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शुक्रवार, 15 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 111 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 40

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पवित्र आत्मा से सीखना – 20

 

    परमेश्वर के पवित्र आत्मा, जो उन्हें उनके उद्धार पाने के क्षण से ही दे दिया जाता है, के भण्डारी होने के नाते, विश्वासियों को उस से सीखना है, न केवल परमेश्वर के वचन बाइबल को, बल्कि परमेश्वर द्वारा विश्वासी को दिए गए अन्य सँसाधनों के बारे में भी, जिनमें पवित्र आत्मा भी सम्मिलित है। पवित्र आत्मा, प्रत्येक मसीही विश्वासी को उसका मसीही जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई का सही निर्वाह करने में उसका सहायक और मार्गदर्शक होने के लिए दिया गया है; क्योंकि वही विश्वासी का सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक है। लेकिन जैसा हमने पिछले लेखों में देखा है, वे लोग जो उनके जीवनों में पवित्र आत्मा की सेवकाई की अनदेखी करते हैं और उसके योग्य भण्डारी होने के लिए उचित प्रयास नहीं करते हैं, वे मनुष्यों से परमेश्वर के वचन को सीखने पर निर्भर होते हैं, और अपने आप को झूठी शिक्षाओं तथा गलत सिद्धान्तों में फँसाने के खतरे में फँसाए रखते हैं। पिछले लेख से हमने 1 कुरिन्थियों 2:12-14 से  पवित्र आत्मा से सीखने के बारे में देखना आरंभ किया है, और पद 12 पर विचार कर रहे हैं। आज भी हम पद 12 पर विचार करना ज़ारी रखेंगे, पवित्र आत्मा से सीखने के बारे में सीखने के लिए।

    पौलुस, पद 12 के आरंभ में यह बल देकर कहता है कि विश्वासियों ने पवित्र आत्मा ‘पाया’ है; तात्पर्य यह कि न तो उन्होंने उसे किसे कार्य के द्वारा कमाया है और न ही किसी रीति से प्राप्त किया है; परमेश्वर का पवित्र आत्मा उन्हें दिया गया है। फिर पौलुस यह स्पष्ट करता है कि वह किस आत्मा के बारे में बात कर रहा है, “संसार की आत्मा नहीं, परन्तु वह आत्मा पाया है, जो परमेश्वर की ओर से है।” क्योंकि उसकी इस पत्री के पाठकों में पवित्र आत्मा निवास करता है, इस आधार पर पौलुस फिर एक दूसरी बात कहता है; ऐसी बात जिसे प्रत्येक मसीही विश्वासी को समझना तथा अपने जीवन में लागू करना चाहिए। पौलुस की यह दूसरी बात है कि प्रत्येक मसीही विश्वासी से यह अपेक्षा रखी गई है कि परमेश्वर ने उन्हें जो कुछ सेंत-मेंत में, अनुग्रहपूर्वक दिया है, वे उसके बारे में जानें और सीखें। उन से यह अपेक्षा कोई विकल्प नहीं है, वरन अनिवार्य है, उन में पवित्र आत्मा की उपस्थिति पर आधारित है। वह न केवल उनके लिए परमेश्वर के वचन का, वरन परमेश्वर द्वारा दी गई वस्तुओं का भी शिक्षक है। मसीही विश्वासी इस से अपने व्यावहारिक मसीही जीवन के लिए कुछ महत्वपूर्ण पाठ सीख सकते हैं:

  • परमेश्वर द्वारा दी गई बातों को यूँ ही हलके में, लापरवाही के साथ नहीं लेना है; कोई भी विश्वासी उन बातों के बारे में अनुत्तरदायी या उदासीन नहीं हो सकता है। विश्वासियों को उनके बारे में सीखना है, उनकी देख-भाल करनी है, और उन्हें उचित रीति से उपयोग में लाना है; वे एक तरह से ‘सावधानी से व्यवहार करें’ वाली वस्तुएँ हैं। वे परमेश्वर द्वारा विश्वासियों को एक उद्देश्य से दी गई हैं, उन्हें व्यर्थ अथवा अनुपयोगी नहीं समझा जा सकता है। उन्हें प्रदान करने वाले के गौरव और हस्ती का आदर रखते हुए, उन्हें ऐसी रीते से उपयोग में लाना है कि उस से देने वाले, अर्थात परमेश्वर, को महिमा मिले। इसलिए प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए यह अनिवार्य है कि जो भी परमेश्वर ने उसे दिया है, वह उसके बारे में सीखे, यह जाने कि वह उसे क्यों दिया गया है, और समझे कि उसे दिए जाने के उद्देश्य को कैसे पूरा करना है, और उसके अनुसार अपने मसीही जीवन में तथा मसीही सेवकाई में उस वरदान को उचित रीति से उपयोग करे।

