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रविवार, 3 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 99 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 28

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पवित्र आत्मा से सीखना – 8

 

    प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर द्वारा, उसके उद्धार पाने के पल से ही, परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रदान किया गया है, मसीही जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा उसे निर्धारित की गई सेवकाई का निर्वाह करने के लिए, उस में उसका सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक बन कर सर्वदा निवास करे। परमेश्वर पवित्र आत्मा के भण्डारी होने के नाते, विश्वासियों को परमेश्वर के वचन में से उसकी सहायता और सेवाओं को योग्य रीति से उपयोग करना सीखना चाहिए। पवित्र आत्मा द्वारा विश्वासियों को सिखाई जाने वाली बातों में से एक है परमेश्वर का वचन, बाइबल। किन्तु बहुत ही कम विश्वासी उस से सीखते हैं, उस की बजाए, वे मनुष्यों और पुस्तकों से सीखने लगते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि पवित्र आत्मा से सीखने के लिए उस के प्रति एक अनुशासन की, समर्पण और प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है। मनुष्यों और उनकी रचनाओं से सीखने में कुछ खतरे होते हैं, क्योंकि, वह चाहे कितना भी भक्त और परमेश्वर के प्रति समर्पित जन क्यों न हो, लेकिन फिर भी वह गलती करने वाला और असिद्ध रहता है, और ये बातें उसके जीवन और कार्यों में कभी-कभी प्रकट होती ही रहती हैं। इसलिए गलती करने वाले और असिद्ध मनुष्यों और उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर निर्भर करने से विश्वासी गलतियों में पड़ने और शैतान द्वारा बहकाए जाने के खतरे में बना रहता है।

    हाल के कुछ लेखों में हम विश्वासियों द्वारा परमेश्वर का वचन पवित्र आत्मा की बजाए मनुष्यों से सीखने के बारे में विचार कर रहे हैं। कारणों में से एक है, कुछ विश्वासियों का कुछ अगुवों और प्रचारकों को बहुत आदर-समान का स्तर देकर, उन पर अँध-विश्वास करते हुए, उन की कही गई हर बात को, बिना पहले बाइबल से जाँचे-परखे, यूँ ही स्वीकार कर लेना, और उसका पालन करने लगने की दृढ़ प्रवृत्ति रखना। उनका यह ढिठाई से मनुष्यों का अनुसरण का रवैया, उन्हें अपरिपक्व और शारीरिक मसीही बना देता है (1 कुरिन्थियों 3:3-4)। ऐसे विश्वासी ‘दूध’ के सिवाए, और कुछ भी नहीं पचा पाते हैं; अर्थात, मसीहीयत के आधारभूत सिद्धान्तों से परे और कुछ भी स्वीकार करने और सीखने नहीं पाते हैं। पिछले लेख में हम इस स्थान पर आकर रुके थे कि उनके इस ढीठ रवैये के कारण और कठोरता हो कर सुधरने की कोई इच्छा नहीं रखने के कारण, पवित्र आत्मा को पीछे हटना पड़ता है, और उन्हें उन के चुने हुए साधनों पर छोड़ देना पड़ता है। किन्तु क्योंकि परमेश्वर प्रेम और धैर्य रखने वाला परमेश्वर है, वह उन्हें त्याग नहीं देता है, वरन उन्हें केवल ‘दूध’ जिसे वे पचा सकते हैं देता रहता है; किन्तु मसीही विश्वास तथा परमेश्वर के वचन में उनकी शिक्षा इस से आगे नहीं बढ़ने पाती है। आज हम यहाँ से आगे बढ़ेंगे।

