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गुरुवार, 21 जुलाई 2022

मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा की भूमिका /The Holy Spirit in Christian Ministry – 2


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आवश्यकता

 

पिछले लेख में हमने देखा था कि सफल और प्रभावी मसीही सेवकाई केवल परमेश्वर पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता और मार्गदर्शन के द्वारा ही संभव है। कोई भी शैक्षिक योग्यता अथवा प्रशिक्षण, कोई डिग्री प्राप्त कर लेना या कोर्स कर लेना तब तक प्रभु के लिए फलवंत और प्रभु को स्वीकार्य नहीं हो सकता है, जब तक व्यक्ति पवित्र आत्मा की अगुवाई में उस प्रशिक्षण का उपयोग, परमेश्वर की इच्छा के अनुसार ना करे। मसीही सेवकाई, मत्ती 28:19-20 के अनुसार, लोगों को प्रभु यीशु का शिष्य बनाना है और उन्हें, जो शिष्य बन जाते हैं, बपतिस्मा देना और प्रभु की बातें सिखाना है। शिष्य बनाने और फिर उन्हें प्रभु की बातें सिखाने में उन विभिन्न वरदानों का उपयोग होता है, जो परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रत्येक मसीही विश्वासी को देता है (रोमियों 12:6-8; 1 कुरिन्थियों 12:4-11)। यही अपने आप में स्पष्ट कर देता है कि क्यों जब तक परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और मार्गदर्शन साथ नहीं है, कोई भी सफल और प्रभावी मसीही सेवकाई नहीं कर सकता है।

 

हमारे ध्यान देने के लिए, मसीही सेवकाई से संबंधित एक और बात है जो बहुत ही आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है; और जिसका बहुधा ध्यान नहीं किया जाता है, किन्तु जिसके तात्पर्य और महत्व बहुत गंभीर हैं। जब प्रभु यीशु ने अपने बारह शिष्य चुने, उन्हें ‘प्रेरित’ कहा, तब उनमें से एक यहूदा इस्करियोती भी था। अन्य सभी शिष्यों के समान, प्रभु यीशु से वचन की शिक्षाएं, प्रशिक्षण, तथा अधिकार तो यहूदा इस्करियोती ने भी पाया था; अन्य शिष्यों के साथ सेवकाई के लिए वह भी गया था; उस समय प्रभु यीशु का प्रचार तो उसने भी किया था, और हो सकता है कि शिष्यों के समान उसने आश्चर्यकर्म भी किए होंगे; किन्तु अंततः परिणाम क्या हुआ? प्रभु यीशु ने उसे “विनाश का पुत्र” (यूहन्ना 17:12)  बताया, जो नाश हो गया। उसके साथ न तो प्रभु का अनुग्रह था - जिसे वह उस फसह के पर्व के भोज से चले जाने के द्वारा, जिसे प्रभु अपने शिष्यों के साथ मना रहा था (यूहन्ना 13:21-30), ठुकरा चुका था; और न पवित्र आत्मा की सामर्थ्य अथवा मार्गदर्शन था। उसका प्रभु के साथ रहने का अनुभव, प्रभु से मिली शिक्षाएं और अधिकार, उसका प्रभु के चुने हुए बारह शिष्यों में गिना और ‘प्रेरित’ कहलाया जाना (मत्ती 10:1-4), सब निरर्थक और व्यर्थ हो गया। इस उदाहरण से हम क्या महत्वपूर्ण शिक्षा ले सकते हैं? इस उदाहरण पर मत्ती 7:21-23 और 2 कुरिनथियों 11:13-15 के संदर्भ में विचार कीजिए; इससे यह प्रत्यक्ष और स्पष्ट है कि लोग प्रभु यीशु के नाम में बहुत प्रचार और प्रभावी आश्चर्यकर्म कर सकते हैं, किन्तु वासत्विकता में वो प्रभु यीशु के नहीं किन्तु शैतान के लोग हो सकते हैं जो लोगों को अनंत विनाश में बहका कर ले जा सकते हैं। प्रभु यीशु के नाम में प्रभावी और उत्तेजित करने वाला प्रचार करना और शिक्षाएं देना, अद्भुत आश्चर्यकर्म करना, आदि यह प्रमाणित नहीं करता है कि व्यक्ति प्रभु यीशु का सच्चा शिष्य है। उसका प्रभु यीशु का सच्चा और समर्पित शिष्य होना, उसके द्वारा परमेश्वर के वचन से प्रेम करना और वचन की आज्ञाकारिता में चलने के द्वारा होता है (यूहन्ना 13:34-35; 14:21, 23)। जो भी प्रभु यीशु का सच्चा शिष्य होगा, उसके जीवन में पवित्र आत्मा के फल (गलातीयों 5:22-24) भी दिखाई देंगे और उसके शिष्य होने की पुष्टि करेंगे।

