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प्रभु की मेज़ - केवल प्रभु के परिवार के लिए
प्रभु भोज या प्रभु की मेज़ के हमारे अध्ययन में हम अभी तक, पिछले 3½ सप्ताहों से, उसके पुराने नियम के प्ररूप, फसह, से सीखते आ रहे हैं। अब हम नए नियम में आते हैं और इसके बारे में नए नियम के वृतांतों से देखेंगे। पहले, हम प्रभु यीशु मसीह के द्वारा प्रभु की मेज़ की स्थापना के बारे में देखेंगे; फिर उन भ्रष्ट बातों के बारे में देखेंगे जो प्रभु की मेज़ को लेकर कलीसिया में आ गईं, और किस प्रकार से परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरितों तथा नए नियम के लेखों में होकर उनके निवारण और समाधान को दिया। हम जब प्रभु भोज से संबंधित नए नियम के लेखों और शिक्षाओं को देख रहे होंगे, तो साथ ही हम यह भी देखेंगे कि किस प्रकार से वे तथा हमने जो निर्गमन 12 से सीखा है दोनों में पूर्ण सामंजस्य है। अर्थात, क्यों और कैसे निर्गमन 12 से प्रभु की मेज़ के बारे में लिए गए हमारे निष्कर्ष, शिक्षाएं, तथा अभिप्राय मन-गढ़ंत बातें या अटकलें नहीं, वरन बाइबल के तथ्य हैं; परमेश्वर के वचन की अकाट्य और अपरिवर्तनीय बातें।
प्रभु यीशु मसीह के द्वारा प्रभु के मेज की स्थापना करने के वृतांत चारों सुसमाचारों में दिए गए हैं, और उन्हें साथ मिला कर देखने से पूरा घटनाक्रम और निष्कर्ष स्पष्ट होते हैं। प्रभु भोज से संबंधित, हमारी रुचि के भाग मत्ती 26, मरकुस 14, लूका 22, और यूहन्ना 13 में दिए गए हैं; और अध्ययन के इस भाग में हम सुसमाचारों के इन अध्यायों के पदों को संदर्भ के अनुसार देखते रहेंगे। हमारे अध्ययन का उद्देश्य सुसमाचारों के वृतांतों का विश्लेषण कर के उनमें सामंजस्य बैठाना नहीं है, बल्कि प्रभु भोज के महत्व, अर्थ, और अभिप्रायों को सीखना तथा समझना है, और मसीही विश्वासी के जीवन में उनके व्यावहारिक उपयोग को देखना है। आज हम फसह, जिसके मनाए जाने के दौरान प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों के लिए प्रभु भोज को स्थापित किया था, उसकी तैयारी के साथ आरंभ करते हैं।
हम मत्ती 26:17 से देखते हैं कि “अखमीरी रोटी के पर्व के पहिले दिन, चेले यीशु के पास आकर पूछने लगे; तू कहां चाहता है कि हम तेरे लिये फसह खाने की तैयारी करें?” शिष्यों ने प्रभु यीशु से यह जो प्रश्न किया, यदि उसे उस घटना और उसके मनाए जाने के संदर्भ में देखें, तो यह हम से बहुत कुछ कहता है। हमने निर्गमन 12 के वृतांत से देखा है कि फसह को मनाना एक पारिवारिक बात थी, एक घराने के लिए एक मेमना बलि किया जाना था, और छोटे परिवारों को साथ मिलकर इसे मनाना था और एक ही मेमने में भाग लेना था (निर्गमन 12:3-4)। हम मरकुस 3:13-14 से यह भी जानते हैं कि प्रभु यीशु ने उन अनेकों लोगों में से जो उसके पीछे-पीछे चलते रहते थे, बारह को चुना, कि वो उसके मुख्य गुट बनकर उसके साथ रहें, और उसने उन्हें प्रशिक्षित किया कि सुसमाचार को लेकर संसार में जाएं, और उन बारह को उसने “प्रेरित” कहा (लूका 6:13; मत्ती 10:1-2)। ये प्रेरित सभी स्थानीय लोग थे, उनमें से अधिकांश गलीली थे। फसह इस्राएलियों का एक महत्वपूर्ण पारिवारिक वार्षिक पर्व था (निर्गमन 12:14)। किन्तु यहाँ पर ये शिष्य प्रभु से अपने निज परिवारों के साथ जाकर फसह मनाने, और फिर उसके बाद लौट कर आने की अनुमति नहीं मांग रहे हैं। और ऐसा भी नहीं है कि यह इसलिए था कि वे प्रभु के साथ इसलिए रहना चाहते थे क्योंकि उसने उन्हें उसके आते बलिदान और मृत्यु के बारे में स्मरण दिलाया था (मत्ती 26:1-2, 12)। वास्तव में लगता ही नहीं है कि किसी भी शिष्य ने प्रभु द्वारा उसके पकड़े जाने और क्रूस पर चढ़ाए जाने की बात को समझा भी था, ऐसा लगता ही नहीं है कि वे इस बात को लेकर ज़रा भी परेशान या दुखी थे। न ही प्रभु यीशु ने उनसे यह कहा कि वह फसह को अपने पृथ्वी के परिवार के साथ मनाएगा, और न ही उसने उन्हें निमंत्रण दिया कि उसके साथ चलकर वे भी प्रभु के पृथ्वी के परिवार के साथ फसह मनाएं। प्रभु पहले ही उन्हें बता चुका था कि उसके अनुसार उसका परिवार कौन है (मरकुस 3:31-35) - वे जो परमेश्वर की इच्छा को पूरी करते हैं; और हमें प्रभु द्वारा दी गई इस परिभाषा को याद रखने की आवश्यकता है, हमारी अपनी समझ, तथा भविष्य में इसके उपयोग के लिए।
