते हैं। जबकि वचन इफिसियों 4:11 में, और अन्य स्थानों पर यह स्पष्ट कहता है कि कलीसिया में यह नियुक्ति केवल प्रभु के द्वारा की जाती है, किसी मनुष्य के द्वारा नहीं।

 

इन लोगों की बातों और विशेषकर “भविष्यवाणियों” के लिए एक और बात ध्यान में रखनी बहुत आवश्यक है - प्रभु परमेश्वर द्वारा नियुक्त प्रेरितों और प्रथम कलीसिया के अगुवों का समय समाप्त होते-होते, नए नियम की सभी पत्रियां और पुस्तकें लिखी जा चुकी थीं, और स्थान-स्थान पर पहुँचा दी गई थीं। अर्थात, परमेश्वर का वचन लिखित रूप में पूर्ण हो चुका था; अब केवल उसे संकलित करके एक पुस्तक के रूप में लाना शेष था, जैसा कि आज बाइबल के रूप में वह हमारे हाथों में विद्यमान है। उन प्रेरितों और आरंभिक कलीसिया के अगुवों में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा ने जो वचन लिखवा दिया, वही संकलित होकर अनन्तकाल के लिए बाइबल के रूप में परमेश्वर का वचन स्थापित हो गया है। इस सन्दर्भ में पतरस अपनी दूसरी पत्री, 2पतरस 1:3-4 में, परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में लिखता है कि प्रभु यीशु की पहचान और समझा के द्वारा, जीवन और भक्ति से संबंधित सभी बातें, तथा परमेश्वर की बड़ी और महान प्रतिज्ञाएं, और संसार की सड़ाहट से बचने का मार्ग हमे दे दिया गया है - एक पूर्ण किया जा चुका सिद्ध कार्य, जिसमें किसी भी अन्य बात के जोड़े जाने या संशोधन किए जाने की न तो कोई आवश्यकता है और न ही कोई संभावना शेष है। अर्थात, वचन के एक बारे लिखे जाने के बाद उसमें न कुछ जोड़ा जा सकता है, और न घटाया जा सकता है, न बदला जा सकता है; जिसने भी ऐसा कुछ भी करने का प्रयास किया, उसे बहुत भारी दण्ड भोगना पड़ेगा (प्रकाशितवाक्य 22:18-19)। इसलिए आज, जो यह अपनी ओर से “भविष्यवाणी” करके परमेश्वर के वचन में अपनी ओर से बातें जोड़ने या वचन की बातों को बदलने या सुधारने के प्रयास करते हैं, वह उनके लिए, और उनकी बातों को मानने वालों के लिए बहुत हानिकारक होगा (मत्ती 12:36-37; 15:8-9, 13-14)।

 