 

प्रभु ने जब अपने शिष्यों को सुसमाचार प्रचार और मसीही सेवकाई के लिए जाने को कहा, तो वह उन्हें एक बहुत बड़े जोखिम में भेज रहा था; सृष्टि के सबसे सामर्थी, चतुर, और धूर्त एवं कुटिल हस्ती, शैतान, के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेज रहा था। परमेश्वर के बाद, शैतान ही है जिसकी सामर्थ्य है। परमेश्वर का वचन बाइबल हमें बताती है कि: 

  • सारा संसार उस दुष्ट के वक्ष में पड़ा है (1 यूहन्ना 5:19); 

  • वह अपनी चतुराई से परमेश्वर के लोगों को उनकी पवित्रता और मन की सिधाई से बहका सकता है, उन्हें भ्रष्ट कर सकता है (2 कुरिन्थियों 11:3) - ध्यान कीजिए कि जब आदम और हव्वा बहकाए गए और पाप में गिरे, तब वो निष्पाप और पवित्र दशा में थे, सृष्टि में पाप का अस्तित्व ही नहीं था, वे दोनों परमेश्वर के साथ ऐसी संगति में रहते थे जिसकी आज हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं। लेकिन फिर भी शैतान ने उन्हें बहका कर पाप में गिरा दिया। 

  • वह और उसके दूत ज्योतिर्मय स्वर्गदूत का रूप धारण करके, अपने आप को मसीह का प्रेरित दिखा कर गलत शिक्षाओं से लोगों को भरमा सकते हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15)।

  • उसके भरमाने की युक्तियों की सामर्थ्य का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि हज़ार वर्ष तक अथाह कुंड में कैद रहने के बाद जब उसे कुछ समय के लिए छोड़ा जाएगा, तब भी वह उन लोगों में से जिन्होंने परमेश्वर के राज्य को हज़ार वर्ष तक देखा है, लोगों को भरमा कर परमेश्वर के विरुद्ध युद्ध करने के लिए तैयार कर लेगा (प्रकाशितवाक्य 20:7-9)। 

  • वह इतना धूर्त है कि देहधारी हुए परमेश्वर के वचन, प्रभु यीशु मसीह (यूहन्ना 1:1, 14), के समक्ष उसी के वचन का दुरुपयोग करने और प्रभु को बहकाने के प्रयास करने से पीछे नहीं हटा (मत्ती 4:1-11), तो फिर उसके सामने किसी मनुष्य के बाइबल ज्ञान या समझ की क्या हस्ती हो सकती है? 

