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गुरुवार, 7 जुलाई 2022

मसीही विश्वास एवं शिष्यता / Christian Faith and Discipleship – 19


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मसीही शिष्यता - प्रभु के साथ घनिष्ठ संबंध 

    पिछले लेखों में हमने देखा है कि मसीही विश्वासी का जीवन प्रभु के लिए उपयोगी होने और प्रभु के लिए कार्यरत रहने में सक्रिय जीवन होता है। प्रभु का अपने सभी अनुयायियों के लिए कुछ-न-कुछ प्रयोजन है। प्रभु द्वारा प्रत्येक के लिए निर्धारित किए गए इन प्रयोजन तथा किसी के लिए निर्धारित अन्य किसी विशिष्ट प्रयोजन के अनुसार, उन्हें सक्षम करने और उस कार्य में सहायता प्रदान करने के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा ने सभी मसीही विश्वासियों को उचित आत्मिक वरदान भी प्रदान किए हैं, जिनके बारे में विवरण रोमियों 12 अध्याय, और 1 कुरिन्थियों 12 अध्याय में से पढ़ा जा सकता है। मरकुस 3:13-15 में हमने देखा कि प्रभु यीशु ने जब शिष्यों में से बारह प्रेरितों को चुना तो उनके लिए उसने तीन प्रयोजन निर्धारित किए। यही तीनों प्रयोजन सामान्यतः सभी मसीही विश्वासियों के लिए भी हैं; अर्थात प्रभु द्वारा प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए निर्धारित किए गए किसी विशिष्ट कार्य का आधार यही तीन प्रयोजन हैं, और वह विशिष्ट कार्य इन्हीं तीनों के निर्वाह के द्वारा ही सफल और प्रभु को महिमा देने वाला होता है।

 

कल हमने इन तीन में से पहले प्रयोजन - प्रभु के साथ-साथ रहने के बारे में देखना आरंभ किया था। निरंतर प्रभु के साथ बने रहना, और हर बात में, तथा हर बात के लिए प्रभु की इच्छा को जानकर कार्य करना ही मसीही विश्वासी की सही सेवकाई का सबसे महत्वपूर्ण आधार है। जो प्रभु के साथ रहेगा, वही प्रभु के साथ घनिष्ठ संबंध में भी रहेगा; और जो प्रभु के साथ घनिष्ठ होगा उस पर ही प्रभु अपनी इच्छा प्रकट करेगा, और उसी का मार्गदर्शन करेगा। इससे वह जन यह भी पहचानने पाएगा कि उसकी अपनी तथा प्रभु की समझ, सोच-विचार, और बुद्धिमत्ता में कितना अंतर है “क्योंकि यहोवा कहता है, मेरे विचार और तुम्हारे विचार एक समान नहीं है, न तुम्हारी गति और मेरी गति एक सी है। क्योंकि मेरी और तुम्हारी गति में और मेरे और तुम्हारे सोच विचारों में, आकाश और पृथ्वी का अन्तर है” (यशायाह 55:8-9)। इसीलिए प्रभु यीशु मसीह ने अपने शिष्यों से कहा, “तुम मुझ में बने रहो, और मैं तुम में: जैसे डाली यदि दाखलता में बनी न रहे, तो अपने आप से नहीं फल सकती, वैसे ही तुम भी यदि मुझ में बने न रहो तो नहीं फल सकते। मैं दाखलता हूं: तुम डालियां हो; जो मुझ में बना रहता है, और मैं उस में, वह बहुत फल फलता है, क्योंकि मुझ से अलग हो कर तुम कुछ भी नहीं कर सकते। यदि कोई मुझ में बना न रहे, तो वह डाली के समान फेंक दिया जाता, और सूख जाता है; और लोग उन्हें बटोरकर आग में झोंक देते हैं, और वे जल जाती हैं। यदि तुम मुझ में बने रहो, और मेरी बातें तुम में बनी रहें तो जो चाहो मांगो और वह तुम्हारे लिये हो जाएगा। मेरे पिता की महिमा इसी से होती है, कि तुम बहुत सा फल लाओ, तब ही तुम मेरे चेले ठहरोगे” (यूहन्ना 15:4-8)। यहाँ पर प्रभु द्वारा कही गई बात के प्रवाह और परिणाम पर ध्यान कीजिए। सच्चा शिष्य प्रभु में बना रहेगा, और उससे सामर्थ्य पाकर प्रभु के लिए फलवंत होगा, जो परमेश्वर की महिमा का कारण ठहरेगा, और उसके सच्चे शिष्य होने का प्रमाण भी। किन्तु जो प्रभु में बना नहीं रहता है, वह प्रभु के लिए फलवंत भी नहीं होता है, सूख जाता है, जो उसके प्रभु का सच्चा शिष्य नहीं होने का प्रमाण है, और उसे अलग हटाकर नाश कर दिया जाता है।