हम यहाँ पर यह देखते हैं कि ये बारह शिष्य, लगभग तीन वर्ष से अधिक समय से साथ तथा प्रभु के साथ रहते-रहते, एक साथ जुड़कर एक “परिवार” के समान व्यवहार करने लग गए थे (हम यहूदा इस्करियोती तथा प्रभु की मेज़ के बारे में थोड़े ही समय में देखेंगे)। निःसंदेह, शिष्यों में परस्पर मतभेद होते थे, और आपस में बड़े-छोटे होने की भावनाएं भी थीं, जैसे कि किसी भी अधिक संख्या में बच्चों वाले परिवार में सामान्यतः देखा जा सकता है। लेकिन फिर भी वे सभी साथ मिलकर, प्रभु की अधीनता में रहते थे, और उनमें से कोई भी अपने स्वाभाविक परिवार को प्रभु के शिष्य होने के परिवार से बढ़कर नहीं समझता था। यहाँ पर हम उस बात का एक व्यावहरिक उदाहरण देखते हैं, जो प्रभु यीशु ने उनसे कही थी जो उसके शिष्य, उसके लोग होना चाहते थे, उसके पीछे चलना चाहते थे (मत्ती 10:37; लूका 9:59-62; 14:26)।
यहाँ पर हमारे सामने नए नियम की, प्रभु भोज से संबंधित पहली शिक्षा है - प्रभु यीशु ने फसह उनके साथ मनाया जो उसके “परिवार” के लोग थे, “परिवार” किसी मनुष्य के अनुसार नहीं, किन्तु प्रभु यीशु की परिभाषा के अनुसार। प्रभु यीशु ने अपनी मेज़ उसके चारों ओर किसी भी कारण से, किसी स्वार्थ के अंतर्गत अथवा यूं ही समय बिताने के लिए, एकत्रित होने वाले लोगों के लिए स्थापित नहीं की थी। वरन, प्रभु ने अपनी मेज़ उनके लिए स्थापित की थी जो उसका “परिवार”, उसके लोग हो गए थे; और भविष्य में भी उन्हीं लोगों को इसमें भाग लेने का विशेषाधिकार प्रदान किया जो इनके समान उसके शिष्य बनने के लिए तैयार थे (मत्ती 28:19-20)। जैसा हम निर्गमन 12 से देख चुके हैं, फसह, और प्रभु भोज केवल परमेश्वर के प्रति समर्पित एवं प्रतिबद्ध लोगों के लिए है; उनके लिए जिन्होंने प्रभु को अपना जीवन समर्पित किया है और उसके तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता में जीने का निर्णय लिया है। यह कोई रीति अथवा परंपरा नहीं है जिसे यूं ही हल्के में अथवा औपचारिकता-वश निभाया जाए। इसमें भाग लेने वालों के लिए इसके साथ एक जवाबदेही भी जुड़ी हुई है, जैसे कि हम आगे देखेंगे।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
सपन्याह 1-3
प्रकाशितवाक्य 16
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The Lord’s Table - Only for the Lord’s Family
In our study of the Holy Communion or the Lord’s Table, so far, for the past 3½ weeks, we have been learning about it from its Old Testament antecedent, the Passover. We now come to the New Testament and will learn from the New Testament accounts about it. First, we will see about the Lord’s Table being established by the Lord Jesus; then we will see about the aberrations that had crept into the Church regarding the Lord’s Table, and how they were addressed by God the Holy Spirit through the Apostles, in the NT writings. As we go along the NT texts and teachings related to the Holy Communion, we will also see how they are in agreement with what we have learnt from Exodus 12, i.e., how and why our conclusions, lessons, and implications learnt about the Lord’s Table from Exodus 12 were not conjectures and surmising, but Biblical facts, the infallible, unchanging things of the Word of God.
