मसीहियों में इस बात के लिए बहुत असमंजस और
अनिश्चितता है कि “भविष्यवाणी करना” का वास्तविक अभिप्राय क्या है? इस असमंजस और अनिश्चितता के मुख्यतः दो कारण हैं:
·
पहला, अधिकांश “मसीही” व्यक्तिगत बाइबल अध्ययन, या स्वयं बाइबल पढ़ने में समय नहीं बिताते हैं। वे परमेश्वर के वचन के बारे
में औरों से उनके विचार और धारणाएँ स्वीकार करने से ही संतुष्ट रहते हैं, तथा उनमें यह प्रवृत्ति पाई जाती है कि परमेश्वर के नाम
में कोई भी उन से कुछ भी कह दे, वे सामान्यतः उसे
स्वीकार कर लेते हैं, उस पर विश्वास कर लेते
हैं। शायद ही कोई होगा जो इस बारे में परमेश्वर के वचन में दिए गए निर्देश और
उदाहरण (1 थिस्सलुनीकियों 5:21; प्रेरितों 17:11) का पालन करता
है, कि उनसे जो कहा और उन्हें जो सिखाया जा रहा है
उसे स्वीकार करने और मानने से पहले उसे परमेश्वर के वचन से जाँच और परख लें, सत्यापित कर लें।
·
दूसरा, बाइबल अध्ययन करने और शिक्षाओं को
जाँचने तथा सत्यापित करने से संबंधित इस कमी के कारण, जो लोग मसीही सिद्धांतों और परमेश्वर के वचन से संबंधित गलत बातों को सिखाते और प्रचार करते हैं, उन्हें मसीही समाज में अपनी गलत शिक्षाओं को भर देने तथा
असमंजस और अनिश्चितता को फैलाने का बहुत आसान निर्बाध अवसर मिलता रहता है (प्रेरितों 20:29-30; 1 तिमुथियुस 4:1).
परमेश्वर के वचन, बाइबल में जिन शब्दों का हिन्दी अनुवाद “भविष्यवाणी” किया गया है, वे नए
नियम की मूल यूनानी भाषा में propheteuo (प्रोफ-अटे-यू) है, जिसका शब्दार्थ होता है आने वाली घटनाओं के बारे में बताना, ईश्वरीय प्रेरणा के अन्तर्गत बोलना, भविष्यद्वक्ता की ज़िम्मेदारी निभाना; और पुराने नियम की इब्रानी भाषा का शब्द है, naba (ना-बा) जिसका अर्थ होता आने वाली बातें बताना, प्रेरणा के द्वारा बोलना या भजन गाना। उपरोक्त
बातों को ध्यान में रखते हुए हम परमेश्वर के वचन में से देखते हैं कि इन शब्दों को
किन विभिन्न प्रकार से उपयोग किया गया है। यह पुनःअवलोकन हमें दिखता है कि अनुवाद “भविष्यवाणी”
मूल रूप में किन अर्थों के साथ प्रयोग किया गया है। इन शब्दों के प्रयोग के कुछ
उदाहरण हैं:
o किसी ‘ईश्वर या देवता’ के नाम में पुकारना – 1 राजाओं 18:29 – बाल के पुजारियों ने उसके
नाम को पुकारा
o समक्ष बोलना; अर्थात, लोगों के सामने या लोगों को संबोधित करते हुए किसी विषय
पर बोलना या चर्चा करना। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि “नबी या भविष्यद्वक्ता”
जो भी कहे वह सभी सही होगा, या “भविष्यवाणी” होगी, या परमेश्वर की ओर से होगा। वरन, वास्तव में “भविष्यवाणी” वही है जो परमेश्वर के कहने पर कही
या की जाती है। साथ ही, परमेश्वर कभी भी इस बात के लिए बाध्य नहीं है कि यदि
कोई नबी या भविष्यद्वक्ता अपनी इच्छा, समझ, या बुद्धि से कुछ कहे तो उसे पूरा भी करे (उदाहरण के लिए, नातान ने दाऊद
के साथ सहमति जताई और उसे परमेश्वर का मंदिर बनाने की सलाह दी, जिसे परमेश्वर ने
तुरंत ही रद्द कर दिया – 1 इतिहास 17:1-4), परमेश्वर केवल वही बात
पूरी करेगा जो स्वयं उसने भविष्यद्वक्ता से उस की ओर से लोगों से कहें के लिए दी
है। इसके कुछ उदाहरण हैं:
§ 1 कुरिन्थियों 14:3 - केवल भविष्य में होने वाली बातें कहना ही
नहीं, वरन लोगों से उन्नति, उपदेश और शान्ति की बातें कहना।
§ यहेजकेल 37:4, 9-10 – परमेश्वर की
आज्ञा को बताना और मानना।
§ अमोस 3:8 – परमेश्वर के
प्रभाव या मार्गदर्शन में बोलना।
o किसी गुप्त या अज्ञात बात को बताना
§ Luke 22:64
– सैनिक प्रभु यीशु का ठट्ठा कर रहे थे उसे मार रहे थे और
पूछ रहे थे कि बताए कि किसने उसे मारा।
o आने वाली घटनाओं के बारे में पहले से ही बता देना
§ यहेजकेल 36:1, 3, 6; 37:12-14 - परमेश्वर की ओर से आने वाली बातों और घटनाओं
के बारे में बताना।
o भजन गाना, आराधना करना, और यह करते समय संगीत वाद्य बजाना
§ 1 इतिहास 25:1-6
– दाऊद द्वारा इस सेवकाई के लिए कुछ लोग अलग किए गए।
हिन्दी में “भविष्यवाणी”
अनुवाद किए गए मूल इब्रानी और यूनानी भाषा के शब्दों के इन कुछ उदाहरणों से, यह प्रकट है कि इन शब्दों को परमेश्वर के वचन में एक से
अधिक अर्थ और अभिप्राय के साथ प्रयोग किया गया है, हर बार “भविष्यवाणी” ईश्वरीय नहीं होती है, और न ही वह हमेशा “परमेश्वर का वचन” ही होती है, तथा न ही हमेशा ही आने वाली बातों और घटनाओं के बारे में बताती है। इसलिए
जब हमें “ईश्वरीय भविष्यवाणी” के दावों के साथ प्रभावित करने और हमें किसी बात को
मानने के लिए बाध्य करते हैं,तब हमें बहुत
सावधान होकर, उनकी बातों
को जाँच-परख कर ही सही निर्णय लेने वाला होना चाहिए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार
नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित
करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता
है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ
प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा
से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय
जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल
एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना
है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके
लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा
और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर
क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप
तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और
मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे
अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित
मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक
के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
