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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 26
हम 1 कुरिन्थियों 15:1-4 से, जहाँ पर पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस प्रेरित के द्वारा सुसमाचार के सार या मर्म को लिखा गया है, सुसमाचार तथा सुसमाचार पर विश्वास करने से सम्बन्धित शिक्षाओं पर विचार कर रहे हैं। पिछले लेख में हमने देखा था कि जैसा 1 कुरिन्थियों 15:3-4 में लिखा है, सुसमाचार पवित्र शास्त्र के अनुसार है, अर्थात, यह नए नियम में परमेश्वर के वचन में जोड़ी गई कोई नई बात नहीं है। वरन, सुसमाचार हमेशा से ही परमेश्वर के वचन का एक भाग रहा है, पहला पाप किये जाने के समय से ही; और तथ्य यही है कि परमेश्वर ने सृष्टि के समय से ही, इससे पहले कि पहला पाप किया जाता, सुसमाचार को स्थापित कर दिया था। आज से हम 1 कुरिन्थियों 15:1-2 पर विचार करना आरम्भ करेंगे, और सुसमाचार तथा सुसमाचार पर विश्वास करने से सम्बन्धित कुछ और बातों को समझेंगे।
1 कुरिन्थियों 15:1-2 में लिखा है, “हे भाइयों, मैं तुम्हें वही सुसमाचार बताता हूं जो पहिले सुना चुका हूं, जिसे तुम ने अंगीकार भी किया था और जिस में तुम स्थिर भी हो। उसी के द्वारा तुम्हारा उद्धार भी होता है, यदि उस सुसमाचार को जो मैं ने तुम्हें सुनाया था स्मरण रखते हो; नहीं तो तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ हुआ।” जैसा कि हमने पहले देखा है, प्रचारक के द्वारा लोगों और परिस्थितियों के अनुसार सुसमाचार को बनाया या गढ़ा नहीं जाना है, बल्कि परमेश्वर द्वारा दिए गए सुसमाचार को ही प्रचारक के द्वारा सुनाया जाना और प्रचार किया जाना है, और सुनने वालों के द्वारा उसे ही स्वीकार किया जाना है। परमेश्वर ने एक ही विश्वव्यापी सुसमाचार, जिसे “सनातन सुसमाचार” कहा गया है (प्रकाशितवाक्य 14:6) दिया है, और जो सभी समयों और कालों के लिए लागू एवं प्रभावी है, सभी लोगों के लिए है, सभी स्थानों पर उपयोग किया जाना है, और हर परिस्थिति के लिए है। परमेश्वर द्वारा दिए गए इस सुसमाचार सन्देश में, पवित्र आत्मा की सहायता से, लोगों को उनके पापों के लिए कायल करने और उनके जीवनों को परिवर्तित करने की सामर्थ्य है; किसी को भी इसे और अधिक प्रभावी बनाने के लिए इसमें और कुछ भी जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रभु यीशु ने अपने पकड़वाए जाने से पहले शिष्यों के साथ अंतिम भोज में, यूहन्ना अध्याय 14 से 16 में, परमेश्वर पवित्र आत्मा और शिष्यों के मध्य में पवित्र आत्मा की सेवकाई के बारे में कुछ बहुत महत्वपूर्ण शिक्षाएँ दी थीं। प्रभु के द्वारा दी गई इन शिक्षाओं में से एक है कि पवित्र आत्मा सत्य का आत्मा है (यूहन्ना 14:17; 15:26; 16:13); इसलिए पवित्र आत्मा कभी भी किसी भी ऐसी बात के साथ नहीं होगा जो सत्य नहीं है। यदि सुसमाचार प्रचार में पवित्र आत्मा सक्रिय रीति से जुड़ा हुआ नहीं है, तो सुसमाचार कभी भी प्रभावी नहीं होगा, अर्थात, वह लोगों को उनके पापों के लिए कायल नहीं करेगा और वे यीशु को प्रभु स्वीकार करने के लिए प्रेरित नहीं होंगे (1 कुरिन्थियों 12:3)।
