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मसीही विश्वासी - प्रभु के लिए बहुतायत से फलवंत होता है
सुसमाचारों में, प्रभु द्वारा बताए गए अपने शिष्यों के गुणों में से चौथा है कि वह अपने प्रभु और उद्धारकर्ता, प्रभु यीशु मसीह के लिए फल लाता है, “मेरे पिता की महिमा इसी से होती है, कि तुम बहुत सा फल लाओ, तब ही तुम मेरे चेले ठहरोगे” (यूहन्ना 15:8)। यह पद हमें बताता है कि प्रभु के लिए फल लाना न केवल शिष्य का एक गुण है, वरन फल लाने से परमेश्वर पिता की भी महिमा होती है। किसी भी पौधे या वृक्ष के द्वारा फल लाने का एक ही प्रमुख कारण होता है - उस फल से उसके समान और पौधे या वृक्ष उत्पन्न हों; अर्थात उस प्रजाति का विस्तार हो। वह फल भोजन, या औषधि, या अन्य किसी रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है; किन्तु यह सब उसके प्राथमिक उपयोग नहीं हैं। प्राकृतिक रीति से पेड़-पौधे फल अपनी जाति के विस्तार के लिए ही उत्पन्न करते हैं; चाहे उनके फल और किसी काम में आएं या न आएं, और किसी के लिए उपयोगी हों अथवा न हों, चाहे वे फल औरों के लिए लाभदायक हों अथवा कष्टदायक या हानिकारक हों।
यही अभिप्राय प्रभु द्वारा उसके लिए फलवंत होने के साथ भी संलग्न है - प्रभु के शिष्य प्रभु के लिए और शिष्य बनाएं, जो मत्ती 28:18-20 में शिष्यों को दी गई प्रभु की महान आज्ञा के अनुरूप है। हम जितना अधिक सुसमाचार का प्रचार और प्रसार करेंगे, उतना अधिक प्रभु के लिए फलवंत और परमेश्वर की महिमा का कारण होंगे, जो फिर हमारे लिए आशीष का कारण बनेगा। यहाँ एक बात और ध्यान देने के लिए आवश्यक है, प्रभु ने कहा “तुम बहुत सा फल लाओ” - प्रभु ने यह नहीं कहा कि “तुम आत्मा के फल बहुतायत से लाओ” - जो कि सामान्यतः इस पद के साथ समझ लिया जाता है, जबकि प्रभु ने यह नहीं कहा है। शिष्य को अपने जीवन से अपने समान और शिष्य बनाने हैं; अवश्य ही उसके अच्छे, प्रभावी, और आकर्षक मसीही जीवन के लिए उसमें आत्मा के फल और गुण होना अनिवार्य है। किन्तु प्रभु ने औरों के जीवनों में आत्मा के फल उत्पन्न करने के लिए नहीं कहा; जब कोई व्यक्ति प्रभु का शिष्य बन जाएगा, तो उसमें आकर निवास करने वाला पवित्र आत्मा स्वयं उसमें आत्मा के फल उत्पन्न करेगा। कोई मनुष्य अपने अंदर अथवा किसी और में आत्मा के फल उत्पन्न नहीं कर सकता है; आत्मा के फल तो पवित्र आत्मा ही उत्पन्न और विकसित करता है। प्रभु हम से हमारे फल, हमारे द्वारा उसकी शिष्यता में और शिष्यों को लेकर आने के लिए कह रहा है।
साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि प्रभु के कहे के अनुसार, जैसे पेड़ की पहचान उसके फलों से होती है, वैसे ही व्यक्ति की पहचान, या शिष्य की पहचान, उसके जीवन के फलों से होती है (मत्ती 7:16, 20)। प्रभु के लिए शिष्य का फलवंत होना प्रभु के प्रति उसके समर्पण, आज्ञाकारिता, प्रेम, और उपयोगिता की पहचान है। प्रभु परमेश्वर फल लाने को बहुत महत्व देता है; प्रभु यीशु ने लूका 13:6-9 में बताए दृष्टांत के द्वारा शिष्यों को समझाया कि जो वृक्ष परमेश्वर के लिए फलवंत नहीं है, उसे फिर उसके दुष्परिणाम भी भुगतने पड़ेंगे। यही बात पुराने नियम में यशायाह 5:1-7 में यहोवा द्वारा लगाई गई दाख की बारी, अर्थात इस्राएल के संदर्भ में भी कही गई है - जब इस्राएल परमेश्वर के लिए फलवंत नहीं हुआ, अच्छे फल नहीं लाया, तो उसे इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़े।
प्रभु यीशु के सच्चे, वास्तविक शिष्य में अपने उद्धारकर्ता प्रभु के लिए उपयोगी होने, उसके आज्ञाकारी होकर, उसके नाम को महिमा देने की लालसा और प्रवृत्ति होती है। प्रभु ने जो वरदान, गुण, और योग्यताएं उसे दी हैं, वह उनका प्रयोग प्रभु के राज्य के विस्तार और विकास के लिए करता है, और अपने लिए आशीष तथा परमेश्वर के लिए महिमा का कारण बनता है। यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो यह जाँचने की बात है कि आप प्रभु के लिए फलवंत हैं कि नहीं; और यदि फलवंत हैं तो आपके फल की मात्रा और गुणवत्ता क्या है? प्रभु परमेश्वर मुझ से और आप से बहुत सा फल लाने की आशा रखता है। क्या हम उसकी शिष्यता की इस कसौटी पर खरे हैं? क्या हम इस पहचान के द्वारा अपने आप को प्रभु के शिष्य कह और बता सकते हैं?
और यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 16-17
प्रेरितों 20:1-16
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Christian Believer – Fruitful for The Lord
According to the description given in the Gospels, the fourth characteristic of a Born-Again Christian Believer is that he brings fruit for his Lord and Savior Jesus Christ, “By this My Father is glorified, that you bear much fruit; so you will be My disciples” (John 15:8). This verse tells us that bearing fruit for the Lord is not only a characteristic of a disciple of the Lord, but it also brings glory to God the Father. The purpose behind any plant or tree bearing fruits is only one - so that from that fruit other similar plants or trees may grow; i.e., that plant or tree’s species may propagate. That fruit can also be used as food, or medicine, or for any other purpose; but none of these things is the primary purpose of bearing fruit. In the natural manner of things, the plants and trees bear fruit for propagation of their species; whether or not their fruits are used for any other purpose, whether or not they are useful for anyone else for anything else, whether those fruits are helpful and beneficial for others or are harmful and problematic for others.
The same holds true for being fruitful for the Lord - the disciples of the Lord Jesus should make more disciples of the Lord Jesus, which is in accordance with the Great Commission given by the Lord to His disciples in Matthew 28:18-20. The more we preach and propagate the gospel, the more fruitful for the Lord and cause for glorifying God we will be, which then will be the cause for greater blessings for us. There is one more thing to be noted here; the Lord has said in this verse “you bear much fruit”; the Lord has not said that you should bear much ‘fruit of the Spirit’ - as is commonly understood and interpreted for this verse; whereas this is not what the Lord has said here. The disciple of the Lord has to make other disciples for the Lord; therefore, it is essential that the Lord’s disciple should have good, effective, and attractive characteristics in his life; and these characteristics will be developed through the presence of the fruits of the Spirit in the disciple’s life. No man can create any of the fruits of the Spirit in his own or someone else’s life; it is only the Holy Spirit of God who creates and develops the fruits of the Spirit. Here the Lord has asked His disciples to bear their fruits for Him, i.e., to bring more disciples into His discipleship.
Another thing to note is that the Lord has also said that just a tree in known by its fruits, similarly, a person or disciple is known by the fruit he brings for the Lord (Matthew 7:16, 20). A disciple’s being fruitful for the Lord is an indicator of his being committed, surrendered, obedient to the Lord, of loving the Lord and striving to be useful for Him. The Lord God places great emphasis on bearing fruit; the Lord Jesus in the parable in Luke 13:6-9 taught to the disciples that the tree that is not fruitful for the Lord will also have to bear the consequences. The same thing was stated by God in the Old Testament, in Isaiah 5:1-7, about the vineyard of God, i.e., Israel - when Israel was not fruitful for God, did not bring good fruits, then it had to bear the consequences.
The true, actual disciple of the Lord Jesus should have the tendency and desire to be useful for his Lord, be obedient to Him, glorify Him. The gifts, characteristics, abilities etc. that the Lord has given to him, he should be using them for the expansion of the Lord’s kingdom; and in doing so he is blessed himself, and brings glory to God. If you are a Christian Believer, then it is for you to examine and see whether you are fruitful for the Lord or not. If you are fruitful, then what is the quality and quantity of the fruit you bear? The Lord expects that His disciples bear much fruit for Him; are you satisfying the Lord on this? On this criterion, can you actually call yourself to be a disciple of the Lord?
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 16-17
Acts 20:1-16