Click Here for the English Translation
पवित्र आत्मा से सीखना – 1
क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़वाए जाने से पहले, प्रभु यीशु मसीह ने अपने शिष्यों से प्रतिज्ञा की थी कि वे परमेश्वर पिता से कह कर, परमेश्वर पवित्र आत्मा को भेजेंगे, ताकि वह हमेशा उनके साथ बना रहे, उनका सहायक और साथी हो। प्रभु यीशु ने यूहन्ना 14 से 16 अध्याय में शिष्यों को पवित्र आत्मा के बारे में सिखाया कि किस प्रकार से पवित्र आत्मा उनके जीवन और सेवकाई में उनका सहायक और साथी होगा। मसीह यीशु के सभी शिष्य, नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी, उन्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए प्रावधानों के भण्डारी हैं; और जैसे परमेश्वर द्वारा दिए गए अन्य प्रावधानों के भण्डारी हैं, उसी प्रकार से वे परमेश्वर पवित्र आत्मा के भी भण्डारी हैं। योग्य भण्डारी होने के लिए, अपने जीवन और सेवकाई में उन की सहायता और सामर्थ्य का सही रीति से उचित उपयोग करने के लिए, विश्वासियों को पवित्र आत्मा के बारे में सीखना होगा। हम इन लेखों के द्वारा यही कर रहे हैं, और वर्तमान में हम यूहन्ना 14:17 से पवित्र आत्मा के बारे में सीख रहे हैं। पिछले लेख में हमने देखा था कि यद्यपि पवित्र आत्मा को मानवीय आँखों से नहीं देखा जा सकता है, किन्तु जैसे प्रभु यीशु ने यूहन्ना 3:8 में कहा है, जिन में वह निवास करता है, उन में उसके प्रभावों के द्वारा हम उसकी उपस्थिति को पहचान और प्रमाणित सकते हैं। पिछले लेख में हमने उन प्रभावों में से कुछ को देखा था। आज से हम उन से परमेश्वर के वचन को सीखने के बारे में सीखना आरंभ करेंगे, क्योंकि यह उनके दिए जाने के उद्देश्यों में से एक है (यूहन्ना 14:26)।
मसीही विश्वासियों में उन में निवास करने वाले पवित्र आत्मा से परमेश्वर का वचन सीखने के बारे में बहुधा एक असमंजस देखा जाता है। उनकी धारणा यही होती है कि उन में पवित्र आत्मा की उपस्थिति के कारण उन्हें तुरंत और स्वतः ही परमेश्वर के वचन का ज्ञाता और समझ-बूझ रखने वाला बन जाना चाहिए; किन्तु यह न तो बाइबल का तथ्य है, और न ही बाइबल में ऐसा कोई आश्वासन दिया गया है। नया जन्म पा लेने के बाद, जब नया विश्वासी बाइबल को पढ़ना आरंभ करता है, तब सामान्यतः वह अपने आप को पढे हुए को समझ नहीं पाने की स्थिति में पाता है। इस से उसके मन में असमंजस आ जाता है, और शैतान इसका लाभ उठाकर उस में पवित्र आत्मा की उपस्थिति के बारे में संदेह उत्पन्न करता है। फिर परमेश्वर के वचन की शिक्षा पाने के लिए शैतान उन्हें मनुष्यों और पुस्तकों की ओर देखने के लिए मोड़ता है। यह करने के द्वारा वह न केवल उन्हें गलत शिक्षाओं और सिद्धांतों में फँसा देता है, बल्कि परमेश्वर के वचन की शिक्षाओं को प्राप्त करने के लिए उन्हें कुछ मनुष्यों पर निर्भर बना देता है; और साथ ही यह उन्हें ‘मनुष्यों का अनुसरण करने वाला’ भी बना देता है, बजाए परमेश्वर का अनुसरण करने वाला और मनुष्यों का मछुआरा होने के।
परमेश्वर ने हमें अपना वचन दिया है जिससे कि हम यत्न से उसका पालन करें (भजन 119:4), पाप करने से बचे रहें (भजन 119:9, 11), उस के मार्गों को देख सकें (भजन 119:105), और हमें बुद्धिमान बनाने के लिए (भजन 119:98-110)। जहाँ पर भी वचन को सीखने की लालसा होगी (भजन 25:4), परमेश्वर अपने वचन को सिखाएगा, पापियों को भी, यदि वे अपने आप को उसके सामने नम्र करें (भजन 25:8-9), और वह उन्हें उस के अनुसार सिखाएगा जो उस ने उन के लिए तय कर के रखा है (भजन 25:12), अर्थात, उनके लिए उसके द्वारा निर्धारित की गई सेवकाई (इफिसियों 2:10) के अनुसार। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर ने हमें अपना वचन दिया ही इस लिए है कि हम उसे सीखें, और वह चाहता भी है कि हम उसे सीखें; वह हमें उसे सिखाना चाहता है, अपनी प्रत्येक सँतान को सीधे और व्यक्तिगत रीति से, यदि वे उसके लिए पर्याप्त और उपयुक्त प्रयास करने के लिए तैयार हैं।
उन में पवित्र आत्मा के निवास करने के बावजूद विश्वासी के वचन न सीख पाने के तीन मुख्य कारण है: पहला है उस के अंदर परमेश्वर के वचन का पर्याप्त ‘भण्डार’ उपलब्ध न होना; दूसरा है उस के द्वारा परमेश्वर के वचन को पढ़ने और अध्ययन करने के लिए पर्याप्त और उचित समय न लगाना, और सामान्यतः यह तब होता है, जब विश्वासी पवित्र आत्मा के निर्देशों को जानने और मानने के लिए प्रतिबद्ध नहीं होता है; और तीसरा है उनके द्वारा उन्हें मनुष्यों द्वारा दी गई शिक्षाओं में, जिन पर वे भरोसा करते या रहे हैं, ही पवित्र आत्मा की शिक्षाओं को मिलाने की प्रवृत्ति रखना।