  • वह स्वर्गदूतों को भी उनका कार्य करने से रोक के रखने, बाधित करने की सामर्थ्य रखता है (दानिय्येल 10:11-14)। 

  • पतरस ने मसीही विश्वासियों से कहा “सचेत हो, और जागते रहो, क्योंकि तुम्हारा विरोधी शैतान गरजने वाले सिंह के समान इस खोज में रहता है, कि किस को फाड़ खाए” (1 पतरस 5:8)। 


इस प्रबल, चतुर, और कुटिल शत्रु का सामना करके, उसके चंगुल से लोगों को निकालकर उन्हें अनन्त विनाश से अनन्त जीवन में ला पाना किसी भी मनुष्य की सामर्थ्य के बस की बात नहीं है। इसीलिए प्रभु ने शिष्यों से कहा कि जब तक वे परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य - उसका साथ, उसका मार्गदर्शन प्राप्त न कर लें, तब तक अपनी ही मानवीय बल-बुद्धि-सामर्थ्य के सहारे शैतान से लोहा लेने न निकलें। प्रभु जानता था कि यदि वे अपनी ही सामर्थ्य से शैतान का सामना करने के प्रयास करेंगे तो मुँह की खाएंगे, और परास्त तथा निराश होकर पीछे हट जाएंगे, असफल रहेंगे; इसके लिए उन्हें शैतान से अधिक सामर्थी की सहायता चाहिए होगी, और वह परमेश्वर स्वयं था, जो परमेश्वर पवित्र आत्मा उनके अंदर रहेगा, और उन्हें सक्षम तथा उपयोगी करेगा, यदि वे उसके आज्ञाकारी और समर्पित रहें।

 

प्रभु परमेश्वर ने सभी मसीही विश्वासियों के लिए सेवकाई रखी हुई है (इफिसियों 2:10), और परमेश्वर पवित्र आत्मा उन्हें उस सेवकाई के लिए उपयुक्त वरदान भी देता है (1 कुरिन्थियों 12:4-11), और उनकी सहायता तथा मार्गदर्शन भी करता है। यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो क्या आपने अपनी सेवकाई को पहचाना है, प्रभु परमेश्वर से उसके विषय प्रार्थना की और जानकारी ली है, परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा आपको उसके लिए दिए गए वरदानों को जाना और उनका उपयोग करना सीखा है? यदि नहीं, तो यह करना अपनी प्राथमिकता बनाएं, और अन्य सभी ‘सेवकाई के कार्यों’ को छोड़कर प्रभु द्वारा निर्धारित अपनी सेवकाई को पूरा करने में प्रयासरत हो जाएं। क्योंकि आपकी आशीष और अनन्तकाल के प्रतिफल उसी से हैं; आपकी वही सेवकाई परमेश्वर को स्वीकार्य होगी, और सफल रहेगी।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 29-30 

  • प्रेरितों 23:1-15


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English Translation


Necessity

We had seen in the previous article that an effective and successful Christian ministry is only possible under the guidance of the Holy Spirit and in obedience to the Lord God. Unless a person does it under the guidance of the Holy Spirit and in obedience to the Lord God, no training, educational qualification, or educational status, can be truly fruitful for the Lord and acceptable to Him. According to the ‘Great Commission’ (Matthew 28:18-20) given to the disciples at the time of His ascension, basically, the Christian ministry consists of making people the disciples of the Lord Jesus; then, those who decide to become the Lord’s disciples, they are to be baptized and taught the things that the Lord Jesus taught to His disciples. In making people the disciples of the Lord and then to teach them the things taught by the Lord Jesus, requires the utilization of various gifts, which the Holy Spirit gives to every Christian Believer, according to the ministry given to him (Romans 12:12:6-8; 1 Corinthians 12:4-11). This by itself makes it clear that unless the guidance and power of the Holy Spirit are with the person, he can never have an effective and successful Christian ministry.


