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पाप का समाधान - उद्धार - 21
पिछले लेखों में हम देखते आ रहे हैं कि मनुष्य के पाप से उत्पन्न हुई स्थिति के समाधान और निवारण के लिए एक ऐसे सिद्ध मनुष्य की आवश्यकता थी जो परमेश्वर के पूर्ण आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करे, और सभी के पापों के लिए अपने आप को स्वेच्छा से बलिदान करके, उनके लिए मृत्यु को सह ले। किन्तु उसे मृत्यु को पराजित भी करना था, अर्थात मृतकों में से लौट कर आना था, जिससे मनुष्यों पर से मृत्यु की पकड़ मिट जाए, और फिर उसके द्वारा दिए गए अपने बलिदान, अपने पुनरुत्थान, और मृत्यु पर विजय को सारे संसार के सभी मनुष्यों के साथ सेंत-मेंत बांटने को तैयार हो। अभी तक हमने देखा कि प्रभु यीशु मसीह ही वह एकमात्र ऐसा निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र, सिद्ध मनुष्य था जिसने अपने पृथ्वी के जीवन में इन सभी आवश्यक बातों को पूरा किया, और मृतकों में से जी भी उठा।
आज हम परमेश्वर के वचन बाइबल से देखेंगे कि प्रभु यीशु ने अपने जीवन, बलिदान, और पुनरुत्थान के लाभ को सेंत-मेंत समस्त मानवजाति को उपलब्ध भी करवा दिया है। उसने अपने लिए कुछ नहीं रख छोड़ा, अपना सब कुछ हम पापी मनुष्यों के प्रति अपने प्रेम के अंतर्गत न्योछावर कर दिया। यह हम पापी मनुष्यों के प्रति उसका अनुग्रह है, अर्थात उसकी वह भलाई है, जिसके हम योग्य नहीं हैं, और न ही जिसे कभी अपने किसी धर्म-कर्म, रीतियों, और धार्मिकता के कार्यों के द्वारा कमा सकते हैं। भला एक पापी मनुष्य कुछ भी कर ले, किन्तु क्या वह कभी भी एक निर्दोष, निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र मनुष्य से बढ़कर योग्य हो सकता है? क्या पापी मनुष्य उस सिद्ध के द्वारा अपने प्राणों के एक भयानक, वीभत्स, अत्यंत यातनाएँ सहते हुए दिए गए बलिदान की कोई कीमत लगा सकता है; और फिर उस कीमत को चुकाने के योग्य हो सकता है? मनुष्य केवल प्रभु यीशु के कार्य को कृतज्ञ और धन्यवादी होकर एक भेंट के रूप में स्वीकार ही कर सकता है; उसे किसी भी रीति से प्रभु से खरीद नहीं सकता है, प्रभु के कार्य के प्रत्युत्तर में उसके समान या उससे बढ़कर कुछ ऐसा नहीं कर सकता है जिसके सहारे वह फिर प्रभु के कार्य के लाभों कीमत चुका कर उससे उसको प्राप्त कर सके।
परमेश्वर के वचन बाइबल में लिखे इन पदों पर ध्यान कीजिए: “पर जैसा अपराध की दशा है, वैसी अनुग्रह के वरदान की नहीं, क्योंकि जब एक मनुष्य के अपराध से बहुत लोग मरे, तो परमेश्वर का अनुग्रह और उसका जो दान एक मनुष्य के, अर्थात यीशु मसीह के अनुग्रह से हुआ बहुतेरे लोगों पर अवश्य ही अधिकाई से हुआ। और जैसा एक मनुष्य के पाप करने का फल हुआ, वैसा ही दान की दशा नहीं, क्योंकि एक ही के कारण दण्ड की आज्ञा का फैसला हुआ, परन्तु बहुतेरे अपराधों से ऐसा वरदान उत्पन्न हुआ, कि लोग धर्मी ठहरे। क्योंकि जब एक मनुष्य के अपराध के कारण मृत्यु ने उस एक ही के द्वारा राज्य किया, तो जो लोग अनुग्रह और धर्म रूपी वरदान बहुतायत से पाते हैं वे एक मनुष्य के, अर्थात यीशु मसीह के द्वारा अवश्य ही अनन्त जीवन में राज्य करेंगे। इसलिये जैसा एक अपराध सब मनुष्यों के लिये दण्ड की आज्ञा का कारण हुआ, वैसा ही एक धर्म का काम भी सब मनुष्यों के लिये जीवन के निमित धर्मी ठहराए जाने का कारण हुआ। क्योंकि जैसा एक मनुष्य के आज्ञा न मानने से बहुत लोग पापी ठहरे, वैसे ही एक मनुष्य के आज्ञा मानने से बहुत लोग धर्मी ठहरेंगे” (रोमियों 5:15-19)। इन पदों से प्रकट बातें हैं:
प्रभु यीशु मसीह द्वारा किया गया कार्य, परमेश्वर द्वारा अनुग्रह के वरदान समान उपलब्ध करवाया गया है।
यह कुछ सीमित और परिभाषित लोगों के लिए नहीं वरन “बहुतेरों” के लिए है; अर्थात उनके लिए जो उसके इस बलिदान और अनुग्रह की भेंट को स्वीकार कर लेंगे।
जो भी इस प्रभु यीशु से उसके इस अनुग्रह के दान को स्वीकार करेगा, वही परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरेगा; और प्रभु यीशु मसीह के द्वारा अनन्त जीवन में राज्य करेगा।