आने वाले लेखों में भी हम इसे ज़ारी रखेंगे, और उपरोक्त तीनों बातों को कुछ विस्तार से देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
***********************************************************************
English Translation
Learning from the Holy Spirit – 1
The Lord Jesus Christ, before His being caught and taken for crucifixion, had promised the disciples that He will ask God the Father to send God the Holy Spirit to always be with them as their Helper and Companion. In John’s gospel, chapters 14 to 16 He had taught the disciples about Him, about how the Holy Spirit would help and guide them in their life and ministry. All disciples of Christ Jesus, the Born-Again Christian Believers, are the stewards of their God given provisions; and as for other things given to them by God, they are the stewards God the Holy Spirit as well. To be worthy stewards, to be able to properly utilize His help and power in their lives and ministry, the Believers have to learn about Him. This is what we are doing through these articles, and presently, we are learning about the Holy Spirit, from John 14:17. In the last article we have seen that though the Holy Spirit cannot be seen with human eyes, but as the Lord Jesus said in John 3:8, His presence is known by the effects He produces in the lives of those in whom He dwells. We have seen some of these effects in the last article. From today we will begin to learn about learning God’s Word from Him, since teaching it is one of His functions (John 14:26).
There is often a confusion amongst the Christian Believers about learning God’s Word from the Holy Spirit residing in them. Their assumption is that the very presence of the Holy Spirit should automatically make them learned and knowledgeable about God’s Word; but this is neither a Biblical fact, nor an assurance. Having being Born-Again, as the new Believers start reading the Bible, they often find themselves being unable to understand what they are reading. This very often creates a confusion in them, that Satan exploits to make them doubt the presence of the Holy Spirit within them. Satan then gets them to turn to men and books to try to learn God’s Word. Thereby, he not only misleads and entangles them in wrong teachings and doctrines, but also makes them dependent on some persons to receive the teachings about God’s Word; and this also makes them become ‘followers of men’, instead being followers of God and fishers of men.
God has given us His Word so that we may diligently obey it (Psalm 119:4), to keep us from sinning (Psalm 119:9, 11), to show us His ways, (Psalm 119:105), and to make us wise (Psalm 119:98-100), and He Himself teaches it to us (Psalm 119:102). Where there is a desire to learn (Psalm 25:4), God will teach, even the sinners, if they humble themselves before Him (Psalm 25:8-9), and He teaches them according to the way He has chosen for them (Psalm 25:12), i.e., according to the ministry He has kept for them (Ephesians 2:10 ). In other words, God has given us His Word so that we should learn it, and He wants us to learn it, He wants to teach it to us, directly to each and every one of His children, provided they are willing to put in the requisite efforts for it.
The inability of a Believer to learn God’s Word, despite the Holy Spirit residing in him, is mainly because of three things: first is the lack of an adequate ‘stock’ of God’s Word available in him; second is his lack of giving adequate time to read and study God’s Word, and this usually is due to the Believer’s not being committed enough to follow and obey the instructions of the Holy Spirit; and the third is their wanting to mix up man’s teachings that they have received and rely upon, with the teachings given by the Holy Spirit to them.
We will carry on with this in the coming articles, seeing the above mentioned three things in some detail.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well