प्रायः मत्ती 24:13 और मरकुस 13:13 से यह अभिप्राय लिया, समझा, और सिखाया जाता है कि व्यक्ति द्वारा परीक्षा में सहते रहने और धीरज धरे रहने वह उद्धार पाने के योग्य माना जाता है। इस बात का फिर यह तात्पर्य निकलता है कि व्यक्ति का उद्धार उसके कर्मों पर निर्भर करता है। किन्तु यह कहना तो बाइबल के इस आधारभूत सिद्धान्त और शिक्षा के विरुद्ध जाता है कि उद्धार केवल मसीह यीशु पर लाए गए विश्वास के आधार पर परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा है, अन्य किसी भी प्रकार के कर्मों के कारण नहीं।
हम इन दोनों
पदों के पीछे के विचार को मत्ती रचित सुसमाचार के दो खण्डों के द्वारा समझ सकते
हैं। पहला खण्ड है मत्ती 13:24-30 – अच्छे और बुरे बीज का दृष्टान्त; और दूसरा
खण्ड है मत्ती 3:11-12 – यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के द्वारा लोगों को आने वाले
मसीहा, प्रभु यीशु का परिचय।
अच्छे और
बुरे बीज के दृष्टांत में, खेत का स्वामी आरम्भ ही से बुरे बीज के पौधों, और उनके
अन्त के बारे में जानता था – कटनी के समय वे अच्छे बीज से अलग किए जाएंगे और जलाने
के लिए भेज दिए जाएँगे। वह इस पूर्व-निर्धारित कार्य को करने के लिए केवल उचित समय
की प्रतीक्षा कर रहा था। क्योंकि उन बुरे बीज के पौधों को खेत में बने रहने दिया
गया, उन्हें अच्छे बीज के
पौधों के साथ देखभाल, सुरक्षा, पाने, खद, आदि भी मिलते रहे, उससे वे कभी भी स्वामी द्वारा बोए गए “अच्छे बीज” के समान नहीं बन गए।
अन्ततः उनका विनाश तो आरंभ से ही तय था, केवल उचित
समय की प्रतीक्षा थी। इस बात पर मत्ती 7:21-23 “जो मुझ
से, हे प्रभु, हे प्रभु कहता है, उन में से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है। उस
दिन बहुतेरे मुझ से कहेंगे; हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से
भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं
को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत अचम्भे
के काम नहीं किए? तब मैं उन से खुलकर कह दूंगा कि मैं ने तुम को कभी नहीं जाना, हे कुकर्म करने वालों, मेरे पास से चले जाओ”; तथा 2 तीमुथियुस 2:19
“तौभी परमेश्वर की पड़ी नेव बनी रहती है, और उस पर यह छाप लगी है, कि प्रभु अपनों को पहचानता
है; और जो कोई प्रभु का नाम लेता है, वह अधर्म से बचा रहे” के साथ विचार कीजिए।
लोग अपनी
धार्मिकता, कार्यों, प्रचार, और बाहरी
स्वरूप आदि के द्वारा हमें धोखा दे सकते हैं लेकिन वे कभी भी प्रभु को धोखा नहीं
देने पाएँगे, और न ही
अपने ही बनाए हुए तरीकों और बातों से उसे स्वीकार्य होने पाएँगे, अथवा उसके समीप आने पाएँगे। परमेश्वर तक पहुँचने का
एकमात्र मार्ग प्रभु यीशु मसीह है (यूहन्ना 14:6; प्रेरितों 4:12)। इसीलिए पौलुस 1 कुरिन्थियों
4:5 में किसी भी व्यक्ति के उद्धार की दशा के विषय धैर्य रखने और जल्दबाजी में कोई
भी निर्णय नहीं करने के लिए लिखता है। प्रभु परमेश्वर का न्याय सिद्ध और निष्पक्ष है,
उसकी कोई आलोचना नहीं हो सकती है, उसे ही अपने
समय में प्रत्येक की वास्तविक दशा को प्रकट करने दें। इन कठिनाइयों, क्लेषों, और
परीक्षाओं में से होकर निकलने वालों में से कौन प्रभु के जन हैं, और कौन नहीं, प्रभु को
पहले से ही पता है। किसी के भी कोई भी कर्म उसे प्रभु का जन नहीं बनाते हैं।
अब दूसरे
उदाहरण,मत्ती 3:11-12 को लीजिए।
यहाँ पर, पद 12 में, यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला प्रभु यीशु के बारे में बात