    यह ‘दूध’, आधारभूत बातें, अर्थात वे आरंभिक सिद्धान्त, जिन्हें नए विश्वासियों को जानना और सीखना चाहिए, हमें इब्रानीयों 6:1-2 में दिए गए हैं, “इसलिये आओ मसीह की शिक्षा की आरम्भ की बातों को छोड़ कर, हम सिद्धता की ओर आगे बढ़ते जाएं, और मरे हुए कामों से मन फिराने, और परमेश्वर पर विश्वास करने।और बपतिस्मों और हाथ रखने, और मरे हुओं के जी उठने, और अन्‍तिम न्याय की शिक्षारूपी नेव, फिर से न डालें।” ये संख्या में छः हैं, और पश्चाताप से लेकर अन्तिम न्याय तक का सारा क्रम इन में पाया जाता है। इब्रानीयों 5:12 से प्रतीत होता है कि उस समय में मसीही विश्वास की इन आरंभ की बातों का सिखाया जाना निर्धारित कार्य होता था। लेकिन दुःख की बात है कि आज अधिकांश मसीही, चाहे उन्हें नया जन्म पाए हुए कई वर्ष ही क्यों न हो गए हों, इन के बारे शायद ही कुछ जानते हैं। इसलिए, इन छः बातों को प्रत्येक मसीही को सिखाया जाना निर्धारित पाठ्यक्रम होना चाहिए।

    इब्रानीयों 5:11-12 हमारे सामने कुछ महत्वपूर्ण बातें लाता है:

  • पहली, क्योंकि इब्रानीयों की पत्री के पाठक उन्हें सिखाई गई इन आरंभ की बातों के बारे में भूल गए थे, इसलिए उन का अपने मसीही जीवनों में बढ़ना और परिपक्व होना रुक गया था। यदि वे उन सिद्धांतों का पालन करते रहते, तो यह आशा की जाती थी कि वे ‘शिक्षक’ हो जाते और ‘ठोस भोजन’, या अन्न खाने और पचाने वाले परिपक्व जन बन जाते।

  • दूसरी, मसीही जीवन में बढ़ोतरी और परिपक्वता विश्वास में आने से ले कर अभी तक के बीते समय के आधार पर नहीं है, बल्कि विश्वासियों के रवैये और व्यवहार के आधार पर है। प्रेरित पौलुस अपने युवा शिष्य तीमुथियुस को इफसुस की कलीसिया में गलतियों को सुधारने के लिए अकेला छोड़ सका (1 तीमुथियुस 1:3-4)। जिन मसीही विश्वासियों के जीवन में डाह, झगड़े, और विभाजन है, वे बाइबल के मानकों के अनुसार अभी भी अपरिपक्व और शारीरिक विश्वासी हैं (1 कुरिन्थियों 3:3)। इस से कोई अन्तर नहीं पड़ता है कि वे विश्वास में चाहे कितने भी लंबे समय से क्यों न हों, विश्वासियों में उनका स्तर चाहे कुछ भी हो, और परमेश्वर के वचन के बारे में वे चाहे कितना भी ज्ञान क्यों न रखते हों। इसलिए वे केवल इन छः आरंभिक सिद्धांतों को ही सीखने, स्वीकार करने, और समझने भर की क्षमता रखते हैं।

  • तीसरा, मसीही विश्वासियों के लिए ‘ठोस भोजन’ या अन्न, जैसा कि यहाँ इब्रानीयों 5:12 में लिखा है और प्रेरित पौलुस ने 1 कुरिन्थियों 3:2 में कहा है, परमेश्वर के वचन की वो शिक्षाएँ और दर्शन हैं जो इब्रानीयों 6:1-2 में कही गई इन छः बातों से अधिक गूढ़ और गंभीर हैं, उदाहरण के लिए मसीह की सेवकाई और मलिकिसिदक (इब्रानीयों 5:10)।

  • चौथा, इन आरंभिक बातों को भूल जाना, इनके प्रति लापरवाह होना, इनकी अनदेखी करना, मसीही विश्वासी को अपरिपक्व बना देता है, उसे परमेश्वर के वचन की गूढ़ बातों को ग्रहण करने और समझने के अयोग्य कर देता है, और उसे ठोस भोजन नहीं बल्कि लौट कर फिर से केवल ‘दूध’ लेने वाला बना देता है। क्योंकि तब वह ऊँचा सुनने लगता है और उसे समझा पाना कठिन हो जाता है (इब्रानीयों 5:11)।

    हम अगले लेख में यहाँ से और आगे चलेंगे तथा देखेंगे। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation

Learning from the Holy Spirit – 8

 

