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पवित्र आत्मा से सीखना – 4
नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, उसे उसके उद्धार पाने के पल से ही परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए परमेश्वर पवित्र आत्मा का भण्डारी है। पवित्र आत्मा उसे उसका मसीही जीवन जीने तथा सेवकाई को भली-भाँति पूरा करने में सहायक, साथी, और मार्गदर्शक होने के लिए दिया गया है। इसलिए पवित्र आत्मा की सहायता को योग्य रीति से उपयोग करने के लिए, विश्वासी को परमेश्वर के वचन से उस के बारे में सीखना चाहिए, जिस से कि पवित्र आत्मा के बारे में प्रचलित झूठी शिक्षाओं और गलत धारणाओं में पड़ कर भटक न जाए। हम यह प्रभु यीशु द्वारा यूहन्ना 14 से 16 अध्याय में पवित्र आत्मा के बारे में दी गई शिक्षाओं को सीखने के द्वारा कर रहे हैं। वर्तमान में हम यूहन्ना 14:17 से सीख रहे हैं, जहाँ से हमने पवित्र आत्मा का ‘सत्य का आत्मा’ होने के बारे में देखा है; और फिर उसके बाद सीखा था कि क्यों सँसार उसे जान नहीं सकता है, ग्रहण नहीं कर सकता है, लेकिन मसीही विश्वासी उसे जान सकता है क्योंकि वह उस में निवास करता है।
हमने देखा है कि विश्वासी में पवित्र आत्मा होने का प्रमाण है विश्वासी के जीवन में दिखने वाले पवित्र आत्मा के प्रभाव, उसके जीवन में पवित्र आत्मा द्वारा लाए गए बदलाव। इन प्रभावों में से एक है विश्वासी का परमेश्वर के वचन बाइबल को पवित्र आत्मा से सीखना। किन्तु विश्वासी में पवित्र आत्मा के होते हुए, और पवित्र आत्मा के उसे सिखाने का इच्छुक होने पर भी, बहुधा विश्वासियों को पवित्र आत्मा से परमेश्वर के वचन को सीखने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, और इसलिए विश्वासी अकसर मनुष्यों और पुस्तकों से वचन सीखने की ओर मुड़ जाते हैं, जो उन्हें बाइबल के बाहर की और गलत शिक्षाओं में पड़ जाने के खतरे में डाल देता है। हम ने देखा था कि विश्वासी के पवित्र आत्मा से न सीख पाने के मुख्यतः तीन कारण हैं। इन तीनों में से हम पहले कारण, विश्वासी में परमेश्वर के वचन का पर्याप्त संग्रह अथवा भण्डार न होना जिस में से पवित्र आत्मा उसे स्मरण दिला सके – क्योंकि पवित्र आत्मा इसी विधि से सिखाता है, को हम देख चुके हैं।
अब हम दूसरे कारण को देख रहे हैं, विश्वासी का परमेश्वर के वचन को पढ़ने और अध्ययन करने में पर्याप्त समय न लगाना; और यह विश्वासी के पवित्र आत्मा के निर्देशों का पालन करने के लिए जितना प्रतिबद्ध होना चाहिए, उतना न होने के कारण होता है। पिछले लेख में इस कारण पर विचार करते हुए हम इस बात पर आ कर रुके थे कि पवित्र आत्मा से सीखने के लिए विश्वासी को ‘आत्मा के अनुसार चलना’ (गलतियों 5:16, 25) भी सीखना चाहिए, अर्थात, पवित्र आत्मा के कहे के प्रति संवेदनशील और आज्ञाकारी भी होना चाहिए। इस दूसरे कारण के दोनों भाग – परमेश्वर के वचन को पर्याप्त पढ़ना और अध्ययन नहीं करना, तथा पवित्र आत्मा के निर्देशों का पालन करने के लिए उचित रीति से प्रतिबद्ध नहीं होना, आपस में जुड़े हुए हैं और एक-दूसरे पर निर्भर हैं। विश्वासी जितना आधिक परमेश्वर के वचन को पढ़ेगा और सीखेगा, वह पवित्र आत्मा के प्रति उतना अधिक प्रतिबद्ध और आज्ञाकारी होगा, अर्थात, वह उतना आधिक ‘आत्मा के अनुसार’ चलने वाला बन जाएगा; और वह जितना अधिक प्रतिबद्ध और आज्ञाकारी होगा, वह जितना अधिक ‘आत्मा के अनुसार’ चलने वाला बनेगा, पवित्र आत्मा उसे उतना अधिक परमेश्वर के वचन को सिखाएगा, तथा वचन में विश्वासी की रुचि उतनी अधिक बढ़ती जाएगी। इस प्रकार से, एक चक्र के समान, एक बात दूसरी को बढ़ाती रहती है।
