मसीही विश्वासी के प्रयोजन (1)
हमने पिछले लेखों में देखा है कि
परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार प्रभु यीशु का अनुयायी होना किसी धर्म का निर्वाह
करना नहीं है; और न
ही यह वंशागत - किसी परिवार विशेष में जन्म ले लेने के द्वारा स्वाभाविक रीति से
और स्वतः ही प्राप्त हो जाने वाला कोई विशेषाधिकार है। न तो प्रभु यीशु मसीह ने
कभी कोई धर्म बनाया; न कभी अपने नाम से किसी धर्म के बनाए
जाने की शिक्षा अथवा निर्देश दिए; न ही कभी लोगों के धर्म
परिवर्तन करने के लिए कहा; और न ही कभी ऐसा कोई आश्वासन अथवा
ऐसी कोई प्रतिज्ञा दी कि जो उसके अनुयायी हो जाएंगे, उनकी
संतान और भावी पीढ़ियाँ भी स्वतः ही यह विशेषाधिकार प्राप्त करती चली जाएंगी। जिसे
भी मसीह यीशु का अनुयायी होना है, उसे व्यक्तिगत रीति से,
स्वेच्छा तथा सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु मसीह से अपने पापों की क्षमा माँगकर, पापों
की क्षमा के लिए प्रभु यीशु द्वारा कलवरी के क्रूस पर दिए गए बलिदान - उनके मारे
जाने, गाड़े जाने और तीसरे दिन मृतकों में से जी उठाने को
स्वीकार करना होगा, और यीशु को प्रभु मानकर अपने आप को
उन्हें समर्पित कर देना होगा; इसे ही उद्धार या नया जन्म
प्राप्त करना कहते हैं, जिसके बिना कोई परमेश्वर के राज्य
में प्रवेश तो दूर, उसे देख भी नहीं सकता है (यूहन्ना 3:3, 5,
7)। यह उस व्यक्ति के मसीही जीवन का आरंभ है, इस विशिष्ट
जीवन यात्रा में उठाया गया पहला कदम है। इस बिन्दु से लेकर फिर उसके शेष जीवन भर
वह प्रभु यीशु के वचन और आज्ञाकारिता से सीखता रहता है, प्रभु
तथा उस व्यक्ति में निवास करने वाले पवित्र आत्मा के चलाए चलता रहता है, और प्रभु उसे अंश-अंश करके अपने स्वरूप में बदलता चला जाता है (2 कुरिन्थियों
3:18)।
प्रभु यीशु मसीह ने अपनी पृथ्वी की
सेवकाई के दिनों में अपने पीछे चलने वाले लोगों की भीड़ में से बारह लोगों को चुना, जिन्हें उसने प्रेरित
कहा (लूका 6:13)। प्रभु ने भविष्य में सारे संसार भर में जाकर
प्रभु में उपलब्ध पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार के प्रचार और प्रसार करने
का दायित्व इन्हीं को सौंपा, और इस महान एवं महत्वपूर्ण
कार्य के लिए इन्हें लगभग साढ़े-तीन वर्ष तक प्रशिक्षित किया। यहूदा इस्करियोती के
अलग हो जाने के बाद इस सेवकाई में आगे चलकर पौलुस को जोड़ दिया गया, उसे भी प्रेरित कहा गया। जब प्रभु ने उन बारह शिष्यों को चुना था, तो उनके लिए प्रभु यीशु का एक विशेष प्रयोजन था, जिसके
अंतर्गत वह उन्हें उनकी सेवकाई और कार्य के लिए, तथा उसके
गवाह होने के लिए तैयार करने जा रहा था। उसके इस प्रयोजन को हम मरकुस 3:13-15
में देखते हैं: “फिर वह पहाड़ पर चढ़ गया,
और जिन्हें वह चाहता था उन्हें अपने पास बुलाया; और वे उसके पास चले आए। तब उसने बारह पुरुषों को नियुक्त किया, कि वे उसके साथ साथ रहें, और वह उन्हें भेजे,
कि प्रचार करें। और दुष्टात्माओं के निकालने का अधिकार रखें।” मरकुस के इस खंड में प्रभु ने तीन प्रयोजन अपने
शिष्यों के लिए रखे हैं; और वे जिस क्रम में रखे हैं,
वह भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम देखते हैं कि क्रम के पहले से तीसरे को बढ़ते जाने तक, परिपक्वता में बढ़ने के साथ,
दायित्व एवं कौशल भी बढ़ता जाता है। पद 14 और 15 में दिए
गए ये तीन प्रयोजन हैं:
1. वे उसके साथ साथ रहें (पद 14)
2. वह उन्हें भेजे, कि प्रचार करें (पद 14)
2.1. भेजे जाने को तैयार हों
2.2. जहाँ और जब प्रभु कहे वहाँ और तब जाएं
2.3. प्रभु के कहे के अनुसार प्रचार करने को
तैयार हों
3. दुष्टात्माओं के निकालने का अधिकार रखें (पद 15)
यह हमारे प्रभु