प्रभु यीशु मसीह का यह कार्य “सब मनुष्यों के लिए” उन्हें अनन्त जीवन के लिए धर्मी ठहराए जाने के लिए है; सभी के लिए पर्याप्त है, उपलब्ध है। किन्तु इसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करना, प्रत्येक व्यक्ति का अपना निर्णय है।
प्रभु यीशु मसीह द्वारा की गई परमेश्वर की आज्ञाकारिता, आदम और हव्वा द्वारा की गई अनाज्ञाकारिता के परिणामों को पलट कर वापस लोगों को धर्मी ठहराने के लिए सक्षम और पर्याप्त है।
प्रभु यीशु का यह कार्य सारे संसार के सभी मनुष्यों के लिए है, उसके अनुग्रह से उसके द्वारा समस्त मानवजाति को दान के समान उपलब्ध करवाया गया है। दान को कृतज्ञता के साथ स्वीकार तथा प्रयुक्त किया जाता है; दान को किसी भी प्रकार से मोल लेने का प्रयास करना, उस दान की कीमत और महत्व को गौण करना, तथा उस दान और दान देने वाले, दोनों का ही अपमान करना है।
इसी प्रकार से प्रभु ने अपने पुनरुत्थान और उससे मृत्यु पर मिली विजय को भी अपने अनुग्रह के दान के समान समस्त मानव जाति के लिए सेंत-मेंत उपलब्ध करवा दिया है: “इसलिये जब कि लड़के मांस और लहू के भागी हैं, तो वह आप भी उन के समान उन का सहभागी हो गया; ताकि मृत्यु के द्वारा उसे जिसे मृत्यु पर शक्ति मिली थी, अर्थात शैतान को निकम्मा कर दे। और जितने मृत्यु के भय के मारे जीवन भर दासत्व में फंसे थे, उन्हें छुड़ा ले” (इब्रानियों 2:14-15)।
प्रभु यीशु ने हम पापी मनुष्यों के उद्धार और परमेश्वर से मेल-मिलाप को बहाल करवाने के लिए जो कुछ भी आवश्यक था, वह सब संपूर्ण करके दे दिया, उसे हमें सेंत-मेंत में अर्थात मुफ़्त में, उपलब्ध भी करवा दिया। यह उद्धार और बहाली परमेश्वर की ओर से हमारे प्रति उसके अनुग्रह का कार्य है, जिसे वह हमारे प्रति अपने प्रेम के अंर्तगत एक दान, एक भेंट के रूप में उपलब्ध करवाता है। भेंट या दान इसलिए, क्योंकि किसी मनुष्य में यह योग्यता अथवा क्षमता नहीं है कि वह प्रभु परमेश्वर यीशु मसीह के द्वारा किए गए इस कार्य के लाभ को मोल ले सके; और यदि परमेश्वर इसकी कोई कीमत लगा देता, तो उनका क्या होता जो किसी भी कारण से वह कीमत चुका पाने में असमर्थ होते - वे तो फिर उद्धार के लाभ से वंचित रह जाते। परमेश्वर सभी से समान प्रेम करता है, इसलिए सभी के लिए, वह कोई भी, कैसा भी, कहीं भी क्यों न हो, सभी को एक समान अवसर प्रदान किया है।
प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है। यदि अभी भी आपने प्रभु यीशु के बलिदान के कार्य को स्वीकार नहीं किया है, तो अभी समय और अवसर के रहते स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप कर लें, अपना जीवन उसे समर्पित कर के, उसके शिष्य बन जाएं। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।
एक साल में बाइबल:
2 इतिहास 28-29
यूहन्ना 17
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The Solution for Sin - Salvation - 21
We have been seeing in the previous articles that to atone for and provide the remedy for the situation arisen from the sin of man, God required a man who would live a life of complete obedience to Him, and was willing to voluntarily sacrifice himself for the sins of the whole world, be willing to suffer death for the entire mankind. Also, he should defeat death, i.e., return back from death, so that the hold of death on mankind would be abolished; and then he should be willing to freely share with everyone the benefits of the victory he achieved by his sacrificial death, his victory over death, and his resurrection. So far, we have seen that the Lord Jesus was the one and only sinless, blameless, holy, perfect man, who fulfilled all of God’s requirements for this solution; and He came back from the dead as well.
