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पवित्र आत्मा से सीखना – 24
प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को परमेश्वर द्वारा पवित्र आत्मा प्रदान किया गया है कि उसके मसीही जीवन जीने तथा परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई के निर्वाह में उसका सहायक और मार्गदर्शक हो। परमेश्वर के अन्य प्रावधानों के समान, परमेश्वर की सन्तान होकर जीवन जीने के लिए उन्हें परमेश्वर पवित्र आत्मा भी दिया गया है, उनका सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक होने के लिए। जिसे भी परमेश्वर से कुछ भी मिला है, वह उसके लिए परमेश्वर को उत्तरदायी है, इसलिए उन्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए का योग्य भण्डारी होना है। परमेश्वर पवित्र आत्मा, विश्वासियों को इन सभी बातों के बारे में सिखाता है, यदि वे उस से सीखने के लिए तैयार हों, न कि मनुष्यों और मनुष्यों की रचनाओं पर निर्भर करें, जिन से विश्वासी के त्रुटियों में पड़ने की संभावना रहती है। पवित्र आत्मा से सीखने के बारे में सीखते हुए, हम वर्तमान में 1 कुरिन्थियों 2:12-14 पर, एक-एक पद कर के विचार कर रहे हैं, और अभी पद 13 को देख रहे हैं। अभी तक हमने इस पद के तीन में से पहले दो वाक्यांशों को देख लिया है। पहले वाक्यांश से हमने सीखा था कि बुनियादी शिक्षा के रूप में, प्रत्येक विश्वासी को परमेश्वर के द्वारा उसे दी गई बातों के बारे में सीखना चाहिए। फिर, दूसरे वाक्यांश से हमने सीखा है कि परमेश्वर के वचन से कुछ भी सीखते समय हमें यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि प्रचार करने और सिखाने वाला चाहे कोई भी हो, वह केवल वही बोले जो पवित्र आत्मा कहता है, और अपनी ओर से अपने विचार, बुद्धि और समझ के अनुसार उसमें कुछ न जोड़े। हमने यह भी देखा था कि यह किस तरह से पहचाना जा सकता है कि क्या पवित्र आत्मा की ओर से है, और क्या नहीं है। आज हम यहीं से ज़ारी रखते हुए, तीसरे वाक्यांश को देखेंगे।
इस पद, 1 कुरिन्थियों 2:13, का तीसरा वाक्यांश है “आत्मिक बातें आत्मिक बातों से मिला मिला कर सुनाते हैं।” हम देख चुके हैं कि परमेश्वर अपने लोगों से अपने चुने हुए किसी प्रतिनिधि में होकर बोलता है; परमेश्वर उस प्रतिनिधि को वह बताता है जो वह अपने लोगों से कहना चाहता है, और फिर उन्हें वह बात परमेश्वर के लोगों तक पहुँचानी होती है। इसीलिए यह अनिवार्य है कि परमेश्वर का प्रतिनिधि अपने शब्द उपयोग न करे, बल्कि परमेश्वर के वास्तविक सन्देश को बताने के लिए, परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए शब्द ही बोले। पौलुस यही बात अपने लिए तथा अपनी सेवकाई के बारे में कहता है, जैसा कि इस पद के दूसरे वाक्यांश “मनुष्यों के ज्ञान की सिखाई हुई बातों में नहीं, परन्तु आत्मा की सिखाई हुई बातों में” में लिखा है। तीसरे वाक्यांश में, इसी पर और खुलासा करते हुए, पौलुस यह करने के एक और पक्ष को उजागर करता है, “आत्मिक बातें आत्मिक बातों से मिला मिला कर सुनाते हैं।” हम पहले देख चुके हैं कि परमेश्वर के वचन में जो बातें लिखी गई हैं, वे हमारी शिक्षा के लिए दी गई हैं (रोमियों 15:4; 1 कुरिन्थियों 10:6), ताकि हम किसी गलत शिक्षा में न फँस जाएँ। इसलिए, जब वे लोग जिन्हें वचन की सेवकाई सौंपी गई है, जैसे कि पौलुस, परमेश्वर के वचन और निर्देशों का प्रचार करते, शिक्षा देते हैं, तो उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी साँसारिक बात, या मनुष्य के विचार, बुद्धि, और समझ से उत्पन्न हुई बात, परमेश्वर के वचन में डाले जाने के द्वारा उसमें कोई मिलावट न हो। यह सुनिश्चित करने का एक तरीका है कि वे इधर-उधर की कोई भी बात नहीं, बल्कि “आत्मिक बातें आत्मिक बातों से मिला मिला कर सुनाते हैं” जिस से शैतान को अपनी किसी गलत शिक्षा, गलत व्याख्या, गलत धारणा को घुसा पाने का कोई अवसर अथवा स्थान ही नहीं रहता है। इस से परमेश्वर का वचन और निर्देश शुद्ध ही रहते हैं, उसमें कोई मिलावट नहीं होने पाती है, और परमेश्वर के लोग बहकाए, भरमाए नहीं जाते हैं।