ऐसा कोई भी सुसमाचार जो या तो मनुष्यों द्वारा गढ़ा गया है, अथवा जिस परमेश्वर द्वारा दिए गए सुसमाचार में मानवीय बुद्धि, विचारों, और समझ के द्वारा किसी प्रकार का कोई परिवर्तन लाया गया है, वह परमेश्वर द्वारा दिया गया शुद्ध और सच्चा सुसमाचार नहीं है। इसलिए न तो पवित्र आत्मा और न ही पवित्र आत्मा की सामर्थ्य उस सुसमाचार के प्रचार किये जाने या सिखाये जाने के साथ होगी; इसलिए यद्यपि ऐसा सुसमाचार सुनने में मनोहर, आकर्षक, रोचक, ज्ञानवर्धक, आदि तो हो सकता है, किन्तु उससे कभी भी सुनने वाले लोग अपने पापों के लिए कायल नहीं होंगे और न ही उनके जीवनों में कोई परिवर्तन आएगा, क्योंकि उसके साथ पवित्र आत्मा का कार्य जुड़ा हुआ नहीं है। पौलुस ने इस बात को बहुत स्पष्ट व्यक्त किया है, “क्योंकि मसीह ने मुझे बपतिस्मा देने को नहीं, वरन सुसमाचार सुनाने को भेजा है, और यह भी शब्दों के ज्ञान के अनुसार नहीं, ऐसा न हो कि मसीह का क्रूस व्यर्थ ठहरे” (1 कुरिन्थियों 1:17)।
गलतियों 1:4-9 में, पवित्र आत्मा के द्वारा पौलुस ने एक बार फिर सुसमाचार का सार लिखा (पद 4), और फिर बहुत बल देकर ऐसे किसी भी सुसमाचार को स्वीकार करने और पालन करने के लिए मना किया जो दिए गए मूल सुसमाचार से किसी भी प्रकार से थोड़ा भी भिन्न हो, चाहे उस भिन्न सुसमाचार को प्रचार करने और सिखाने वाला कोई स्वर्गदूत, या स्वयं पौलुस ही क्यों न हो। गलतियों के इस खण्ड में, सुसमाचार के साथ ऐसा करने को सुसमाचार को बिगाड़ना कहा गया है (पद 7), और जो सुसमाचार को बिगाड़ते हैं, और मूल नहीं किन्तु बदले हुए या बिगाड़े हुए स्वरूप को प्रचार करते हैं, उन्हें “श्रापित” कहा गया है (पद 8-9)। इसलिए, बाइबल के अनुसार, किसी को भी यह अधिकार अथवा अनुमति नहीं है कि वह किसी भी प्रकार से सुसमाचार में कोई भी परिवर्तन करे, और गढ़े हुए या परिवर्तित अर्थात बिगड़े हुए सुसमाचार का प्रचार करे और उसे सिखाए; किसी को भी नहीं, न स्वर्गदूतों को, न प्रेरितों को, न वचन के प्रशिक्षित विद्वानों को। जो भी ऐसा करता है, परमेश्वर के वचन को बिगाड़ता है, वह परमेश्वर की दृष्टि में श्रापित है; और यदि परमेश्वर ही किसी को दोषी ठहराए, तो फिर उसे गलती करने वाला होने और इस का दण्ड को भोगने से कौन बचा सकता है? इसलिए जो लोग परमेश्वर के वचन की सेवकाई में लगे हुए हैं, विशेषकर जो सुसमाचार प्रचारक हैं, उन्हें बहुत सावधान रहना चाहिए कि कहीं वे सुसमाचार को बेहतर तथा अधिक प्रभावी बनाने के उत्साह में, उस में अपने ही विचार और बुद्धि की बातें मिलाने के द्वारा उसे बिगाड़ न दें, और इससे न केवल सुसमाचार को अप्रभावी कर दें, बल्कि परमेश्वर की दृष्टि में स्वयं भी श्रापित न हो जाएँ।
हम अगले लेख में 1 कुरिन्थियों 15:1-2 पर और गए विचार ज़ारी रखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 26
We are learning Biblical teachings about the gospel and about believing in the gospel, using 1 Corinthians 15:1-4, where the crux of the gospel has been recorded by the Apostle Paul under the guidance of the Holy Spirit. In the previous article we have seen how, as it says in 1 Corinthians 15:3-4, the gospel is according to the Scriptures, i.e., is not something new that has been added or introduced in God’s Word in the New Testament. Rather, the gospel has always been a part of the Scriptures, of God’s Word, since the time the first sin was committed; and in fact, the gospel was put in place by God at creation, even before the first sin was committed. Today we will begin considering 1 Corinthians 15:1-2, and understand some more aspects about the gospel and about believing in it.