Today we will see that as required, the Lord Jesus also freely made available the benefits of His life, sacrifice, and resurrection to mankind. He kept back nothing for Himself, but out of His love for us sinful humans, He gave everything to us. This is His grace towards us sinners, i.e., it is His unmerited favor towards us for which we are not deserving in any manner; and neither can we ever qualify for it through any kind of works - religious or good, or by fulfilling of rituals, traditions, and observing feasts, or through our own contrived works of righteousness. Just pause for a moment and ponder, whatever a sinful man does, can he ever be able to do anything over and above or better than what a sinless, spotless, holy person can do? Can a sinful man be able to put any price for that holy and perfect person’s sacrifice, accomplished by suffering such a terrible, painful, and horrifying death; and then be able to pay that price? Man can only accept the Lord Jesus’s work of redemption as a gift with a grateful and thankful heart; he can never earn it or pay for it in any manner. Neither can man ever do anything that would be better than the work of the Lord, through which he would then be able to pay back to the Lord for what the Lord has done for the sinful man.
Ponder over these verses from God’s Word: “But the free gift is not like the offense. For if by the one man's offense many died, much more the grace of God and the gift by the grace of the one Man, Jesus Christ, abounded to many. And the gift is not like that which came through the one who sinned. For the judgment which came from one offense resulted in condemnation, but the free gift which came from many offenses resulted in justification. For if by the one man's offense death reigned through the one, much more those who receive abundance of grace and of the gift of righteousness will reign in life through the One, Jesus Christ. Therefore, as through one man's offense judgment came to all men, resulting in condemnation, even so through one Man's righteous act the free gift came to all men, resulting in justification of life. For as by one man's disobedience many were made sinners, so also by one Man's obedience many will be made righteous” (Romans 5:19). It is evident from these verses that:
The work accomplished by the Lord Jesus, has been made available as a gracious gift to mankind.
It is not just for a few or some special or chosen people, but for “many”; i.e., for them who would accept this sacrifice as a gift of grace.
Only those who accept this gift of grace from God, will be accepted as righteous in the eyes of God; and will enter into eternal life through the Lord Jesus.
This work of the Lord Jesus is for all men, to make them righteous for eternal life; is sufficient for everyone in all respects, and is freely available. But to accept it or reject it is every person’s own decision.
The work of obedience towards God by the Lord Jesus, is not only able to undo the effect of the disobedience by Adam and Eve, is more than enough to make those who accept it, righteous again.
This work of the Lord Jesus is for all the people of the whole world, has been made available through His grace as a gift to the entire mankind. A gift is always to be accepted and used with thankfulness and gratitude; any attempts to pay for it in any manner, implies demeaning the value and importance of that gift, and is tantamount to insulting both, the gift as well as the giver of the gift.
Similarly, the Lord Jesus too has made available His victory over sin and death achieved through His sacrificial death and resurrection, as a gracious gift to entire mankind: “Inasmuch then as the children have partaken of flesh and blood, He Himself likewise shared in the same, that through death He might destroy him who had the power of death, that is, the devil, and release those who through fear of death were all their lifetime subject to bondage” (Hebrews 2:14-15).
The Lord Jesus has done and made freely available, all that was required for the salvation of sinful men and for their reconciliation with God. This salvation and restoration into fellowship with God, is an act of grace, a gift, prepared and provided to us because of His great and indescribable love for us. It is a free and gracious gift since no man has the capability to put a price and pay in any manner for what the Lord Jesus Christ has done; and if God were to put a price to it, then no man, not even the entire mankind collectively, could ever have been able to pay that price. Even if there was a price which some men could have somehow paid and bought this salvation for themselves, what of those who were incapable of paying that price? They then would have been rendered incapable of being saved. God loves everyone just the same, therefore, He desires to see everyone saved, provide the same and equal opportunity to everyone - whosoever the person may be; therefore, it had to be a free gift of grace for everyone, to be received and utilized voluntarily, by each person through his own free will.
The Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
2 Chronicles 28-29
John 17