यह कोई नया सिद्धान्त नहीं है जिसे नए नियम में ही बताया गया है। यह तब से है, जब से परमेश्वर ने अपने प्रतिनिधियों से, भावी पीढ़ियों के लिए, अपना वचन लिखवाना आरंभ किया। पुराने नियम में परमेश्वर के नबियों ने परमेश्वर के लोगों से बारम्बार कहा कि जिन परिस्थितियों में भी वे हों, उन में सफल और जयवन्त होने के लिए, परमेश्वर के वचन से देखें, और उस वचन का उपयोग करें। पुराने नियम के कुछ उदाहरण देखिए:
मूसा, जिसके द्वारा परमेश्वर ने अपनी आज्ञाएँ और पहली पाँच पुस्तकें दीं, उस ने इस्राएलियों को निर्देश दिया कि हमेशा अपने सम्मुख परमेश्वर के वचन और निर्देशों को लिखित रूप में रखें, उन्हें देखते रहें, याद करते रहें, अपने बच्चों के साथ उन्हें दोहराते रहें (व्यवस्थाविवरण 6 अध्याय), और फिर इस अध्याय की समाप्ति पर कहता है, “और यहोवा ने हमें ये सब विधियां पालने की आज्ञा दी, इसलिये कि हम अपने परमेश्वर यहोवा का भय मानें, और इस रीति सदैव हमारा भला हो, और वह हम को जीवित रखे, जैसा कि आज के दिन है। और यदि हम अपने परमेश्वर यहोवा की दृष्टि में उसकी आज्ञा के अनुसार इन सारे नियमों को मानने में चौकसी करें, तो वह हमारे लिये धर्म ठहरेगा” (व्यवस्थाविवरण 6:24-25)।
यहोशू से, जब वह कनान को जीतने और उसमें इस्राएलियों को बसाने के लिए लेकर जाने की तैयारी कर रहा था, परमेश्वर ने कहा कि उसकी सफलता उसके सैन्य पराक्रम और निपुणता पर निर्भर नहीं होगी, वरन उसके परमेश्वर के वचन के आज्ञाकारी होने पर होगी (यहोशू 1:5-8)।
इस्राएल का इतिहास, जैसा कि हम न्यायियों की पुस्तक से लेकर नहेम्याह की पुस्तक में देखते हैं, अनेकों उदाहरणों से भारी पड़ा है, कि जब उन्होंने परमेश्वर के वचन का पालन छोड़ दिया तो असफलताओं और पराजय में आ गए, और जब वचन का पालन किया तो सफल और जयवंत रहे।
यिर्मयाह नबी, जब परमेश्वर ने उसे नियुक्त किया, तब वह एक लड़का ही था। लेकिन परमेश्वर ने उसे आश्वस्त किया कि जब तक वह परमेश्वर के कहे पर, उसके वचन पर बना रहेगा, कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा – यिर्मयाह 1 अध्याय देखिए।
हम अगले लेख में इसके तथा परमेश्वर द्वारा सिखाए जाने बारे में और आगे देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Learning from the Holy Spirit – 24
God the Holy Spirit, residing in every Born-Again Christian Believer, has been given to him by God, to help and guide him in living his Christian life and fulfilling his God assigned ministry. Along with other provisions from God to the Believers, for living as children of God, the Holy Spirit is also given to be their Helper, Companion, Teacher, and Guide. Everyone is accountable to God for everything they have received from Him, and therefore they ought to be worthy stewards of God’s provisions. The Holy Spirit teaches the Believers about all this, if they are willing to learn from Him, and not rely on men and their works, which makes the Believers prone to falling into errors. In learning about learning from the Holy Spirit, we are presently considering 1 Corinthians 2:12-14, verse by verse; and are in verse 13 now. So far we have considered the first two of its three phrases. From the first phrase we had learnt that as part of their basic teachings, every Believer must learn about the things God has given them. Then, from the second phrase we have learnt that in learning from God’s Word about anything, we must ensure that whoever is preaching and teaching, he speaks only what the Holy Spirit says, and does not add anything from his own thoughts, wisdom and understanding to it. We also saw how to discern what is from the Holy Spirit, and what is not. Today, we will continue with the third phrase of verse 13 of this passage.