विश्वासी के पवित्र आत्मा के प्रति प्रतिबद्ध और आज्ञाकारी न रहने का एक और कारण है उसका सँसार की बातों में फँसे रहना। पवित्र आत्मा की अगुवाई में प्रेरित पतरस ने मसीही विश्वासियों को लिखा है, “इसलिये सब प्रकार का बैर भाव और छल और कपट और डाह और बदनामी को दूर करके। नये जन्मे हुए बच्चों के समान निर्मल आत्मिक दूध की लालसा करो, ताकि उसके द्वारा उद्धार पाने के लिये बढ़ते जाओ” (1 पतरस 2:1-2)। दूसरे शब्दों में, निर्मल आत्मिक दूध के द्वारा बढ़ने के लिए यह अनिवार्य है कि पहले विश्वासी अपने रवैये और जीवन-शैली में बदलाव लाए – “सब प्रकार का बैर भाव और छल और कपट और डाह और बदनामी को दूर करके” सँसार से बिल्कुल भिन्न हो जाए। प्रेरित पौलुस ने भी इसी बात पर 1 कुरिन्थियों 3:1-3 में बल दिया; उसने इस प्रकार के व्यवहार में बने रहने वाले विश्वासियों को शारीरिक कहा, जिस के कारण वे ठोस आत्मिक भोजन, अर्थात और परिपक्व आत्मिक शिक्षाएँ ग्रहण कर पाने में असमर्थ थे, और उन्हें बच्चों का ही भोजन, अर्थात बिल्कुल आरंभिक शिक्षाएँ ही दी जा सकती थीं।
1 पतरस 2:1 की एक और ध्यान देने योग्य बात है कि पतरस पवित्र आत्मा के द्वरा मसीही विश्वासियों को यह लिख रहा है कि उन्हें ही स्वयं इन बुरे साँसारिक रवैयों और बातों को अपने से दूर करना होगा, कोई और उन के लिए यह कर के नहीं देगा। पवित्र आत्मा यह करने में उनकी सहायता और मार्गदर्शन करेगा, लेकिन उनके स्थान पर उनके लिए इसे नहीं करेगा – ध्यान कीजिए, वह उनका सहायक और मार्गदर्शक है, न कि उनके स्थान पर काम करने वाला या उनका सेवक। विश्वासियों को इसे करने के लिए स्वयं ही पहल करनी होगी, प्रयास करने होंगे, दृढ़ निश्चय बने रहना होगा, और जब वे दृढ़ निश्चय होकर उस के लिए उचित कदम उठाते हैं, तब परमेश्वर पवित्र आत्मा इन बाधाओं पर जयवंत होने और उन्हें हटाने में उनका सहायक होगा, मार्गदर्शन करेगा, जिस से वे परमेश्वर के वचन को सीखें, आत्मिक उन्नति करें, और परिपक्व हों।
मसीही विश्वासी को इस बात का एहसास रखना है कि प्रभु यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार करने, नया-जन्म प्राप्त करने के बाद से अब वे एक पूर्णतः नई सृष्टि बन गए है, “सो यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है: पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, वे सब नई हो गईं” (2 कुरिन्थियों 5:17)। इसलिए विश्वासी अब पुराने जीवन की बातों के साथ बना नहीं रह सकता है; यदि वह बना रहेगा, तो वे उसकी आत्मिक बढ़ोतरी में बाधा बनेंगी, और परमेश्वर के द्वारा उसे दिए गए शिक्षक से परमेश्वर के वचन को सीखने नहीं देंगी। पुराने जीवन की बातों को छोड़ कर नए जीवन के अनुसार जीने का उपाय है सँसार के लोगों और बातों के साथ संबंध को काट लेना, और उस समय को परमेश्वर का वचन सीखने, परमेश्वर का कार्य करने, और परमेश्वर के लोगों की संगति में रहने में बिताना।
अगले लेख में हम उस तीसरे कारण को देखना आरंभ करेंगे जो मसीही विश्वासी के पवित्र आत्मा से वचन को सीखने में बाधा डालता है, अर्थात, उन्होंने मनुष्यों से जो शिक्षाएँ पाई हैं और जिन पर वे भरोसा रखते आए हैं, उन्हीं में पवित्र आत्मा से मिली शिक्षाओं को मिलाने का प्रयास करना।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Learning from the Holy Spirit – 4
The Born-Again Christian Believer is the steward of the Holy Spirit, given to him by God at the very moment of his salvation, to be his Helper, Companion, and Guide for his Christian living and ministry. Therefore, to utilize the Holy Spirit’s services worthily, the Believer has to learn about Him from God’s Word to avoid being misled by false teachings and wrong doctrines so prevalent about the Holy Spirit. We are doing this through studying the teachings about the Holy Spirit given by the Lord Jesus in John chapters 14 to 16. Presently we are learning from John 14:17, and there we have seen about the Holy Spirit being ‘The Spirit of Truth’; and then we have learnt about why the world cannot know and receive Him, but the Christian Believer can know Him since He resides in him.