इफिसियों 4:11 में दिए गए तीसरे प्रकार की कार्यकर्ता हैं “सुसमाचार सुनाने वाले”। ध्यान कीजिए कि यद्यपि कलीसिया में कुछ लोगों को सुसमाचार प्रचार का दायित्व और वरदान दिया गया है, किन्तु सुसमाचार सुनाना प्रभु ने अपने सभी शिष्यों के लिए रखा है (मत्ती 28:18-20; मरकुस 16:15; प्रेरितों 1:8); सुसमाचार प्रचार प्रत्येक मसीही विश्वासी की ज़िम्मेदारी है। पौलुस ने अपनी मसीही सेवकाई में सुसमाचार प्रचार करने की अनिवार्यता को 1 कुरिन्थियों 9:16-17, 23 में व्यक्त किया, तथा अपने सहकर्मी तीमुथियुस को भी दुख उठाकर भी बड़ी सहनशीलता के साथ, बिना हार माने, सुसमाचार प्रचार में लगे रहने के लिए कहा (2 तीमुथियुस 4:5)। प्रभु यीशु की कलीसिया के लिए प्रयुक्त विभिन्न रूपकों (metaphors) के अध्ययन में भी, और प्रेरितों 2:42 की चार बातों में से “रोटी तोड़ने” के बारे में वचन की बातों को देखते समय हमने देखा था कि कलीसिया का एक उद्देश्य, उसका एक कर्तव्य है प्रभु यीशु की गवाही देते रहना। जहाँ प्रभु यीशु की गवाही होगी, वहीं साथ ही सुसमाचार प्रचार भी होगा। जिस भी स्थानीय कलीसिया की गतिविधियों में सुसमाचार प्रचार नहीं है, वह कलीसिया या तो प्रभु की कलीसिया नहीं है, अन्यथा प्रभु के मार्गों, कार्यों, और उद्देश्यों से भटक गई है, प्रभु के लिए कार्य नहीं कर रही है। जैसा हम प्रकाशितवाक्य अध्याय 2 और 3 की कलीसियाओं से देख चुके हैं, ऐसी सभी अप्रभावी और निकम्मी कलीसियाएँ, बची नहीं रहेंगी, वे प्रभु द्वारा मिटा दी जाएँगी। जैसा हम पहले के 20 अक्टूबर के लेख में देख चुके हैं, प्रभु यीशु की कलीसिया और उसके सदस्यों के मसीही जीवनों की उन्नति वचन की सही आज्ञाकारिता के साथ जुड़ी हुई है। जहाँ वचन का पालन नहीं है, वहाँ परमेश्वर की आशीष और सुरक्षा भी नहीं है।

 

सुसमाचार प्रचार मसीही जीवन और कलीसिया के लिए परमेश्वर की सामर्थ्य है, तथा सुसमाचार ही विश्वास में होकर परमेश्वर की धार्मिकता को प्रकट करता है (रोमियों 1:16-17)। शैतान यह जानता है कि जो भी व्यक्ति या कलीसिया सुसमाचार प्रचार में लगे होंगे, वे उसके लिए एक बड़ा सिरदर्द बन जाएंगे, क्योंकि उनमें होकर परमेश्वर की सामर्थ्य उसके विरुद्ध कार्य करेगी। इसलिए वह सुसमाचार प्रचार में हर संभव बाधा डालता है। शैतान लोगों को सुसमाचार प्रचार के प्रति उदासीन करता है, लोगों तथा संसार के द्वारा भयभीत करता है, उनके अपने जीवन, परिवारों, तथा उनकी गवाही को बिगाड़ता है, परमेश्वर के जो संतान लगन और उत्साह के साथ सुसमाचार प्रचार में लगे हैं उन्हें निरुत्साहित करता है, जिससे प्रभु के उन लोगों का जीवन उनके प्रचार के अनुरूप न दिखे और अप्रभावी रहे। इसी रीति से वह कलीसिया को औपचारिकताओं तथा परंपराओं, रीति-रिवाज़ों, त्यौहारों और पर्व आदि के निर्वाह में फंसाए रखता है; उनमें कलह, फूट, दलों और गुटों में विभाजन आदि करवाता है, जिससे किसी भी रीति से कलीसिया भी दुर्बल रहे, सुसमाचार प्रचार में न लगे, और प्रभु के लिए निरुपयोगी और अप्रभावी बनी रहे। अर्थात, किसी न किसी प्रकार से मसीही विश्वासी और प्रभु की कलीसिया को सुसमाचार प्रचार करने से अक्षम या दुर्बल बनाए रखता है। और परमेश्वर पवित्र आत्मा चाहता है कि हम शैतान की इन युक्तियों के प्रति सचेत रहें, उन्हें पहचानें, और उनसे बचाकर चलें (2 कुरिन्थियों 2:11)।

  

