Click Here for the English Translation
सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 8
अभी तक हमने इस श्रृंखला में देखा है कि मसीही विश्वासियों और कलीसिया की आत्मिक बढ़ोतरी एवं उन्नति के लिए, उन्हें बाइबल से भली-भान्ति अवगत होना अनिवार्य है। बाइबल की जिन शिक्षाओं को सीखना, जानना, और आगे दूसरों को पहुँचाना अनिवार्य है, उनमें से एक प्रकार की शिक्षाएँ, सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाएँ हैं; अर्थात, यह सीखना कि बाइबल के अनुसार वास्तव में सुसमाचार क्या है और पश्चाताप तथा सुसमाचार में विश्वास करने से सम्बन्धित शिक्षाएँ क्या हैं। किसी व्यक्ति के द्वारा प्रदर्शित किया जा रहा मन-फिराव या पश्चाताप सच्चा और वास्तविक भी हो सकता है, और झूठा तथा सँसार या लोगों को दिखाने मात्र के लिए ढोंग भी हो सकता है। इन सच्चे और झूठे मन-फिराव के मध्य अन्तर, उस मन-फिराव के द्वारा लाए गए प्रभावों के द्वारा होता है; सच्चे पश्चाताप के साथ जीवन में परिवर्तन, परमेश्वर के वचन के प्रति निरन्तर बना रहने और बढ़ते जाने वाला प्रेम, तथा औरों तक भी मन-फिराव के सन्देश को पहुँचाना जुड़े हुए होते हैं, जो दिखावटी पश्चाताप के साथ नहीं होते। हाल के लेखों में हम सच्चे मन-फिराव के साथ व्यक्ति के जीवन में आने वाले परिवर्तनों के विभिन्न पक्षों को देख रहे हैं; और पिछले लेख में हमने रोमियों 12:1-2 से इसके बारे में देखा था। आज हम देखेंगे कि यह परिवर्तन किस लिए है, अर्थात, क्यों परमेश्वर इतनी दृढ़ता से इस परिवर्तन को पश्चाताप करने वालों तथा सुसमाचार पर विश्वास करने वालों के जीवन में देखना चाहता है।
हमने पिछले लेख में देखा है कि यह परिवर्तन स्वेच्छा से होना चाहिए, पश्चातापी व्यक्ति को स्वेच्छा से अपने आप को प्रभु के सम्मुख “जीवता बलिदान” अर्पित करना चाहिए। जब वह ऐसा करता है, परमेश्वर उसकी बुद्धि को नया कर देता है; और एक बार फिर, अब यह उस व्यक्ति की ज़िम्मेदारी हो जाती है कि वह इस नई बुद्धि के द्वारा अपने जीवन और व्यवहार में परिवर्तन ला कर दिखाए। प्रत्येक मसीही विश्वासी के अन्दर निवास करने वाला परमेश्वर का पवित्र आत्मा, इसमें उसकी सहायता और मार्गदर्शन करता है, यदि वह व्यक्ति पवित्र आत्मा के कहे हुए को मानता रहता है, न कि शरीर और सँसार की लालसाओं में बना रहता है (गलतियों 5:16-25; इफिसियों 4:22-24)। जैसा कि पौलुस ने पवित्र आत्मा के द्वारा 2 कुरिन्थियों 5:14-17 में कहा है, परमेश्वर के दृष्टिकोण से प्रत्येक नया जन्म पाया हुआ व्यक्ति अपने पुराने रूप से केवल साफ़-सफाई किया गया जन नहीं होता है। वह ठोक-पीट कर, काट-छांट कर, मरम्मत किया हुआ और रंग-रोगन लगाकर चमकाया गया व्यक्ति नहीं है; बल्कि पुरानी सारी बातें बीत गई हैं, वह परमेश्वर की एक पूर्णतः नई सृष्टि है; और इस नए बनाए जाने को उसे प्रत्यक्ष दिखाना है। परमेश्वर ने ऐसा एक उद्देश्य के अन्तर्गत किया है – ताकि नया-जन्म पाया हुआ जन अब केवल अपने ही लिए न जिए, वरन अपने छुड़ाने वाले के लिए जीए। एक बार फिर से हम देखते हैं कि यह इच्छा, अपने छुड़ाने वाले के लिए जीवन जीने की लालसा रखने का यह परिवर्तन, उस पश्चातापी व्यक्ति द्वारा स्वेच्छा से ही आरम्भ होना है, उसी को इसकी पहल करनी है – परमेश्वर यह परिवर्तन होता हुआ देखना चाहता है, लेकिन इसे आरम्भ उस व्यक्ति को करना है।
व्यक्ति में इस परिवर्तन को होता हुआ देखने के पीछे परमेश्वर के दो उद्देश्य हैं। पहला, जिस से अधिकाँश परिचित हैं, अर्थात, क्योंकि इससे परमेश्वर की महिमा होती है – यह मसीही विश्वासी के जीवन का उद्देश्य होना चाहिए कि वह अपने जीवन से परमेश्वर को महिमा दे। पौलुस ने कुरिन्थुस की मंडली को लिखी अपनी पहली पत्री में इस बात पर जोर दिया, जब उसने लिखा कि “क्या तुम नहीं जानते, कि तुम्हारी देह पवित्रात्मा का मन्दिर है; जो तुम में बसा हुआ है और तुम्हें परमेश्वर की ओर से मिला है, और तुम अपने नहीं हो? क्योंकि दाम देकर मोल लिये गए हो, इसलिये अपनी देह के द्वारा परमेश्वर की महिमा करो” (1 कुरिन्थियों 6:19-20)। और अधिकाँश विश्वासी सोचते हैं बस यही, इतनी ही बात है, और कुछ नहीं – उन्हें एक बदला हुआ जीवन इस लिए जीना है ताकि परमेश्वर को महिमा मिले। और यद्यपि यह सामान्यतः बोला या व्यक्त तो नहीं किया जाता है, लेकिन अधिकाँश लोगों को यह करना कुछ विशेष आकर्षक प्रतीत नहीं होता है – कि उन्हें अपने में एक भारी परिवर्तन लाना है, परिवर्तन की उस प्रक्रिया से होकर निकलना है, बहुत सारी बातों को छोड़ देना है, और इस सब के बाद, अन्त में उन्हें नहीं, वरन परमेश्वर को सारी महिमा मिलेगी! इससे बहुतेरों में परिवर्तन को लेकर उत्साह ठण्डा पड़ जाता है, क्योंकि यह विचार भी आता है कि इसमें मेरे लिए भी तो कुछ होना चाहिए था। और इसलिए, यह देखना कोई अनहोनी बात नहीं है कि लोगों में इस परिवर्तन की प्रक्रिया को आरम्भ करने के लिए आगे कदम बढ़ाने में संकोच होता है, और यदि प्रक्रिया आरम्भ कर भी ली तो वे उसकी गति को बनाए रखने में ढीले पड़ जाते हैं। यदि उन्होंने इस परिवर्तन की अनिवार्यता के पीछे के परमेश्वर के दूसरे उद्देश्य को जाना और समझा होता, तो परिवर्तन को लेकर उनका सम्पूर्ण रवैया बिलकुल भिन्न होता। इस दूसरे उद्देश्य को हम अगले लेख में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