It is written in 1 Corinthians 15:1-2, “Moreover, brethren, I declare to you the gospel which I preached to you, which also you received and in which you stand, by which also you are saved, if you hold fast that word which I preached to you--unless you believed in vain.” As we have seen earlier, the gospel is not meant to be created or concocted by the preacher, according to the people and circumstances at hand, but the God given gospel is to be declared and preached by the preacher, and received by the hearers. God has given the one universal gospel, called the “everlasting gospel” (Revelation 14:6), which is applicable and effective for all times, for all people, at all places, under all circumstances. In this God given everlasting gospel message is the power to convict people of their sins and change their lives, through the help of the Holy Spirit; no one needs to add anything to it to try to make it more effective. The Lord Jesus, in His final discourse with His disciples during the ‘Last Supper,’ in John chapters 14 to 16 gave some very important teachings about God the Holy Spirit, and the Holy Spirit’s ministry amongst the disciples of the Lord. One of the teachings given by the Lord is that the Holy Spirit is the Spirit of truth (John 14:17; 15:26; 16:13); therefore, the Holy Spirit will never be associated with anything that is not the truth. If the Holy Spirit is not actively associated in the preaching of the gospel, then the gospel will never be effective, i.e., it will not convict people of sins and have them accept Jesus as Lord (1 Corinthians 12:3).
Any humanly contrived gospel, or God’s gospel that has been modified through human wisdom, thought, and understanding, is no longer the pure and true gospel as given by God. Hence, the Holy Spirit and His power will not be associated with any such gospel preaching and teaching; therefore, while the preaching of such a gospel may sound pleasing, attractive, interesting, educative, etc., but it will never bring any conviction for sins and change in the lives of the audience, since the power of the Holy Spirit is not in it. Paul said it very clearly, “For Christ did not send me to baptize, but to preach the gospel, not with wisdom of words, lest the cross of Christ should be made of no effect” (1 Corinthians 1:17).
In Galatians 1:4-9, Paul, though the Holy Spirit, summarized the gospel once again (v. 4), and then strictly forbade the acceptance and propagation of any gospel that is in any way, any different from this original gospel, even if the altered gospel is preached and taught by an angel, or even by Paul himself. In this passage from Galatians, doing this has been called ‘perverting the gospel’ (v. 7), and those who alter the gospel, and preach not the original, but the modified or altered version have been called “accursed” (vs. 8-9). So, according to the Bible, no one, not even angels, Apostles, the learned scholars of the Scriptures, absolutely no one, has the authority or permission to alter or modify the gospel in any way, and/or preach an altered or modified or contrived gospel. Those who do so, pervert God’s Word and are accursed in God’s eyes; and if God sees anyone as guilty, then who can absolve him of wrongdoing and its consequences? Therefore, those engaged in the ministry of God’s Word, especially the evangelists, i.e., those who preach the gospel, must be very careful of what they preach and say; lest in their enthusiasm to make the gospel sound better and more effective through inserting their own thoughts and wisdom into it, they not only end up rendering it ineffective, but also become accursed in God’s eyes.
We will continue considering some more about 1 Corinthians 15:1-2 in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.