करते हुए कहता है कि उसका सूप उसके हाथ में है, वह अपने खलिहान को अच्छे से साफ़ करेगा, और तब गेहूँ को अपने खत्ते में जमा करेगा। जिस समय यह लिखा गया था, उनके पास वे मशीनें नहीं होती थीं जो आज हैं, जिनसे खेतों की कटाई, आटे वाले गेहूँ के ठोस दानों का अलग किया जाना और भूसी का अलग कर देना होता
है। उन दिनों में, जैसे कि आज
भी संसार के कई स्थानों पर विकासशील देशों में होता है, कटनी के बाद गेहूँ के पौधों को खेत में से खलिहान में लाया जाता था, और फिर उसे बैलों या अन्य खेती के पशुओं के पैरों तले बारंबार
कुचला जाता था, जिसे दावना कहते थे (1 कुरिन्थियों 9:9)। इस कुचले जाने के कारण गेहूँ
के दानों पर से भूसी रगड़ कर अलग हो जाती थी। फिर दानों को एक ओर तथा भूसी को अलग
कर दिया जाता था। भूसी जलाने के लिए ले जाई जाती थी, और दाने अगली छँटाई और सफाई के लिए ले जाए जाते थे।
अगली छंटाई
और सफाई सूप के द्वारा की जाती थी। दानों को थोड़ा-थोड़ा लेकर सूप में अच्छे से फटका
जाता था, और फिर हिलाते हुए
ऊँचाई से उसे धीरे-धीरे करके धरती पर गिराया जाता था। बहती हुई हवा से थोथे दाने
और हल्की चीज़ें उड़कर कुछ दूर चली जाती थीं, और ठोस, आटे वाला
गेहूँ, अपने वज़न के कारण वहीं
सफाई करने वाले के पाँव के पास गिर जाता था जिसे फिर खत्ते में जमा कर के रख दिया
जाता था। ये सारी प्रक्रियाएं इस अच्छे दाने को व्यर्थ से लग करने और खत्ते में
बचा लेने के लिए की जाती थीं। इसे यदि प्रासंगिक शब्दों में कहें, केवल वही दाना जो ठोस होता था, जिस में आटा भरा होता था, इस सारे
कुचले जाने, फटके जाने, झकझोरे जाने और गिराए जाने को सहन करते हुए भी सुरक्षित
बचा रहता था, शेष सभी
जलाए जाएँ के लिए चले जाते थे।
1 पतरस 1:5
को देखिए – जो वास्तव में परमेश्वर के लोग हैं उन्हें आने वाले समयों के लिए सभी
परीक्षाओं और परिस्थितियों में भी, विश्वास के
द्वारा परमेश्वर की सामर्थ्य सुरक्षित बनाए रखती है। उनकी अनन्तकालीन सुरक्षा उनके
किसी बात को सहने और कोई कर्म करने के कारण नहीं है, किन्तु उनमें विद्यमान परमेश्वर की सामर्थ्य के कारण है, जो उन्हें सभी परीक्षाओं में स्थिर और सुरक्षित बनाए
रखती है। उनका अन्त तक धीरज धरे रहना, विश्वास में
स्थिर बने रहना, उनकी
वास्तविक आत्मिक स्थिति का प्रमाण है। जिनमें परमेश्वर की यह सामर्थ्य नहीं है वे
इस पूरी प्रक्रिया के दौरान,किसी न किसी
चरण में असफल हो जाएँगे, अपनी
वास्तविक स्थिति को प्रकट कर देंगे, और अन्ततः
उस विनाश के लिए चले जाएंगे जिसके लिए वे पहले से ठहराए गए हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Matthew 24:13 and Mark
13:13 are often interpreted, understood,
and taught to mean that it is the person’s persistent
endurance in trials and tribulations that will qualify him or her for
salvation. This implies that a person’ salvation is based on his works; which
is contrary to the fundamental Biblical doctrine and teaching of salvation only by the
grace of God through faith in the Lord Jesus, and not through any works of any
kind.
We can understand the
thought behind these two verses through two passages from
Matthew. One is Matthew 13:24-30 - the parable of the good seed and tares; and
the second is John the Baptist’s introduction to the people of the coming Messiah,
the Lord Jesus, in Matthew 3:11-12.