शैतान का सुसमाचार प्रचार को प्रभाव रहित करने का एक अन्य बहुत कारगर हथियार है सुसमाचार की सच्चाई और मूल स्वरूप को बिगाड़ कर, एक मिलावटी या मन-गढ़ंत सुसमाचार और अप्रभावी (1कुरिन्थियों 1:17) को लोगों द्वारा प्रचार करवाना। शैतान द्वारा इस प्रकार के भ्रष्ट किए गए सुसमाचार में लोगों से पापों से पश्चाताप करने और उनके लिए प्रभु से क्षमा माँगने के स्थान पर भले कामों को करने, भले बनने, और धार्मिक गतिविधियों को करने तथा मानने-मनाने के द्वारा परमेश्वर को स्वीकार्य होने की शिक्षाएं दी जाती हैं; जो कि प्रभु यीशु के एकमात्र सच्चे और उद्धार देने वाले सुसमाचार (रोमियों 10:9-10; 1कुरिन्थियों 15:1-4) से बिलकुल भिन्न हैं। जो लोग शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए इस सुसमाचार के पालन और प्रचार में लगे होते हैं, उन्हें लगता है कि वे प्रभु के लिए अच्छा कार्य कर रहे हैं, किन्तु वास्तव में वे प्रभु के विरुद्ध और शैतान के लिए अच्छा कार्य कर रहे होते हैं। इस भ्रष्ट सुसमाचार के प्रभावहीन होने की गंभीरता को हम पवित्र आत्मा द्वारा पौलुस प्रेरित से गलातियों की मसीही मण्डली को लिखी बात से समझ सकते हैं: “मुझे आश्चर्य होता है, कि जिसने तुम्हें मसीह के अनुग्रह से बुलाया उस से तुम इतनी जल्दी फिर कर और ही प्रकार के सुसमाचार की ओर झुकने लगे। परन्तु वह दूसरा सुसमाचार है ही नहीं: पर बात यह है, कि कितने ऐसे हैं, जो तुम्हें घबरा देते, और मसीह के सुसमाचार को बिगाड़ना चाहते हैंपरन्तु यदि हम या स्वर्ग से कोई दूत भी उस सुसमाचार को छोड़ जो हम ने तुम को सुनाया है, कोई और सुसमाचार तुम्हें सुनाए, तो श्रापित हो। जैसा हम पहिले कह चुके हैं, वैसा ही मैं अब फिर कहता हूं, कि उस सुसमाचार को छोड़ जिसे तुम ने ग्रहण किया है, यदि कोई और सुसमाचार सुनाता है, तो श्रापित हो। अब मैं क्या मनुष्यों को मनाता हूं या परमेश्वर को? क्या मैं मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता हूं?” (गलातियों 1:6-9)।

 

क्योंकि अपनी कलीसिया और उसके लोगों की उन्नति के लिए प्रभु ने सुसमाचार प्रचार को इतना महत्व दिया है, और आवश्यक ठहराया है, इसलिए हम मसीही विश्वासियों की यह ज़िम्मेदारी है कि हम प्रभु के इस कार्य में प्रभु के निर्देशानुसार एवं आज्ञाकारिता में संलग्न रहें, इसे नज़रन्दाज़ न करें, इसे हल्का या कम महत्व का न समझें। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं तो ध्यान कीजिए कि प्रभु यीशु के सुसमाचार प्रचार के प्रति आपका क्या रवैया है? क्या आप उस सच्चे सुसमाचार को, उसके मूल स्वरूप में समझते और जानते हैं? क्या आप उस सुसमाचार को ग्रहण करने और उसके निर्वाह के द्वारा मसीही विश्वासी बने हैं, या अन्य किसी विधि से? यदि आप उस सच्चे सुसमाचार के द्वारा प्रभु में नहीं आए हैं, उसके आधार पर प्रभु की कलीसिया के अंग नहीं बने हैं, तो आप शैतान द्वारा फैलाए गए भ्रम-जाल में फंसे हुए हैं, और आपको अभी समय तथा अवसर रहते अपनी स्थिति को ठीक करना अनिवार्य है, नहीं तो शैतान द्वारा आपकी अनन्तकाल की हानि आपके लिए तैयार है।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।  

एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यिर्मयाह 3-5 

  • 1तिमुथियुस 4


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English Translation

The Importance & Necessity of Preaching the Gospel


We have seen that in Ephesians 4:11 a list five kinds of ministries and their workers appointed by the Lord Jesus for the growth and edification of His Church is given. The words used for the ministries in the original Greek language, in context of the Church and the Christian Faith, all imply various works and functions related to the ministry of the Word of God. Of these five, we have considered the first two, i.e., Apostles, Prophets and Prophesying. From the Biblical texts related to these ministries and workers, it is evident that today those who claim to be Apostles and Prophets, do not live up to the criteria, or, exhibit the characteristics, and qualities mentioned in God’s Word the Bible about these ministries and workers. Today, these people are usually seen in those groups, sects, and denominations that preach, teach, and make people follow wrong doctrines and false teachings related to God the Holy Spirit. In such groups, sects, and denominations, some persons or elders, declare some of their members as Apostles or Prophets. They then use these ministries as a title or status symbol to assert authority over other members, to gain material things and temporal benefits. Whereas Ephesians 4:11 says it very clearly that the appointments to these ministries were done by the Lord, not any person.


Another very important thing to always be keep in mind, related to the activities of these people, especially regarding “Prophesying” is that by the time the era and life-time of the Lord appointed Apostles and the Elders of the first Church came to an end, all the books and letters that eventually were going to be a part of the New Testament, had already been written, circulated, and had reached their destinations. In other words, the Word of God in its written form had been completed; now all that remained was to compile it into one book, in the form we have it with us, as the Bible. What those Apostles and Prophets of the initial Church wrote under the guidance of the Holy Spirit and left for us, later, that was compiled in one book to be with us for all eternity, as the Word of God, the Bible. In this context, Peter under the guidance of the Holy Spirit wrote in 2Peter 1:3-4, that everything that pertains to life and godliness, along with God’s great promises and the way to escape the corruption of the world, has already been given to us in the knowledge and understanding of the Lord Jesus - as a completed and accomplished perfect work, in which there is neither any need nor any scope or possibility of any addition, or modification, or correction. In other words, now that God’s Word has been written down and given to us, there is no possibility of adding or taking away or modifying anything from it; whoever does anything like this will have to pay a very heavy price for doing so (Revelation 22:18-19). Therefore, the present-day self or man proclaimed “Apostles” and “Prophets”, who claim to receive visions and instructions from god, on the basis of which they then add or modify or reject things from God’s Word with gross impunity, will have to give a serious account and heavily suffer for manhandling God’s Word to suit their convenience (Matthew 12:36-37; 15:8-9, 13-14).


In Ephesians 4:11, the third ministry and its workers are “Evangelists.” Take note that although some in the Church have been especially given the gift of preaching the gospel, but the Lord has kept preaching and propagating the gospel for each and every one of His disciples (Matthew 28:18-20; Mark 16:15; Acts 1:8); evangelism or preaching the gospel is every Christian’s responsibility. The Apostle Paul expressed the compulsion and necessity of preaching the gospel in 1Corinthians 9:16-17, 23; and he also instructed his co-worker, Timothy, to continue patiently in preaching the gospel, putting up with all the problems and difficulties that may come while doing this, without giving up on it (2Timothy 4:5). While we were considering the various metaphors used in the Bible for the Church of the Lord Jesus Christ, and also in the discussion from Acts 2:42 on “Breaking of Bread”, i.e., the Holy Communion, we had seen that one of the purposes, a responsibility of the Church is to be engaged in witnessing for the Lord Jesus. Wherever there is witnessing for the Lord Jesus, the preaching of the gospel will also be there, automatically. Therefore, in whichever local church, there is no outreach and gospel preaching in its activities, that church either does not belong to the Lord Jesus, or has been misled and fallen away from the Lord’s ways, works, and purposes and is no longer working for the Lord, is ineffective and not of any use for Him. As we have seen about the churches of Revelation chapters 2 and 3, such an ineffective and useless church will face the Lord’s judgment and be brought to an end. As we have seen in the article of October 20, the growth, stability, and edification of the Lord’s Church and of His Believers is closely related to their proper obedience to God’s Word. Where there is obedience to the Lord and His Word, there the security and blessings of the Lord God are also present; else that church or person are on their own, without any help, security, and blessings of God.


