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सोमवार, 14 अगस्त 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 33 – The Law’s Demands / व्यवस्था की माँगें – 1

व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 24

व्यवस्था की माँगें (भाग 1)

पिछले कुछ लेखों में व्यवस्था की सीमाओं और फिर व्यवस्था के उद्देश्यों को देखने के बाद, हमने पिछले लेख के समापन पर व्यवस्था की एक बड़ी माँग का उल्लेख किया था, जो उसके उद्धार या पापों की क्षमा न दे पाने का एक और भी कारण है।

 

व्यवस्था के अनुसार चलने और जीने के लिए दो बड़ी कठिन शर्तें हैं:

·        गलातियों 3:10 सो जितने लोग व्यवस्था के कामों पर भरोसा रखते हैं, वे सब श्राप के आधीन हैं, क्योंकि लिखा है, कि जो कोई व्यवस्था की पुस्तक में लिखी हुई सब बातों के करने में स्थिर नहीं रहता, वह श्रापित है

·        याकूब 2:10 क्योंकि जो कोई सारी व्यवस्था का पालन करता है परन्तु एक ही बात में चूक जाए तो वह सब बातों में दोषी ठहरा


अर्थात यदि व्यवस्था का पालन होना है तो उसकी संपूर्णता में, बिना किसी एक भी बात में चूके हुए होना है। यदि एक भी बात में चूके तो, पूरी व्यवस्था में चूके, और पूरी व्यवस्था के दोषी माने जाएंगे। और हम पहले देख चुके हैं कि पाप मनुष्य में बसा हुआ है, यहाँ तक कि उद्धार पाए हुए मसीही विश्वासियों से भी बहुधा पाप होता ही रहता है (रोमियों 7:15-20, याकूब 3:1-2, 1 यूहन्ना 1:8-10)। तो तात्पर्य प्रकट है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य से, मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में पाप, अर्थात व्यवस्था का उल्लंघन होता ही रहता है, इसलिए कोई भी मनुष्य कभी व्यवस्था का उसकी संपूर्णता में, उस खराई से जो कि उसका पालन करने के लिए अनिवार्यतः चाहिए, कभी पालन नहीं करने पाया है। इसे एक सामान्य उदाहरण से समझिए; आप घर से बाहर बिलकुल साफ कपड़े पहन कर निकलते हैं, और बाहर सड़क पर चल रहे किसी वाहन से कीचड़ उछलती है, और कुछ छीटें आपके कपड़ों पर इधर-उधर गिर जाते हैं। आपके शेष सभी वस्त्र साफ हैं, केवल गंदगी की कुछ छीटें ही इधर-उधर लगी हैं, किन्तु फिर भी पूरे वस्त्र ही गंदे माने जाएंगे, बदले जाएंगे, और धोए जाएंगे। इसी प्रकार एक भी बात में व्यवस्था का दोषी होना, पूरे चरित्र पर “दोषी” का लेबल लगा देता है, व्यवस्था की धार्मिकता और शुद्धता के अयोग्य ठहरा देता है। 


इसीलिए पतरस ने कहा, “तो अब तुम क्यों परमेश्वर की परीक्षा करते हो कि चेलों की गरदन पर ऐसा जूआ रखो, जिसे न हमारे बाप दादे उठा सके थे और न हम उठा सकते” (प्रेरितों 15:10)। केवल प्रभु यीशु मसीह ने हमारे लिए व्यवस्था को पूरा किया, और व्यवस्था तथा उसके पालन को हमारे सामने से हटा दिया: “और उसने तुम्हें भी, जो अपने अपराधों, और अपने शरीर की खतनारहित दशा में मुर्दा थे, उसके साथ जिलाया, और हमारे सब अपराधों को क्षमा किया। और विधियों का वह लेख जो हमारे नाम पर और हमारे विरोध में था मिटा डाला; और उसको क्रूस पर कीलों से जड़ कर सामने से हटा दिया है। और उसने प्रधानताओं और अधिकारों को अपने ऊपर से उतार कर उन का खुल्लमखुल्ला तमाशा बनाया और क्रूस के कारण उन पर जय-जय-कार की ध्वनि सुनाई” (कुलुस्सियों 2:13-15)। इसलिए व्यवस्था का पालन या कर्मों की धार्मिकता उद्धार दे पाने के लिए अपर्याप्त है (मत्ती 5:20), अक्षम है।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

 

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Why The Law Cannot Save Us – 24

Laws Demands (Part 1)

 

    After looking at the limitations of the Law and then the Law's purposes in the previous articles, at the end of the previous article, we concluded with the mention of a great demand of the Law, which is yet another reason why it was unable to give salvation or forgiveness of sins.


    To live and walk according to the law, two very difficult conditions have to be adhered to; they are:

  • Galatians 3:10 “For as many as are of the works of the law are under the curse; for it is written, ‘Cursed is everyone who does not continue in all things which are written in the book of the law, to do them’”.
  • James 2:10 “For whoever shall keep the whole law, and yet stumble in one point, he is guilty of all”.


    In other words, if the Law is to be followed, it has to be done in its entirety, without missing out on anything. If one misses on even one thing, he will be guilty of disobeying the whole Law, and will be considered guilty of the whole Law. And we've seen before that sin is ingrained in man, that even the saved Christians often sin (Romans 7:15-20, James 3:1-2, 1 John 1:8-10). So, the implication is evident; since everyone sins, in mind-thoughts-deeds-behavior; therefore, everyone violates the Law. So, no man can ever follow the Law in its entirety, with the diligence that is required to obey it. Let us understand this with a simple example; You walk out of the house wearing very clean clothes, and a vehicle on the road outside splatters some roadside debris and mud; some of the drops fall here and there on your clothes. All the rest of your clothes are clean, with only a few specks of dirt splattered here and there; still your whole garment will be considered dirty, will have to be changed, and washed. Similarly, being guilty of transgressing or being unable to follow the Law in even one thing, labels the person as "guilty", and disqualifies from being declared righteous and pure by the Law.


    That's why Peter said, "Now therefore, why do you test God by putting a yoke on the neck of the disciples which neither our fathers nor we were able to bear?" (Acts 15:10). The Lord Jesus Christ was the only one who fulfilled the Law for us, and took away the necessity of obeying the Law from before us: “And you, being dead in your trespasses and the uncircumcision of your flesh, He has made alive together with Him, having forgiven you all trespasses, having wiped out the handwriting of requirements that was against us, which was contrary to us. And He has taken it out of the way, having nailed it to the cross. Having disarmed principalities and powers, He made a public spectacle of them, triumphing over them in it" (Colossians 2:13-15). Therefore, the keeping of the Law or trying to be righteous by works is insufficient to give salvation (Matthew 5:20), the Law is unable to do so.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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