  

यूहन्ना से लिए गए उपरोक्त उदाहरण में एक बहुत महत्वपूर्ण बात निहित है - जो प्रभु में बना रहेगा, वह स्वतः ही प्रभु द्वारा पोषित और विकसित भी होता रहेगा। कोई भी पौधा हर समय फल नहीं लाता है, किन्तु जो जीवन के जल से संबंध में रहेगा, वह कभी भी सूखेगा नहीं वरन अपने समय और अपनी ऋतु में फल भी लाएगा “वह उस वृक्ष के समान है, जो बहती नालियों के किनारे लगाया गया है। और अपनी ऋतु में फलता है, और जिसके पत्ते कभी मुरझाते नहीं। इसलिये जो कुछ वह पुरुष करे वह सफल होता है” (भजन 1:3)। जो प्रभु में स्थापित रहता है, प्रभु के कहे के अनुसार करता है, प्रभु ही उसके कार्यों को सफल और फलवंत करता है “मैं ने लगाया, अपुल्लोस ने सींचा, परन्तु परमेश्वर ने बढ़ाया। इसलिये न तो लगाने वाला कुछ है, और न सींचने वाला, परन्तु परमेश्वर जो बढ़ाने वाला है” (1 कुरिन्थियों 3:6-7)। राजा सुलैमान ने कहा, “क्योंकि बुद्धि यहोवा ही देता है; ज्ञान और समझ की बातें उसी के मुंह से निकलती हैं” (नीतिवचन 2:6)। जब अपनी अक्षमता तथा प्रभु की सामर्थ्य और सक्षमता को ध्यान में रखते हुए मसीही विश्वासी प्रभु से अपने दायित्व के निर्वाह के लिए उपयुक्त बुद्धि एवं सामर्थ्य माँगता है, तो वह प्राप्त भी करता है। किन्तु जो प्रभु के निकट नहीं है, वह प्रभु और उसकी बातों और योजनाओं पर संदेह करेगा, प्रभु की कही गई बातों और दिए गए निर्देशों में अपने मन और समझ की बात मिलाना चाहेगा, और इसलिए प्रभु से कुछ प्राप्त नहीं कर सकेगा, जैसा कि याकूब ने लिखा है, “पर यदि तुम में से किसी को बुद्धि की घटी हो, तो परमेश्वर से मांगे, जो बिना उलाहना दिए सब को उदारता से देता है; और उसको दी जाएगी। पर विश्वास से मांगे, और कुछ सन्‍देह न करे; क्योंकि सन्‍देह करने वाला समुद्र की लहर के समान है जो हवा से बहती और उछलती है। ऐसा मनुष्य यह न समझे, कि मुझे प्रभु से कुछ मिलेगा। वह व्यक्ति दुचित्ता है, और अपनी सारी बातों में चंचल है” (याकूब 1:5-8)।