परमेश्वर के बारे में एक महत्वपूर्ण तथ्य भी प्रकट करता है - परमेश्वर का कोई
कार्य, कोई बात निरुद्देश्य नहीं होती है। जैसा प्रभु यीशु
मसीह ने कहा कि सृष्टि करने के हजारों वर्ष बाद भी जिस प्रकार परमेश्वर अभी भी
कार्य कर रहा है, उसी प्रकार प्रभु यीशु भी काम में लगा हुआ
है “इस पर यीशु ने उन से कहा, कि
मेरा पिता अब तक काम करता है, और मैं भी काम करता हूं”
(यूहन्ना 5:17); और हम देख चुके हैं कि प्रभु
आज भी हमारे सहायक के रूप में कार्य कर रहा है “हे मेरे बालकों, मैं ये बातें तुम्हें इसलिये लिखता हूं, कि तुम पाप न
करो; और यदि कोई पाप करे, तो पिता के पास
हमारा एक सहायक है, अर्थात धार्मिक यीशु मसीह” (1 यूहन्ना 2:1), और हमारे
लिए स्थान भी तैयार कर रहा है “मेरे पिता के घर में बहुत
से रहने के स्थान हैं, यदि न होते, तो
मैं तुम से कह देता क्योंकि मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूं”
(यूहन्ना 14:2)। इसी प्रकार से प्रभु परमेश्वर
ने प्रत्येक मसीही विश्वासी के करने के लिए भी पहले ही से कुछ-न-कुछ कार्य
निर्धारित कर के रखा हुए हैं “क्योंकि हम उसके बनाए हुए
हैं; और मसीह यीशु में उन भले कामों के लिये सृजे गए जिन्हें
परमेश्वर ने पहिले से हमारे करने के लिये तैयार किया” (इफिसियों
2:10)। अर्थात मसीही विश्वासी होने का अर्थ यह नहीं है कि
व्यक्ति परिश्रम न करे, और केवल परमेश्वर या मण्डली से ही
अपेक्षा रखे कि उनके द्वारा उसकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे।
मसीह यीशु के
शिष्यों के लिए संदेश और निर्देश स्पष्ट है - परमेश्वर पिता के समान प्रभु यीशु भी
कार्य करता रहा; प्रभु ने शिष्यों को चुना और उनके लिए भी
प्रयोजन रखे; और भावी मसीही शिष्यों के लिए भी यही शिक्षा और
निर्देश दिए कि मसीही सेवकाई में संलग्न होने पर भी वे औरों पर बोझ न बने, परंतु अपने ही परिश्रम से अपना जीवन यापन करें, तथा
औरों की भी सहायता करें। मसीही विश्वासी होने का अर्थ औरों पर निर्भर होकर अपना घर
चलाना नहीं है, वरन प्रभु के लिए उपयोगी बनकर प्रभु के घर के
लिए कार्य करना है। प्रभु यीशु के शिष्यों के लिए प्रभु के उपरोक्त तीनों प्रयोजनों
के बारे में हम आगे देखेंगे। किन्तु अभी, हम सभी के लिए परमेश्वर
के वचन बाइबल की शिक्षाओं के आधार पर भली-भांति जाँच-परख कर, प्रभु यीशु द्वारा सिखाए गए सच्चे मसीही विश्वास की सच्चाइयों तथा हमारे जीवनों
के लिए प्रभु परमेश्वर के प्रयोजनों का पालन करना अनिवार्य है, न कि शैतान द्वारा मसीह यीशु के नाम से बनाए और फैलाए गए भ्रम में फँसे रहने
का।
इसलिए समय तथा अवसर के रहते आज ही, अभी ही, धर्म-कर्म-रस्म की व्यर्थ धारणा एवं मान्यता से निकलकर प्रभु यीशु मसीह की
वास्तविक शिष्यता में आना और उसे निभाना अनिवार्य है। कहीं ऐसा न हो कि जब परलोक
में आँख खुले तब पता लगे कि जिस धर्म का सारे जीवन बड़ी निष्ठा से निर्वाह करते रहे
उससे कोई लाभ नहीं हुआ, और अब उस गलती को सुधारने का कोई
अवसर पास नहीं है; अब तो केवल अनन्तकाल का दण्ड ही मिलेगा।
यदि आप अभी भी संसार के साथ और संसार के समान जी रहे हैं, या
परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की मानसिकता में
भरोसा रखे हुए हैं, तो आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की
स्थिति को सुधारने का अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर,
स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर
दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे
मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और
साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल
पढ़ें:
- यशायाह
50-52
- 1 थिस्सलुनीकियों 5