  • क्योंकि, परमेश्वर द्वारा दी गई बातों के बारे में जानने पर दिया गया बल, विश्वासी में पवित्र आत्मा की उपस्थिति पर आधारित है, और यह विशेष रीति से कहा गया है कि विश्वासियों को जो आत्मा दिया गया है वह सँसार का आत्मा नहीं है, इसलिए इस से यह तात्पर्य आता है कि कोई भी साँसारिक या मानवीय आत्मा इस कार्य, विश्वासियों को परमेश्वर द्वारा दी गई बातों के बारे में सिखाना, को नहीं कर सकता है। इसलिए, परमेश्वर द्वारा दिए गए सँसाधनों के बारे में सीखने के लिए साँसारिक साधनों और तरीकों, या मनुष्यों पर भरोसा रखना, उन पर निर्भर रहना, न केवल व्यर्थ है, बल्कि परमेश्वर के वचन के प्रति अविश्वासी होना भी है, क्योंकि वचन जिस का हो पाना संभव नहीं कहता है, उसे ही करने के प्रयास करना है।

  • क्योंकि प्रत्येक मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा निवास करता है, इसलिए किसी भी ‘सँसार के आत्मा’ पर भरोसा रखने की बजाए, अर्थात पवित्र आत्मा के अतिरिक्त किसी भी अन्य पर निर्भर होने की बजाए, विश्वासी को परमेश्वर के वचन के मूल लेखक, पवित्र आत्मा से ही सीखना है, जो विश्वासी को परमेश्वर द्वारा दिया गया शिक्षक, सहायक, और मार्गदर्शक है। पवित्र आत्मा से सीखने की अनदेखी कर के, मनुष्यों और उनकी रचनाओं से सीखने के पीछे जाना, पवित्र आत्मा को नीचा दिखाना, परमेश्वर का अपमान करना, और उसका अनाज्ञाकारी होना है।

    अगले लेख में हम यहाँ से आगे बढ़ेंगे, और पद 13 पर विचार आरंभ करेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation

Learning from the Holy Spirit – 20

 

    As stewards of God’s Holy Spirit, given at the moment of their salvation to every Christian Believer by God, the Believers have to learn from Him, not only the Word of God, the Bible, but also about God’s other provisions to the Believer, including the Holy Spirit Himself. The Holy Spirit has been given to every Christian Believer to help and guide him in living his Christian life and fulfil his God given ministry; since He is their Helper, Companion, Teacher, and Guide. But, as we have seen in the previous articles, those who disregard the ministry of the Holy Spirit in their lives and do not make the efforts to serve as His worthy stewards, tend to rely upon learning God’s Word from men, and become prone to falling into many false teachings and wrong doctrines. Since the last article, we have started considering about learning from the Holy Spirit from 1 Corinthians 2:12-14, and are pondering over verse 12. Today we will continue looking at verse 12, to learn about learning from the Holy Spirit.

    At the beginning of verse 12 Paul asserts that the Believers have ‘received’ by implication, not earned or acquired in any way God’s Holy Spirit. Paul then makes clear what spirit he is talking about, “not the spirit of the world, but the Spirit who is from God.” Since the readers of his letter, the Christian Believers, have the Holy Spirit residing in them, Paul then makes a second assertion, one that every Christian Believer needs to understand and apply in his life. Paul’s second assertion is that “that we might know the things that have been freely given to us by God.” In other words, it is expected from Christian Believers that they know, they learn about the things that God has freely given to them. This expectation is not an option, but is mandatory, is based on the presence of the Holy Spirit in them. He is not only their Teacher of God’s Word, about also about the provisions of God in their lives. The Believers can draw some important lessons from this for their practical Christian living:

  • Things given by God are not to be taken casually, nor treated lightly; no Believer can be careless or unconcerned about them. They should be learnt about, cared for, and appropriately utilized by the Believers, ‘handled with care’ so to say. They have been given to the Believers by God for a purpose, they cannot be taken for granted, and in deference to the honor and stature of the person who has given them, they must be used in a manner that will glorify the giver, i.e., God. Hence it is essential that every Christian Believer learns about all that God has given him, learn why it has been given, learn how to fulfil that purpose, and how put that gift to good use in their Christian living and for fulfilling their God given ministry.

  • Because this assertion of knowing about the things given by God, has been made based on the presence of the Holy Spirit in the Believer, and it has been specifically pointed out that the Spirit given to them is not the spirit of the world, therefore, it implies that no worldly or human spirit can fulfil this function, of making known to the Believers about the things given to them by God. Hence, it is not only futile to try and learn about God’s provisions from worldly sources and means, from men; but it is not only vain but is also being disbelieving to God’s Word, by attempting to do what it says cannot be done.

  • Since every Believer has the Holy Spirit residing in him, therefore instead of relying on any ‘spirit of the world’ i.e., anything or anyone other than the Holy Spirit, the Believer must learn from Holy Spirit – the actual author of God’s Word, the Teacher, Helper, and Guide given by God to every Believer. To ignore learning from the Holy Spirit, and going after learning from men and their works, is demeaning the Holy Spirit, insulting God, being disobedient to Him.

    In the next article, we will carry on from here and take up verse 13 for consideration.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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