The third phrase of 1 Corinthians 2:13 is “comparing spiritual things with spiritual.” We have seen that God speaks to His people through some chosen spokesmen of His; God tells the spokesman what He has to say, and they are then to convey God’s message to the others. That is why it is essential that God’s spokesman does not use his own words, but the words given to him by God, to convey God’s actual message to God’s people. That is what Paul says about himself and his ministry, as is written in the second phrase of this verse, “not in words which man's wisdom teaches but which the Holy Spirit teaches.” In the third phrase, elaborating further on this, Paul speaks of another aspect of doing this, i.e., “comparing spiritual things with spiritual.” We have seen earlier that the various things written in God’s Word have been written for our instruction (Romans 15:4; 1 Corinthians 10:6), so that we do not fall into any erroneous teachings. When those entrusted with the ministry of God’s Word, like Paul, make it a point to preach and teach God’s Word and instructions only through “comparing spiritual things with spiritual,” then they will also ensure that nothing worldly, or of human origin adulterates God’s Word, and the people of God can learn God’s actual Word. And, this in turn, will ensure that Satan will have no room or opportunity for bringing in any of his erroneous teachings, misinterpretations, misconceptions, and thereby mislead the people of God through an adulterated word.
This is not a new concept, given only in the New Testament. It was very much in place, since the time God had His spokespersons write His Word down for posterity. The Old Testament prophets of God repeatedly asked God’s people to refer to and utilize only the Word of God in managing the situations that they faced, to be successful and victorious in them. Consider some examples from the Old Testament:
Moses, through whom God gave His Commandments and the Pentateuch, instructed the Israelites to always keep the written, God given Word and instructions before them, and keep referring to them, recalling them, revising them with their children (Deuteronomy chapter 6), and then concludes the chapter with the statement, “And the Lord commanded us to observe all these statutes, to fear the Lord our God, for our good always, that He might preserve us alive, as it is this day. Then it will be righteousness for us, if we are careful to observe all these commandments before the Lord our God, as He has commanded us.” (Deuteronomy 6:24-25).
To Joshua, as he prepared to lead the Israelites into conquering Canaan and settling down in it, God said that his success will not be dependent upon his military expertise, but on his obedience to God’s Word (Joshua 1:5-8).
The history of Israel, as we see from the book of Judges to the book o Nehemiah, is replete with examples of their failures and defeats when they left following God’s Word, and of success and victories when they turned to God’s Word and obeyed it.
The prophet Jeremiah, when commissioned by God, was very apprehensive because he was only a boy at that time. But God assured him that so long as he stuck with God’s Word, and spoke it fearlessly, no one would be able to bring him to any harm – see Jeremiah chapter 1.
We will look further into this, and see some more about God’s teaching His people in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.