प्रभु के साथ यह घनिष्ठ संबंध प्रभु के वचन से प्रेम करने और उसके वचन में बने रहने से बनता है। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से कहा कि यदि वे उसके वचन में बने रहेंगे, तो यही प्रभु के प्रति उनके प्रेम का प्रमाण होगा, और उससे वास्तविक प्रेम करने वाले के पास प्रभु और पिता परमेश्वर आएंगे, और उसके साथ रहेंगे “जिस के पास मेरी आज्ञा है, और वह उन्हें मानता है, वही मुझ से प्रेम रखता है, और जो मुझ से प्रेम रखता है, उस से मेरा पिता प्रेम रखेगा, और मैं उस से प्रेम रखूंगा, और अपने आप को उस पर प्रगट करूंगा। यीशु ने उसको उत्तर दिया, यदि कोई मुझ से प्रेम रखे, तो वह मेरे वचन को मानेगा, और मेरा पिता उस से प्रेम रखेगा, और हम उसके पास आएंगे, और उसके साथ वास करेंगे” (यूहन्ना 14:21, 23)। इसलिए यदि आप अपना जीवन प्रभु यीशु मसीह के नाम में तो जी रहे हैं, किन्तु उसके साथ निरंतर एवं घनिष्ठ संबंध में स्थापित नहीं हैं, वरन अपनी अथवा अन्य मनुष्यों और मनुष्यों द्वारा बनाए गए मतों की ही सामर्थ्य, समझ, और शिक्षाओं अथवा युक्ति तथा योग्यता, के अनुसार जीते रहने का प्रयास करते रहें हैं, तो फिर आपको अपने जीवन में एक आमूल-चूल, एक मौलिक परिवर्तन करने की तात्कालिक आवश्यकता है। समय तथा अवसर के रहते आज ही, अभी ही, इस व्यर्थ एवं निष्फल धारणा एवं मान्यता से निकलकर प्रभु यीशु मसीह की वास्तविक शिष्यता में आ जाएं, और हर समय हर बात के लिए उसके साथ उसकी आज्ञाकारिता में बने रहने को निभाना आरंभ कर लें। कहीं ऐसा न हो कि जब परलोक में आँख खुले तब पता लगे कि आप अपनी ही जिन धारणाओं और मान्यताओं का सारे जीवन बड़ी निष्ठा से निर्वाह करते रहे उससे आपको कोई लाभ नहीं हुआ है, और अब उस गलती को सुधारने का कोई अवसर पास नहीं है; अब तो केवल अनन्तकाल का दण्ड ही मिलेगा।

 

किन्तु यदि आप अभी भी संसार के साथ और संसार के समान जी रहे हैं, या परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की मानसिकता में भरोसा रखे हुए हैं, तो आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • अय्यूब 34-35 

  • प्रेरितों 15:1-21

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English Translation 

 Christian Discipleship – Close Fellowship With the Lord

    We have seen in the previous articles that the life of a Christian Believer is a life of being useful for the Lord and actively involved in the Lord’s work. The Lord has a purpose for each and every one of His followers. According to the purpose determined by the Lord for a Believer, or for some special purpose given to a Believe, the Lord also gives the required gifts of the Holy Spirit; the description about this can be read from Romans chapter 12 and 1 Corinthians chapter 12. From Mark 3:13-15 we had seen that when the Lord Jesus chose the twelve apostles from amongst His followers, He had three purposes for them. These three purposes are generally applicable to every Christian Believer as well. In other words, these three purposes form the basis of any special activity the Lord determines for a Christian Believer, and that special activity becomes successful and glorifies the Lord, only when done in accordance with these three purposes.