There is a lot of confusion amongst Christians as to what does the term “to prophesy” really mean? The cause of this confusion is two-fold:
·
Firstly, most “Christians” do not spend
time in personal Bible study, or even reading the Bible for themselves. They
are content with receiving ‘second-hand’ information and knowledge about God’s
Word from other people, and have a tendency to believe practically everything
that anyone preaches or teaches to them in the name of God. Hardly anyone ever
takes time to obey the instructions and examples of God’s Word (1 Thessalonians
5:21; Acts 17:11) to cross-check and verify from God’s Word the things that are
told and taught to them, before accepting and following them.
·
Secondly, because of this personal
deficiency of Bible reading and study and of not cross-checking the messages
received, those preaching and teaching wrong things and doctrines related to
Christianity and God’s Word, have an easy opportunity to infiltrate Christendom
with their erroneous teachings, and generate this confusion that is seen about
many things (Acts 20:29-30; 1 Timothy 4:1).
In God’s Word, the Bible, the words translated as “prophesy”
are, in Greek of the New Testament propheteuo (prof-ate-yoo'-o), meaning to foretell events, speak under divine inspiration, exercise the
prophetic office; and in Old Testament Hebrew, naba' (naw-ɓaw') which means to prophesy, i.e., speak (or sing) by
inspiration (in prediction or simple discourse). Keeping this in mind, we see the various ways in which
these words have been translated in God’s Word. This review of the way these
words have been used provides to us an indicator of what the word “to prophesy”
can mean. Some of the ways that these words have been used are:
o To call out in the name of 'god'
§ 1 Kings 18:29
- the prophets of Baal called out to
their god.
o To speak forth; i.e., to speak to others or to address people on a particular topic. But this does not mean that anything and everything a "Prophet" speaks
is necessarily a "prophecy" or is from God; rather only that which God asks Him to speak or do is actually
a “prophecy”. Moreover, neither is God obliged to do whatever a "Prophet" may speak in
his own will or wisdom or understanding (e.g., Nathan concurring and advising David to build the
Temple, which was immediately rejected by God – 1 Chronicles
17:1-4), but God will fulfil only that which He specifically has said and asked the Prophet to say to the people on His behalf.
§ 1 Corinthians 14:3 - to
edify, to exhort and to comfort men by their words. Not necessarily fore-tell
the future events.
§ Ezekiel 37:4, 9-10 - Speak and execute
God's command.
§ Amos 3:8 - To speak under
the influence or guidance of of God.
o To speak to reveal a hidden thing
§ Luke 22:64
- in mocking Lord Jesus ask Him to prophesy who struck Him
o To speak to foretell the coming events
§ Ezekiel 36:1, 3, 6; 37:12-14
- foretell of the coming blessing and deliverance
§ To sing and worship, including playing musical instruments
§ 1 Chronicles
25:1-6 - people separated and appointed by David for this ministry
From these few examples of the way the words translated as “prophecy” in
English have been used in the original Hebrew and Greek languages, it is
apparent that more than one meaning have been ascribed to these words, not every
time is the “prophecy” of divine origin, nor is it always “God’s Word”, and it
does not necessarily mean telling about things or events to happen in the
future. Therefore, we need to be very cautious and discerning when people try
to impress and impose upon us their own thoughts as a “divine prophecy”.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your
decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and
heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is
respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of
the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of
your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the
only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but
sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart,
and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can
also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am
sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon
yourself, paying for them through your life.
Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you
rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are
the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and
redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me
under your care, and make me your disciple. I submit my life into your
hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your
present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and
blessed for eternity.