    The Holy Spirit of God, has been given to every Christian Believer by God at the moment of his salvation, to always reside in him as his Helper, Companion, Teacher, and Guide for living his Christian life and fulfilling his God assigned ministry responsibilities. As stewards of the Holy Spirit, the Believers have to learn from God’s Word to utilize His help and services worthily. One of the things the Holy Spirit teaches to the Believers is God’s Word, the Bible. But not many Believers learn from Him, instead, they turn to learning from men and books. This is because learning from the Holy Spirit requires a discipline, commitment, and obedience to Him. Learning from man and his works has its dangers, since no man, no matter how godly and committed to God he may be, but he is still fallible and imperfect, and this keeps showing up every now and then in his life and works. Therefore, relying upon fallible, imperfect men and the books written by them leaves the Believers open to falling into errors and being misled by Satan.

    In the recent articles, we have been considering about Believers learning God’s Word not from the Holy Spirit, but from men. One of the reasons is some Believers holding some leaders and preachers in very high esteem, and having an obstinate tendency to blindly accept and follow whatever they say and teach, without first evaluating and verifying it from the Bible. This strong attitude of following men, makes those Believers immature and carnal Christians (1 Corinthians 3:3-4). Such Believers are incapable of digesting anything but ‘milk’, i.e., incapable of accepting and learning anything beyond the basic elementary principles of Christianity. In the last article we had stopped at the point that because of this stubborn attitude, and being resistant to corrections, the Holy Spirit has to step back in the lives of such Believers, and leave them to their own chosen devices. God being a God of love, being long-suffering, He does not abandon them, but keeps on feeding them with the ‘milk’ that they can take and digest; but their learning in Christian faith and Word of God does not go beyond this. Today we will carry on about this from this point onwards.

    This ‘milk’, the basics, i.e., the elementary principles that the beginners need to know and learn, are given to us in Hebrews 6:1-2, “Therefore, leaving the discussion of the elementary principles of Christ, let us go on to perfection, not laying again the foundation of repentance from dead works and of faith toward God, of the doctrine of baptisms, of laying on of hands, of resurrection of the dead, and of eternal judgment.” They are six in number, and cover the whole spectrum from repentance up to eternal judgement. In other words, all the aspects of Christian life are covered in these six topics. From Hebrews 5:12, it seems that teaching these elementary principles was then the standard practice. But sadly speaking, today most Christians, despite being Born-Again Believers for many years, know hardly anything significant about them. Hence these six principles ought to be the standard teaching and learning curriculum for all Christians.

    Hebrews 5:11-12 brings some important points before us:

  • Firstly, Because the recipients of the letter to Hebrews had forgotten what they had been taught about these elementary principles, therefore they had stopped growing and maturing in their Christian lives. Had they continued to follow these principles, the expectation was that they would have become ‘teachers’ and matured to be those who would take and digest ‘solid food.’

  • Secondly, Christian growth and maturity is not according to the time one has been in the faith, but by attitudes and behaviour of the Believers. The Apostle Paul could leave Timothy his young pupil alone, to correct the errors in the Church at Ephesus (1 Timothy 1:3-4). The Christian Believers who have envy, strife, and divisions in their lives, by Biblical standards, they are still immature and carnal Christians (1 Corinthians 3:3), however long they might have been in the faith, no matter what their status may be amongst the Believers, and howsoever knowledgeable they may be about God’s Word. Therefore, they are only capable of learning, accepting, and understanding things related to these six elementary principles.

  • Thirdly, the ‘solid food’ for the Christian Believers, as written here in Hebrew 5:12, and as the Apostle Paul has said in 1 Corinthians 3:2, are teachings and expositions of God’s Word that are deeper and more profound than what is covered in these six elementary principles that  are stated in Hebrews 6:1-2; e.g., things about Christ’s ministry and Melchizedek (Hebrews 5:10).

  • Fourthly, forgetting, or overlooking, or ignoring these basic elementary principles, leads to loss of maturity in the Christian Believer, rendering him incapable of receiving and understanding the deeper things of God’s Word, and reverting him to requiring being fed only by milk, not solid food. Since then they become dull of hearing, and it becomes something hard to explain to them (Hebrews 5:11).

    We will carry on further about this in the next article. If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

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