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मंगलवार, 21 नवंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 87 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 16


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पवित्र आत्मा – सत्य का आत्मा – 5

 

    हम यूहन्ना 14:17 से परमेश्वर पवित्र आत्मा के सत्य का आत्मा होने के बारे में सीख रहे हैं, मसीही विश्वासी के पवित्र आत्मा, जो उसे उद्धार पाने के पल से ही परमेश्वर द्वारा दे दिया जाता है, का योग्य और भला भण्डारी होने के लिए। पिछले लेख में हमने देखा था कि पवित्र आत्मा बाइबल की सभी पुस्तकों का मूल लेखक है, अर्थात, उसी की प्रेरणा और अगुवाई में लोगों ने भिन्न समयों में उन पुस्तकों को लिखा, जिन्हें फिर संकलित कर के बाइबल के रूप में रखा गया है। इसलिए पवित्र आत्मा कभी भी उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं कहेगा जो उसने पहले से ही बाइबल में लिखवा कर दे दिया है। साथ ही हमने 2 पतरस 1:3 से भी देखा था कि मसीही विश्वासी को जीवन और भक्ति के लिए जो कुछ भी चाहिए वह पहले से ही उसे लिखित वचन, अर्थात, बाइबल में उपलब्ध करवा दिया गया है। इसलिए पवित्र आत्मा को किसी भी विश्वासी को कोई भी नई शिक्षा, प्रकाशन, अथवा दर्शन देने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रभु यीशु ने भी यही बात कही है, कि पवित्र आत्मा उसके शिष्यों को प्रभु के शब्दों के बारे में स्मरण करवाएगा, उनका मार्गदर्शन करेगा; लेकिन वह अपनी ओर से कोई नई बात नहीं कहेगा, वरन जो कह दिया गया है उसे ही बताएगा (यूहन्ना 16:13-15)।


    इस के दो बहुत महत्वपूर्ण तात्पर्य हैं जो हमें गलत दावों और झूठी शिक्षाओं को पहचानने तथा सही और गलत में भिन्नता करने में सहायता करते हैं। पहला है कि जो कोई भी बाइबल से बाहर की किसी शिक्षा को पवित्र आत्मा द्वारा दिए गए प्रकाशन या दर्शन से प्राप्त करने की बात करता है, वह सच नहीं बोल रहा है; चाहे उसका आत्मिक स्तर, लोकप्रियता, और मसीहियत में स्थान कुछ भी हो। दूसरा, ऐसी कोई भी बात जो सिखाई, प्रचार की जा रही, या व्यवहार में लाई जा रही है, यदि वह बाइबल से बाहर की है, अर्थात, पहले से ही बाइबल में नहीं दी गई है, तो वह बाइबल के अनुसार सत्य नहीं हो सकती है, एक बार फिर, चाहे उसे सिखाने, प्रचार करने, और करने के लिए कहने वाले का आत्मिक स्तर, लोकप्रियता, और मसीहियत में स्थान कुछ भी हो।


    इस सन्दर्भ में, पिछले लेख में हम इस बिंदु पर आ कर रुके थे कि परमेश्वर के लोग भी शैतान द्वारा भरमाए और गलत मार्ग पर डाल दिए जाते हैं कि गलत बातें, जो बाइबल के अनुसार सही नहीं हैं, उनका प्रचार करें और सिखाएं। सामान्यतः यह तब होता है जब परमेश्वर के लोग, उसके प्रति अपने भक्ति और आदर की अभिव्यक्ति के रूप में बाइबल के तथ्यों और बातों को ऐसी रीति से कहने और उपयोग करने लगते हैं, जैसा उनके विषय में बाइबल में नहीं कहा गया है – वे बातें और तथ्य तो बाइबल से हैं, किन्तु उनका उपयोग और उनके साथ व्यवहार बाइबल से बाहर का है, जिस से यह वास्तविक नहीं वरन एक मनगढ़ंत बात हो जाती है। इसीलिए इस बात को बल देकर कहा गया था कि बाइबल की शिक्षा यही है कि प्रत्येक मसीही, जो भी प्रचार किया जा रहा है या सिखाया जा रहा, पहले उसे बाइबल से जांच-परख कर देखे, और उसकी पुष्टि होने बाद ही उसे स्वीकार करे (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। आज हम कुछ भक्त परमेश्वर के लोगों के उदहारण देखेंगे जिन्होंने गलत कहा या किया, तथा औरों को भी गलतियों में डाला, या औरों को भी उनकी मनगढ़ंत गलतियों का पालन करने के कारण गंभीर परिणाम भुगतने पड़े।