We have seen that the proof of the Holy Spirit being present in the Believer are the effects that He produces, the changes that the Holy Spirit brings in the Believer’s life. One of these effects is that the Believer learns God’s Word, the Bible, from the Holy Spirit. But despite the Holy Spirit being present in the Christian Believers and wanting to teach them, they still face considerable problems in properly learning God’s Word from Him, and therefore the Believers often resort to learning from men and books, which makes them prone to learning unBiblical things as well. We had seen that there are three main reasons for the Believer not being able to learn from God the Holy Spirit present in him. Of these three reasons, we have seen the first, i.e., the Believer not having a ‘stock’ or repository of God’s Word in him, for the Holy Spirit to be able to bring things written in God’s Word to the Believer’s remembrance – since that is how the Holy Spirit teaches the Believers.
We are now looking at the second reason, the Believer’s not giving adequate time to read and study God’s Word; and this usually is due to the Believer’s not being committed enough to follow and obey the instructions of the Holy Spirit. In the last article, while considering this second reason, we had stopped at the point that to learn from the Holy Spirit, the Believer also has to learn to ‘walk in the Spirit’ (Galatians 5:16, 25), i.e., learn to be sensitive and obedient to the promptings of the Holy Spirit. The two components of this second reason – not reading and studying enough of God’s Word, and not being committed enough to follow and obey the instructions of the Holy Spirit, are inter-linked and inter-dependent. The more the Believer reads and studies God’s Word, the more committed and obedient he will become to the Holy Spirit, i.e., the better he will ‘walk in the Spirit’; the more committed and obedient he is, i.e., the better he ‘walks in the Spirit’, the more the Holy Spirit will teach God’s Word to him, and the more interest he will develop in it. So, cyclically, one will keep promoting the other.
Another reason why the Believer does not remain committed and obedient to the Holy Spirit is his remaining entangled in the things of the world. The Apostle Peter, under the guidance of the Holy Spirit, has written to the Christian Believers “Therefore, laying aside all malice, all deceit, hypocrisy, envy, and all evil speaking, as newborn babes, desire the pure milk of the word, that you may grow thereby” (1 Peter 2:1-2). In other words, for the Believer to grow by the pure milk of the Word, the preliminary condition is a changed attitude and life-style – “laying aside all malice, all deceit, hypocrisy, envy, and all evil speaking”, into one that is absolutely unlike that of the world. The Apostle Paul too emphasized on this in 1 Corinthians 3:1-3; calling the Believers still persisting in this kind of behaviour as ‘carnal’, because of which they were unable to receive solid spiritual food, i.e., more mature spiritual teachings, and had to be fed only milk – the food of the babies, i.e., the very basic spiritual teachings.
Another thing to be noted from 1 Peter 2:1 is that Peter through the Holy Spirit is writing to the Believers that it is they themselves who have to lay aside these bad, worldly attitudes; no one else is going to do it for them. The Holy Spirit will help and guide them in it, but will not do it for them – remember, He is their Helper and Guide, not their substitute or servant. The Believers have to take the initiative, make the efforts, make a resolve, and as they take determined steps about it, God the Holy Spirit will help and guide them overcome and remove these impediments in their learning God’s Word, spiritual growth, and maturation.
The Christian Believer has to realize that having accepted the Lord Jesus as savior, having been Born-Again, now he is a totally new creation, “Therefore, if anyone is in Christ, he is a new creation; old things have passed away; behold, all things have become new” (2 Corinthians 5:17). Therefore, the Believer cannot be carrying with him the old things; if he does, they will hamper his spiritual growth, and not let him learn God’s Word from his God given Teacher – the Holy Spirit. The way to giving up on the past and living according to the new life is by cutting off the time with the people and things of the world, and using that time in learning God’s Word, doing God’s work, being in the company of God’s people.
In the next article we will begin looking at the third thing that obstructs the believer from learning God’s Word, i.e., their wanting to mix up man’s teachings that they have received and rely upon, with the teachings given by the Holy Spirit to them.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.