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भला क्या है?
आज से हम एक नई शृंखला का आरंभ कर रहे हैं, एक ऐसे विषय के बारे में जो व्यवहारिक मसीही जीवन के एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू से संबंधित है। मसीही जीवन का यह पहलू कभी-न-कभी सभी को चिंतित करता है, सभी के सामने प्रश्न-चिह्न उठाता है, सभी को इसके वाजिब और स्वीकार्य उत्तर के विषय असमंजस रहता है। साथ ही इसे समझना भी बहुत अनिवार्य है, क्योंकि इसे ठीक से समझे बिना, मसीही विश्वास का जीवन जी पाना कठिन होगा; शैतान बारंबार बहका और भरमा कर कर्मों के द्वारा धार्मिकता के फंदे में ले जाता और फँसता रहेगा। किन्तु यदि हम इसकी वास्तविकता को समझ लें, और इसे सही दृष्टिकोण से देखना आरंभ कर दें, तो जो हमारे मसीही विश्वास के जीवन के लिए फंदा बन जाता है, वही हमारे मसीही विश्वास के जीवन के लिए एक दृढ़ता और स्थिरता का कारण बन जाएगा, हमें शैतान द्वारा बहकाए जाने और अविश्वास तथा अनाज्ञाकारिता में फँसाए जाने से बचने का आधार बन जाएगा। जैसा कि इस शृंखला के मुख्य शीर्षक से प्रगट है, यह विषय है परमेश्वर की व्यवस्था, और मसीही विश्वास के जीवन में इसका स्थान, महत्व, उपयोगिता, क्यों उद्धार और पाप क्षमा व्यवस्था के द्वारा नहीं हैं, और व्यवस्था के प्रति सही दृष्टिकोण रखना।
इस विषय को हम परमेश्वर के वचन बाइबल में से मुख्यतः पाँच शीर्षकों के अन्तर्गत देखेंगे; ये शीर्षक हैं: (1) “भला” क्या और कौन है; इसके लिए मानक (criteria) क्या हैं? (2) जिस व्यवस्था के पालन की बात की जा रही है, वह क्या है? (3) परमेश्वर द्वारा व्यवस्था को दिए जाने का उद्देश्य क्या था? (4) व्यवस्था का पालन क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकता है? (5) यह उद्धार प्रभु यीशु मसीह ही में क्यों है, और किसी में क्यों नहीं?
मनुष्यों के परस्पर व्यवहार एवं संबंधों और मनुष्यों के परमेश्वर के प्रति व्यवहार और संबंधों में एक बात सामान्य है - दोनों ही में भला होने, भला माने जाने, भला प्राप्त करने आदि की बहुत प्रमुख भूमिका है। सभी मनुष्य दूसरे से भले व्यवहार और भलाई की अपेक्षा करते हैं, चाहे वे स्वयं वही व्यवहार औरों के प्रति न करें। इसी प्रकार से परमेश्वर के प्रति भी यही दृष्टिकोण रहता है कि हमारे भले होने के द्वारा हम परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाएंगे, और आत्मिक या आध्यात्मिक बातों को मानने-मनाने से हम भले हो जाएंगे, जिससे फिर हम परमेश्वर को ग्रहण योग्य बन जाएंगे।
किसी भी बात के भले या बुरे, सही अथवा गलत, उचित अथवा अनुचित, स्वीकार्य अथवा अस्वीकार्य, आदि होने के लिए एक स्थापित एवं सर्व-मान्य, तथा वैध मानक, या जायज़ आधार की आवश्यकता होती है, जिसके समक्ष उस बात को लाकर, उस मानक के अनुसार उसकी स्थिति को पहचाना जा सके। क्योंकि बात चाहे किसी के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से भली हो, सही हो, मानने योग्य हो; किन्तु यदि उस स्थापित एवं सर्व-मान्य और वैध मानक के अनुसार आँकलन करने पर भली, सही, मानने योग्य नहीं है, तो उसे स्वीकार्य होने का दर्जा नहीं मिलेगा।
सांसारिक और शारीरिक बातों के लिए, व्यक्ति जिस स्थान पर रहता है, सामान्यतः उस देश या स्थान का संविधान ही हर बात के वैध एवं स्वीकार्य होने, या न होने को परिभाषित करता है, निर्णय करता है। उस संविधान का प्रयोग किस रीति से किया गया, यह पृथक विषय है - यदि अनुचित भी किया गया है, तो भी गलती संविधान की नहीं, उसकी व्याख्या और प्रयोग करने वाले की है।