·        पतरस, यद्यपि उसने पुनरुत्थान हुए प्रभु को देखा था, फिर भी अधीर हो गया, और वापस मछली मारने को जाने का निर्णय किया, और छः अन्य शिष्यों ने भी उसके समान करने का निर्णय किया। प्रभु को उन्हें वापस उनकी बुलाहट में लौटाने के लिए एक हल्की सी डाँट का उपयोग करना पड़ा (यूहन्ना 21:1-19)।

·        पतरस, जब कुछ यहूदी उसके पास आए, तब अन्य-जातियों के मध्य दोगलेपन को दिखाने लगा। पवित्र आत्मा ने पौलुस में होकर उसके इस व्यवहार के लिए उसे अच्छे से डाँटा (गलातियों 2:11-14)।

·        पौलुस, एक शिक्षित और प्रशिक्षित भक्त फरीसी था, जो परमेश्वर के लिए बहुत जलन रखता था, अपने परिवर्तित होने से पहले, अपने प्रशिक्षण और पवित्र शास्त्र के ज्ञान के आधार पर यही समझता था कि मसीहियों को सताने के द्वारा वह परमेश्वर की सेवा कर रहा है, और बहुत से अन्य लोग उसके साथ इस में संलग्न थे, जब तक कि प्रभु ने वास्तविकता के प्रति उसकी आँखें नहीं खोल दीं (प्रेरितों 22:3-5; 26:9-11)।

·        पौलुस, यूहन्ना मरकुस से निराश होने के कारण उसे फिर से सेवकाई के लिए उपयोग नहीं करना चाहता था। पौलुस अपनी इस ज़िद पर इतना दृढ़ था कि उसने, बजाए मरकुस को स्वीकार करने के, अपने मित्र और सहकर्मी बरनबास से अलग होना चुन लिया (प्रेरितों:15:36-41)। लेकिन बाद में, मरकुस के प्रति उसका व्यवहार बदल गया, उसने उसे स्वीकार किया और कहा कि सेवकाई में वह उसके बहुत काम का था (प्रेरितों 4:11)।

·        शैतान ने दाऊद को उकसाया कि इस्राएल की जनगणना करे। यद्यपि उसके सेनापति योआब ने उसे इससे हटाना चाहा, किन्तु दाऊद नहीं माना। परमेश्वर इस से बहुत क्रुद्ध हुआ और इस्राएल को इसका दण्ड भुगतना पड़ा (1 इतिहास 21:1, 3-4, 7)।

·        सुलैमान, जो सबसे बुद्धिमान व्यक्ति था, जिसे परमेश्वर ने दो बार दर्शन दिए थे, अपने जीवन के बाद के समय में मूर्ति-पूजा में पड़ गया, और परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध किए गए अन्य-जातियों में विवाहों की अपनी पत्नियों के लिए, उनके देवी-देवताओं के लिए मूर्तियाँ और मंदिर बनवाए। परिणामस्वरूप परमेश्वर उस से बहुत क्रोधित हुआ, और उसके वंशजों से राज्य को लेकर दो में विभाजित कर दिया (1 राजाओं 11:1-13)।


    इस प्रकार हम परमेश्वर के वचन से देखते हैं कि न केवल भक्त लोग, वरन परमेश्वर के लोग भी शैतान द्वारा बहकाए जा सकते हैं, गंभीर गलतियाँ कर सकते हैं, तथा औरों को भी गलतियों में डाल सकते हैं, उन पर भी परमेश्वर से गंभीर ताड़ना को ला सकते हैं। हम इसके बारे में अगले लेख में और आगे देखेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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English Translation