******************************************************************
Teachings Related to the Gospel – 8
So far in this series, we have seen that for the spiritual growth and maturity of the Christian Believers and the Church, they must get well versed in the Bible. Amongst the essential Biblical teachings that they should learn, know, and pass on to others, one kind of teachings are the teachings related to the gospel; i.e., learning what the gospel according to the Bible actually is, and teachings about repentance and believing in the gospel. Repentance exhibited by a person can be both true and heartfelt, or false just something meant to show to the world. The differentiating features between true and false repentance are the change in life that accompanies true repentance, along with the person developing and continuing in love for God’s Word and getting a desire to bring others into true repentance as well; things that are not seen with false repentance. In the recent articles we have been considering the various aspects of the change that happens in a person’s life on truly repenting; and in the last article we had seen about this from Romans 12:1-2. Today, we will see about what this change is directed at, i.e., why does God so resolutely want to see this change happen in the lives of those who repent and believe in the gospel.
We have seen in the last article that this change has to come voluntarily, the repentant person has to voluntarily present himself as a “living sacrifice” to the Lord. When he does this, God renews his mind; and then again it is the person’ responsibility to demonstrate this renewal of the mind through a changed life and behavior. The Holy Spirit of God residing in every Born-Again Believer helps and guides him in this, provided the person continues to obey the Holy Spirit, instead of the lusts of the flesh and the world (Galatians 5:16-25; Ephesians 4:22-24). As Paul says through the Holy Spirit in 2 Corinthians 5:14-17, from God’s perspective, every Born-Again person is not merely a cleaned and brushed-up version of his former self. He is not just repaired, trimmed, dented, painted, and polished to look new, but all the old things have passed away and he is an altogether new creation of God; and this newness has to be made evident. God has done this with a purpose – so that this Born-Again person should no longer live for himself, but live for his redeemer. Once again, we see that this desire, this change of having a desire of living for His redeemer, has to begin, has to come from the repentant person himself – God does want to see it happen, but the person has to initiate it.
There are two reasons why God wants to see this change in the person. The first many are familiar with, i.e., because it glorifies God – it must be the Believer’s purpose in life to glorify God through his life. Paul emphasized this in his first letter to the Corinthians, when he wrote, "Or do you not know that your body is the temple of the Holy Spirit who is in you, whom you have from God, and you are not your own? For you were bought at a price; therefore, glorify God in your body and in your spirit, which are God's" (1 Corinthians 6:19-20). And most Believers think this is all that there is to it – they are to live a changed life, so that God may be glorified. And though often unexpressed, but it does not seem to be a very appealing proposition to many – that they should radically change, they undergo this process of change, they give up on so many things, but at the end not they, but God gets all the glory! It dampens the enthusiasm for change in many, because they feel that there should have been something in it for them also. And so, it is not uncommon to see a reluctance in stepping up to start the process of change, and a tardiness in progressing through the change. Had they been aware of and understood the second reason of the necessity for this change that God wants to see in a Christian Believer’s life, their whole attitude towards the change would have been quite different. We will consider this second reason in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.