हम मसीही विश्वासियों के लिए आत्मिक बातों के लिए यह “संविधान”, जो बात को वैध/जायज़ और स्वीकार्य, अथवा अनुचित और अस्वीकार्य घोषित करता है, वह परमेश्वर का वचन, बाइबल और उसके नियम या व्यवस्था है। सांसारिक और आत्मिक बातों के भले या बुरे होने के आँकलन में भिन्नता होने के कारण ही प्रभु यीशु मसीह ने कहा था “... जो कैसर का है, वह कैसर को; और जो परमेश्वर का है, वह परमेश्वर को दो” (मत्ती 22:21; देखें 22:15-21)। अर्थात संसार के अधिकारियों के द्वारा संसार की बातों को जिस आधार पर देखा और माना जाता है, उसके अनुसार संसार की बातों का आँकलन एवं निर्वाह करो; और परमेश्वर के द्वारा प्रदान किए गए माप-दंड या मानकों के आधार पर उससे संबंधित बातों का आँकलन एवं निर्वाह करो। सांसारिक मानकों के आधार पर परमेश्वर की बातें नहीं जाँची और मानी जा सकती हैं; और न ही परमेश्वर के मानकों के आधार पर सांसारिकता को निभाया जा सकता है। जो संसार के साथ चलना चाहता है, उसे सांसारिक माप-दंड अपनाने चाहिएं; और जो परमेश्वर के साथ चलना और रहना चाहता है उसे परमेश्वर के माप-दंड अपनाने चाहिएं।
मसीही विश्वास में वह जो परमेश्वर के वचन के अनुसार सही है, स्वीकार्य है, वही भला है; अन्य सभी जो परमेश्वर के वचन के अनुसार सही नहीं है, स्वीकार्य नहीं है, वह भला भी नहीं है - उस बात के बारे में मनुष्यों के विचार, धारणाएं, और आँकलन चाहे कुछ भी हो। इसलिए, हम मसीही विश्वासियों के लिए तो, बाइबल ही यह निर्धारित करती है कि “भले कार्य” क्या हैं, और क्या नहीं हैं; परमेश्वर को क्या स्वीकार्य है और क्या स्वीकार्य नहीं है, और परमेश्वर के दृष्टिकोण से भला मनुष्य कौन है।
यह एक स्वाभाविक बात है कि जो भला है, वही भला कर भी सकता है। प्रभु यीशु मसीह ने कहा, “कोई अच्छा पेड़ नहीं, जो निकम्मा फल लाए, और न तो कोई निकम्मा पेड़ है, जो अच्छा फल लाए। हर एक पेड़ अपने फल से पहचाना जाता है; क्योंकि लोग झाड़ियों से अंजीर नहीं तोड़ते, और न झड़बेरी से अंगूर। भला मनुष्य अपने मन के भले भण्डार से भली बातें निकालता है; और बुरा मनुष्य अपने मन के बुरे भण्डार से बुरी बातें निकालता है; क्योंकि जो मन में भरा है वही उसके मुंह पर आता है” (लूका 6:43-45)। अर्थात मनुष्य का जीवन, व्यवहार, उसके “फल” उसकी वास्तविकता को प्रमाणित करते हैं; जो परमेश्वर के आँकलन के अनुसार भला करता है वही उसकी दृष्टि में भला भी है।
तो अब प्रश्न उठता है कि परमेश्वर के वचन के आधार पर यह भले काम करने वाला और परमेश्वर को स्वीकार्य भला मनुष्य कौन है? उसके क्या गुण हैं? अगले लेख में हम मनुष्य के भले होने और हो पाने के बारे में परमेश्वर के वचन में से देखेंगे। किन्तु अभी के लिए मुख्य बात यही है कि परमेश्वर को अपने साथ संगति में रहने के लिए वही मनुष्य स्वीकार्य है, जिसने अपने पापों के लिए पश्चाताप करके प्रभु यीशु से उनके लिए क्षमा माँग ली है और जिसके पाप क्षमा हो गए हैं; जो स्वेच्छा से, सच्चे और समर्पित मन से प्रभु यीशु मसीह का अनुयायी या शिष्य हो गया है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
व्यवस्थाविवरण 23-24
मरकुस 14:1-26
व्यवस्थाविवरण 23-24
मरकुस 14:1-26
“Good” - What is it?