In the parable of the
good seed and the tares, the owner of the field knew from the very beginning
about the tares, and their eventual state – at harvest time they will be separated
from the good seed and sent to be burnt in fire. He was only waiting for the
right time to have this pre-ordained event implemented. Just because the tares
too were permitted to continue in the field and also received the care,
protection, watering, manuring etc. just as the good seed did during their
lifetime, that never made them the same as the “good seed” which the owner of
the field had sown. The eventual destruction of the tares was determined from
the beginning, and was only biding time. Ponder over this with Matthew 7:21-23
"Not everyone who says to Me, 'Lord, Lord,' shall enter the kingdom of
heaven, but he who does the will of My Father in heaven. Many will say to Me in
that day, 'Lord, Lord, have we not prophesied in Your name, cast out demons in
Your name, and done many wonders in Your name?' And then I will declare to
them, 'I never knew you; depart from Me, you who practice lawlessness!'”; and
2 Timothy 2:19 “Nevertheless the solid foundation of God stands, having this
seal: "The Lord knows those who are His," and, "Let everyone who
names the name of Christ depart from iniquity."”
People may fool us by
their religiosity, works, preaching, and external appearances etc. but they
will never fool the Lord, nor gain His acceptance through their self-devised
means and methods to approach Him. The one and only way to God is the Lord Jesus
Christ (John 14:6; Acts 4:12). Therefore, Paul asks to exercise patience and
not hurry in coming to conclusions about anyone’s state of salvation (1
Corinthians 4:5). The Lord’s judgements are perfect and impeccable, leave all
judgment to Him; let Him, in His time reveal the true state of everyone. The
Lord knows before hand who amongst those passing through the various trials,
tribulations, and problems, are actually His people and who is not; no one can
become the Lord’s people through any kind of works.
Now, take the second
example of Matthew 3:11-12. Here, in verse 12, John the Baptist, speaking about
the Lord Jesus, says that He will first winnow and clean His threshing floor,
and then gather the wheat into His barn. At the time this was written, they did
not have the equipment we now have to harvest the fields and separate the wheat
from the chaff, and then extract the solid grain from the one without flour in
it for gathering and discarding the rest. At that time, as even now at many
places of the world in the developing countries, the wheat was brought from the
field to the threshing floor, and was spread out on the ground for repeatedly being
crushed under the feet of bullocks or farm animals, called the treading out of
the grain (1 Corinthians 9:9). This crushing would abrade the chaff off the
grain, and then the chaff was separated and gathered to one side to be burnt,
while the grain was taken for further filtering and cleaning.
The second filtering was
done by “winnowing” it, i.e., thoroughly shaking it and slowly allowing it to
fall to the ground bit by bit from a height, so that the weighty grain stays
behind while the lighter one, the one that does not have flour in it, and other
impurities are separated out and removed. The breeze would carry the light part
not having flour in it some distance away while the weighty grain with flour in
it, because of its solid substance, would not get blown away but fall near the
feet of the one winnowing it. So eventually that which fell at the feet of the
winnower was the grain that actually had the flour in it. The various processes
were meant to eventually separate this good grain out from the “waste” material.
To put it in relevant words, only the grain with flour in it could “endure''
all of the crushing, sifting, winnowing and only it was eventually “saved” from
being sent for burning.
See 1 Peter 1:5 - God’s
actual people are being kept or safe-guarded by the power of God through faith
for salvation i.e., to be saved. These are the ones like the “worthwhile”
grain, the one that endured everything and came out safe. These genuine people
of God will endure everything, and eventually come out safe, will be saved into
the Kingdom of God. Their eternal safety and security is not because of
anything they do or endure, but because of God’s power in them that will keep
them safe, and able to endure everything. Their endurance to the end testifies
of their true spiritual state. Those not having this power of God will
eventually succumb to something or the other while passing through these
various trials and tribulations, and reveal their true state, and eventually
will go into the fire to be burnt forever, for which they have been destined beforehand.
So, Matthew 24:13 and Mark
13:13 are not about people saving themselves by their works and endurance, but
about God’s people having an inherent ability of enduring everything and coming
out victorious as the saved ones by the power of God already present and
working in them. Also, god already knows the reality about each and every person; He knows who will go where eventually. He is only waiting for the appropriate time to send them to their rightful place. For some more thoughts, you can also see this link: https://www.gotquestions.org/endures-to-the-end-saved.html