The accounts of the Lord’s establishing the Lord’s Table are given in all four Gospels, and they together present the full picture of the events and their conclusions. Our portions of interest, related to the establishing of the Lord’s Table are found in Matthew 26, Mark 14, Luke 22, and John 13; and, in this part of the study, we will be referring to the relevant verses from these chapters of the Gospel accounts. The focus of our study is not discussing the Gospel accounts to harmonize them, but to learn about the significance, meaning, and implications of the Holy Communion, and the practical application of the teachings in the life of the Christian Believer. Let us now start with the preparation for the Passover, during which the Lord Jesus established the Holy Communion for His disciples.
We see from Matthew 26:17, that “Now on the first day of the Feast of the Unleavened Bread the disciples came to Jesus, saying to Him, "Where do You want us to prepare for You to eat the Passover?"” The question asked by the disciples to the Lord speaks volumes, when we consider it in context of the event and its celebration. We have seen from the Exodus 12 account that the observing of the Passover was to be a family event, one lamb to be sacrificed per family, and the small families could join together as one, and partake of one lamb (Exodus 12:3-4). We also know from Mark 3:13-14 that from the people who followed Him around, the Lord Jesus had chosen twelve to be with Him, His core group, whom He trained to take the Gospel to the world, and called them Apostles (Luke 6:13; Matthew 10:1-2). These Apostles were all local people, mostly Galileans. The Passover was an important annual feast of the Israelites (Exodus 12:14), celebrated with the family. But here the disciples are not asking the Lord Jesus permission to go to their respective families to celebrate the Passover, and then come back and join Him afterwards. Nor was it because they were desirous of being with the Lord, since He had again reminded them of His impending sacrifice and death (Matthew 26:1-2, 12). Actually none of the disciples seem to have understood what the Lord had said about His being caught and crucified, they do not seem to be at all perturbed about it. Neither did the Lord Jesus say that He will celebrate it with His earthly family, nor did He invite them to go with Him to celebrate with His earthly family. He had already defined for them, what for Him constituted His family - those who did the will of God (Mark 3:31-35) – and we need to keep this mind for our understanding and future use as well.
What we see here is that these twelve disciples, in their being together and with the Lord for over three years, had come together to behave as one “family”; (we will see about Judas Iscariot and the Lord’s Table shortly). No doubt, the disciples had their mutual differences, and also feelings of mutual superiority or inferiority, as siblings in any family with many children usually have. But yet they all stayed together, under the Lord, none placing their individual natural families over and above this family of being Lord’s disciples. We see here a practical enactment of what the Lord Jesus had said to those wanting to follow Him and be His people (Matthew 10:37; Luke 9:59-62; 14:26).
Here we have the first lesson of the New Testament regarding the Holy Communion - the Lord Jesus celebrated the Passover with those who were His family, according to not any man’s but His own definition. As we see throughout the Gospel accounts, although multitudes followed Him around, listened to His teachings, benefitted from His miracles, but despite having done all these things for the people thronging around Him, He did not call or consider them His “family” or His people. He did not establish the Lord’s Table for just about anyone who gathered around Him, casually or selfishly, and spent time with Him for some reason or the other. But He established His Table for His “family”, His people; and He gave those the privilege of partaking from it in future, who would join with Him in the manner these initial disciples had joined, becoming His disciples as these had become (Matthew 28:19-20). As we have seen from Exodus 12, the Passover, and the Holy Communion, are only for the committed people of God; for those who have surrendered their lives to the Lord, to live in obedience to Him and His Word. It is not a ritual to be casually participated in, perfunctorily observed. There is an accountability associated with it, for all who participate in it, as we will see later.
If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Zephaniah 1-3
Revelation 16
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