From today we are beginning a new series about a topic that deals with a very important aspect of practical Christian life. This aspect of the Christian life at some time or the other does worry everyone, raises questions for everyone, and people are often confused about reasonable and acceptable answers regarding the matter. At the same time, it is also very important to understand this, because without understanding it properly, it will be difficult to live the life of the Christian faith. Satan will repeatedly deceive and lead astray, and will continue to make us fall into the trap of righteousness through deeds. But if we understand the reality, and start looking at the issue from the right perspective, then what often becomes a snare to our Christian life, will turn into a strong firm standing and stability for our Christian life, and will become a basis for us to avoid being seduced by Satan and entangled in unbelief and disobedience. As the main title of this series reveals, the topic is The Law of God, and its place, importance, utility in the life of Christian faith, why salvation and forgiveness of sins are not through the law, and having a right perspective about the law.
We'll look at this topic in God's Word, the Bible, under mainly five headings; These headings are: (1) What and who is “good”; What are the criteria for this? (2) What is The Law that is being talked about? (3) What was the purpose of God's giving of The Law? (4) Why can't the keeping of The Law save us? (5) Why is salvation only in the Lord Jesus Christ, and why not in anyone else?
There is one thing in common between the mutual interactions and relationships of human beings, and, in the behavior and relationships of humans towards God - in both of them being good, being considered good, receiving good, etc. have a very prominent role. All human beings expect good behavior and goodness from others, even though they themselves may not behave the same towards others. Similarly, they maintain the attitude towards God that by our being good, we will become acceptable to God, and by accepting and doing spiritual or pious things, we will become good, which will then make us acceptable to God.
For anything to be good or bad, right or wrong, appropriate or inappropriate, acceptable or unacceptable, etc., there is a need for an established and universally accepted, and legally acceptable standard, or a valid basis, before which that matter can be placed, and as per that standard it’s status can be evaluated. Because even if a thing is good, correct, acceptable from one's personal point of view; unless it is appropriate, correct, acceptable on being evaluated according to that established and universally accepted and valid standard, it will not be seen as acceptable.
For worldly and physical things, the place where a person lives, generally the constitution or norms of that country or place, defines and decides whether things are valid and acceptable, or not. The manner in which that constitution is used is a separate matter - even if it is used improperly, the fault is not of the constitution, but of its interpretation and use.
For us Christians, this "constitution" for spiritual matters, which declares what is valid/legal and acceptable, or inappropriate and unacceptable, is the Word of God, the Bible, and its laws. Because of the difference in the assessment of the good or bad of worldly and spiritual things, the Lord Jesus Christ said “… Render therefore to Caesar the things that are Caesar's, and to God the things that are God's" (Matthew 22:21; see 22:15-21). In other words, according to the basis on which the things of the world are seen and accepted by the authorities of the world, assess and do the things of the world, according to them; and on the basis of the criteria or standards given by God, assess and fulfill the things related to Him. The things pertaining to God cannot be judged and accepted by worldly standards; Nor can worldliness be lived out by the standards of God. He who wants to walk with the world, must adopt worldly standards; and one who wants to walk and live with God must adopt the standards of God.
In the Christian faith, only that which is according to the Word of God is acceptable, and is considered good. All else that is not right according to God's Word is not acceptable, and is not good either—whatever people may think, believe, and assess regarding that matter. So, for us Christians, the Bible determines what is "good works," and what is not; What is acceptable to God and what is not acceptable, and who is a good man from God's point of view.
It is a natural thing that only those who really are good from within, can also do something actually good. The Lord Jesus Christ said, "For a good tree does not bear bad fruit, nor does a bad tree bear good fruit. For every tree is known by its own fruit. For men do not gather figs from thorns, nor do they gather grapes from a bramble bush. A good man out of the good treasure of his heart brings forth good; and an evil man out of the evil treasure of his heart brings forth evil. For out of the abundance of the heart his mouth speaks” (Luke 6:43-45). Or, a man's life, his behavior, his "fruits" prove his reality; one who does good according to God's standards, is also good in His eyes.
So now the question arises that on the basis of the Word of God who is the man that does good and is therefore acceptable to God because of his goodness? What are this person’s qualities? In the next article, we'll look at this question from God's Word - about man being good and being able to do good. But for now the main thing is that the only person acceptable to God to be in fellowship with him, is one who has repented of his sins and asked the Lord Jesus for their forgiveness, and whose sins are forgiven; One who voluntarily, with a sincere and submissive heart has become a follower or disciple of the Lord Jesus Christ.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, the blessing and protection of the Lord is also there. Asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely submitting yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You have to make only a short prayer to the Lord Jesus Christ willingly and sincerely, and at the same time completely consecrate your life to Him. Your prayer of seeking forgiveness and of submission, can be something like “Lord Jesus I thank you for taking my sins upon yourself to pay for them and redeem me. Because of them you had to die on the cross in my place, you were buried, and you rose on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Read the Bible in a Year:
Deuteronomy 23-24
Mark 14:1-26