Holy Spirit – The Spirit of Truth – 5

 

    We are learning from John 14:17, about God the Holy Spirit being the Spirit of Truth, for the ministry of a Christian Believer to be the worthy steward of the Holy Spirit, given to him by God at the moment of his salvation. In the last article we have seen that the Holy Spirit being the actual author of all the books of the Bible, i.e., being the one who inspired and motivated people to write the various books over time, which were then compiled to give us the Bible, will never go over and above what He has already got written in the Bible. Moreover, we have seen from 2 Peter 1:3 that all a Christian Believer will ever need for his life and godliness, has already been provided to him in the written Word, i.e., the Bible. So, there is no need for the Holy Spirit to give any new teachings, revelations, or visions to any Believer about anything. The Lord Jesus has said this too, that the Holy Spirit will remind His disciples about the Lord’s Words, guide them; but He will not say anything new on His own authority, but will only say what has been said (John 16:13-15).

    This has two very important implications that help us in recognizing false claims and wrong teachings, and discerning between right and wrong. The first is that anyone who claims to have received some new extra-Biblical teachings through revelations or visions from the Holy Spirit, cannot be speaking the truth; irrespective of his spiritual status, popularity, and stature in Christianity. Secondly, anything preached, taught, practiced by anyone that is extra-Biblical, i.e., has not already been given in the Bible, again, irrespective of the spiritual status, popularity, and stature in Christianity of the preacher or teacher, cannot be the Biblical truth.

In this context, we had stopped in the last article at the point that even God’s people are deceived and misled by Satan to say, preach, and teach things that are not Biblically true. This usually happens when God’s people as an expression of their reverence, and of godliness, misuse Biblical terms and facts in a manner that has not been stated about them in the Bible – the terms and facts are Biblical, but their application and utilization is extra-Biblical, making it something contrived, and not factual. Hence it had been emphasized that the Biblical teaching is for every Christian to first verify whatever is being preached and taught, from God’s Word the Bible, and only then accept it, if it is Biblically found to be true (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). Today we will see some examples of godly people saying and doing wrong things, and misleading others into errors, or of others having to suffer the serious consequences of their presumptive behavior.

·        Peter, though having seen the resurrected Lord, became impatient, and decided to go back to fishing, and six other disciples decided to follow him. The Lord had to give them a gentle rebuke while restoring them back into the calling He had given to them (John 21:1-19).

·        Peter, amongst the Gentiles behaved hypocritically, when some Jews came to him; and with him some others also fell into the same hypocrisy. The Holy Spirit through Paul gave them a sharp rebuke for this (Galatians 2:11-14).

·        Paul, a learned godly Pharisee, and very zealous for God, before his conversion, through his training and scriptural knowledge thought he was serving God by persecuting the Christians, and many others were involved with him, till the Lord opened his eyes to the actual truth (Acts 22:3-5; 26:9-11).

·        Paul, because of his disappointment about John Mark, refused to consider him again for being with him for ministry. Paul was so adamant that he chose to separate from his friend and colleague Barnabas, rather than to accept Mark (Acts 15:36-41). But later, he reconciled with John Mark, and called him one who was useful for him in ministry (2 Timothy 4:11).

·        David was incited by Satan to take a census of Israel. Though his commander Joab tried to dissuade him, but David did not listen. This greatly displeased God and He struck Israel for it (1 Chronicles 21:1, 3-4, 7).

·        Solomon, the wisest man ever, to whom God had appeared twice, in his later years fell into idolatry, built temples for gods and goddesses of the Gentile women he had married against God’s Word. Consequently, God was angry with him and tore away the Kingdom from his posterity (1 Kings 11:1-13).

    So, we see from God’s Word that not just godly people, even God’s people, can be misled by Satan, and can commit gross errors, often in their devotion and godliness, thinking that they are being reverential; but actually, they are being used by Satan to misuse God’s Word and teach their errors to others, leading others into wrong things, even severe chastisement from God. We will continue with this in the next article.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

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