In the previous article we had begun to see about the first of these three purposes, i.e., being with the Lord. To be always with the Lord, in everything and for everything, to know the will of the Lord, and only then do it is the most important factor of a successful Christian ministry. The one who remains with the Lord, will also be in a close fellowship with the Lord; and the Lord will reveal His will and provide guidance to the person who is close with Him. Through this, that person will also get to learn of the difference in the Lord’s and his own understanding, thoughts, and wisdom, “"For My thoughts are not your thoughts, Nor are your ways My ways," says the Lord. "For as the heavens are higher than the earth, So are My ways higher than your ways, And My thoughts than your thoughts” (Isaiah 55:8-9). It is because of this that the Lord Jesus has instructed His disciples, “Abide in Me, and I in you. As the branch cannot bear fruit of itself, unless it abides in the vine, neither can you, unless you abide in Me. I am the vine; you are the branches. He who abides in Me, and I in him, bears much fruit; for without Me you can do nothing. If anyone does not abide in Me, he is cast out as a branch and is withered; and they gather them and throw them into the fire, and they are burned. If you abide in Me, and My words abide in you, you will ask what you desire, and it shall be done for you. By this My Father is glorified, that you bear much fruit; so, you will be My disciples” (John 15:4-8). Pay attention to the flow and effects of what the Lord Jesus has said in this passage. The true disciple will remain with the Lord, will receive power from the Lord to be fruitful, which then will glorify the Lord God, and will be a proof of the person being a true disciple. But the one who does not remain with the Lord, he is not fruitful for the Lord, dries up, which is a proof of his not being the true disciple of the Lord, and he is removed and cast away.


There is a very important thing implied in this example taken from John’s gospel - he who is attached with the Lord, will also automatically be nourished by the Lord and continue to grow. No plant brings fruit all the time, but the plant in contact with the living waters will never wither or dry, but will bring fruits in its time and according to its season of bearing fruit “He shall be like a tree Planted by the rivers of water, That brings forth its fruit in its season, Whose leaf also shall not wither; And whatever he does shall prosper” (Psalm 1:3). The person who remains in close fellowship with the Lord, does everything according to the guidance of the Lord, the Lord makes his works successful and fruitful “I planted, Apollos watered, but God gave the increase. So then neither he who plants is anything, nor he who waters, but God who gives the increase” (1 Corinthians 3:6-7). King Solomon said, “For the Lord gives wisdom; From His mouth come knowledge and understanding” (Proverbs 2:6). When a Christian Believer, keeping in mind his own inabilities, and the power and abilities of God, asks God for the required understanding, power, and abilities for the fulfillment of his responsibilities, he receives them from the Lord. But the person who is not in close fellowship with the Lord, he will harbor doubts about the Lord and Lord’s plans, will try to mix his own thoughts and wisdom in the Lord’s instructions, and will not be able to receive anything from the Lord, as James has written, “If any of you lacks wisdom, let him ask of God, who gives to all liberally and without reproach, and it will be given to him. But let him ask in faith, with no doubting, for he who doubts is like a wave of the sea driven and tossed by the wind. For let not that man suppose that he will receive anything from the Lord; he is a double-minded man, unstable in all his ways” (James 1:5-8).


This close relationship with the Lord results from a love for God’s Word and abiding in God’s Word. The Lord has said to His disciples that if they abide in His Word, then this will be the proof of their love for the Lord; and he who truly loves the Lord, the Lord Jesus and God the Father will come to him and be with him “He who has My commandments and keeps them, it is he who loves Me. And he who loves Me will be loved by My Father, and I will love him and manifest Myself to him." Jesus answered and said to him, "If anyone loves Me, he will keep My word; and My Father will love him, and We will come to him and make Our home with him” (John 14:21, 23). Therefore, if you are living your life in the name of the Lord Jesus, but are not in a continual close fellowship with Him; instead, you are trying to live a life according to your own abilities and understanding, or are trusting in the strength, wisdom, and teachings of man-made sects and denominations and are trying to live according to their instructions, then you need to bring about a radical change in your life in favour of trusting in and living by the guidance of the Lord.


 If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Job 34-35 

  • Acts 15:1-21