In preaching and propagating the gospel, God’s power is also available, and it is the gospel that reveals God’s righteousness through faith (Romans 1:16-17). Satan knows this very well; he knows that those who are engaged in preaching and propagating the gospel, will turn out to be a big problem for him, since God’s power will work through them, against him. Therefore, he obstructs and tries to prevent preaching the gospel in every possible way that he can. To accomplish this, Satan turns the preachers into being indifferent and callous towards their ministry and responsibility, puts fear of people and the world in their hearts, strives to spoil their life, families, and testimony, quench the zeal and enthusiasm of God’s children who are engaged in or want to be involved in preaching the gospel; all so that the lives of the preachers of the gospel does not resemble or live up to what they preach, and they become ineffective for the Lord. Similarly, he keeps the churches involved in an outward show of vain activity through fulfilling formalities, rituals, traditions, celebrations, feasts and festivals; and even through creating dissensions, groupism, and infightings, so that somehow the church too remains weak and incapable of having any outreach and is ineffective for the Lord. God the Holy Spirit desires that we learn and be aware of these devices of Satan, and stay safe from being beguiled by him (2Corinthians 2:11).


A very effective and often used weapon of Satan against the gospel is to have the people corrupt the gospel by inserting their own ideas, thinking, and wisdom in it, thereby render the gospel ineffective (1Corinthians 1:17), and then engage the people in spreading this false, corrupted, ineffective gospel, under the assumption that they are doing a service for the Lord, whereas actually they are doing a great disservice for the Lord! A hallmark of this corrupted, ineffective, false gospel is that instead of repentance for sins and asking for the Lord’s forgiveness for them, it encourages the people to be good, to do good works, be ‘religious’, be involved in ‘religious works’ to please God and become acceptable to Him - none of which are a feature of the one and only true, saving, gospel (Romans 10:9-10; 1Corinthians 15:1-4) of the Lord Jesus. The seriousness of this corruption, and ineffectiveness of this corrupted gospel was emphasized by the Holy Spirit in the opening section of Apostle Paul’s letter to the Church in Galatia. Through the Holy Spirit, Paul wrote, “I marvel that you are turning away so soon from Him who called you in the grace of Christ, to a different gospel, which is not another; but there are some who trouble you and want to pervert the gospel of Christ. But even if we, or an angel from heaven, preach any other gospel to you than what we have preached to you, let him be accursed. As we have said before, so now I say again, if anyone preaches any other gospel to you than what you have received, let him be accursed” (Galatians 1:6-9).


Since the Lord has given so much emphasis to the preaching of the gospel and made it so necessary for the growth, stability, and edification of His Church and its members - the Christian Believers, it is the responsibility of the Christian Believers to be continually engaged in this ministry under the Lord’s instructions and guidance, not take it lightly, not ignore or overlook it. If you are a Christian Believer, then what is your attitude towards the gospel and its preaching? Do you know and understand the gospel in its correct form? Have you become a Christian, a Believer by obeying and following that gospel, or through some other way? If you have not come to faith in the Lord Jesus through that gospel, if you have not become a member of the Lord Jesus’s Church through obeying and following the gospel, then you are caught and entangled in the deceptive and destructive web of Satan. Assess and correct your situation now, while you have God given time and opportunity to do so, else eternal damnation and irretrievable harm is ready and waiting for you from Satan.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Jeremiah 3-5 

  • 1Timothy 4