We need to take note of another very important fact related to the Christian ministry, often not kept in mind, but of very serious implications and considerations. When the Lord Jesus chose His twelve disciples, called them ‘Apostles’, then one amongst them was Judas Iscariot. Like all the other disciples, Judas Iscariot too received the same teachings about God’s Word, the same training, and the same authority, as any other disciple. Judas too was sent along with the other disciples for the same ministry as the others were; therefore, he too must have similarly preached and quite likely done miraculous works as well, just as the others had. But ultimately, what was the outcome? The Lord called him the “son of perdition” (John 17:12), who went into eternal destruction. Judas had already rejected the grace of the Lord for him, when he walked out of the Last Supper the Lord was having with His disciples (John 13:21-30), and he did not have the power or guidance of the Holy Spirit. Judas’s staying with the Lord, learning from the Lord, being chosen and included amongst and called an ‘Apostle’ (Matthew 10:1-4), all turned out to be fruitless and vain. So, what important lesson do we draw from this example? Consider this example in the light of Matthew 7:21-23 and 2 Corinthians 11:13-15; it is evident that people can do a lot of preaching and miraculous works in the name of the Lord Jesus, and claiming to be the followers of the Lord Jesus, but actually be the agents of the devil, out to deceive and draw people away into destruction. It is not the powerful, impressive preaching and teaching, wonderful and miraculous works done in the name of the Lord that prove a person to be the follower of the Lord; but his obedience to God’s Word (John 13:34-35; 14:21, 23). Whosoever is a truly a disciple of the Lord, the presence of the fruits of the Holy Spirit in his life (Galatians 5:22-24) will affirm it.


When the Lord Jesus commissioned His disciples to go for preaching the gospel and their Christian ministry, He was sending them out into grave danger; He was sending them out to face the most devious, conniving, clever, and powerful creature in all of creation. After God, it is Satan who has the most power and abilities. God’s Word the Bible tells us about his power and abilities:

  • The whole world lies in his sway (1 John 5:19);

  • Through his craftiness he can deceive God’s people to fall from their holiness and simplicity of mind (2 Corinthians 11:3) - think it over, when Adam and Eve were beguiled and fell into sin in the Garden of Eden, they were in a sinless and holy state, sin did not exist there, and they were living in fellowship with God - a state we can only imagine presently; but still Satan was able to entice them into falling in sin!

  • Satan and his angels present themselves as apostles and messengers of the Lord Jesus to deceive people into accepting their wrong teachings and be misled (2 Corinthians 11:13-15).

  • The power of his deceptions can be understood by considering that when Satan will be released for a short while after being in the bottomless pit for a thousand years, even then will he be able to beguile and deceive from those people who have seen and experienced the rule of the Lord for a thousand years, and deceive them into going against God (Revelations 20:7-9).

  • Satan is so crafty that he had the boldness to go and misquote the Scriptures to the Living Word of God who became flesh (John 1:1, 14) and try to make Him fall into sin (Matthew 4:1-11). So, what chance does any man stand before him?

  • Satan has the power to obstruct the angels of God from carrying out their assignments (Daniel 10:11-14).

  • Peter warned the Christian Believers against him, “Be sober, be vigilant; because your adversary the devil walks about like a roaring lion, seeking whom he may devour” (1 Peter 5:8).

    It is not in the power and ability of any man to face this powerful, crafty, and devious enemy, and then to deliver people from his clutches, from eternal destruction into eternal life. This can only be done through the power, wisdom, and ability granted by the presence of God, the Holy Spirit. It is for this reason that the Lord said to His disciples that they not rely on their own strength, wisdom and abilities, but to wait till they receive the power and presence of the Holy Spirit, and only then to go out to fight against the devil. The Lord well knew that if the disciples try to face the devil through their own strength, abilities and resources, they will face certain defeat, get discouraged, and stop in their ministry. Therefore, they required the help of someone who is stronger than Satan, i.e., God, who lives in every Christian Believer as the Holy Spirit, and gives the Believers the required strength and abilities, and makes them useful for their Christian ministry, provided they remain obedient and surrendered to Him.


The Lord God has kept some ministry for every Christian Believer (Ephesians 2:10), and God the Holy Spirit gives to the Believers the gifts necessary for their ministry (1 Corinthians 12:4-11), He also helps and guides them for it. If you are a Christian Believer, then have you recognized and come to know of the ministry service the Lord God has kept for you? Have you prayed to the Lord about it, learnt from Him about it, and asked the Holy Spirit to teach you how to use the gifts He has given to you for your ministry? If not, then make these things a priority in your life, drop every other ‘ministry’ that you may currently be engaged in, recognize and learn your God assigned ministry, and spend your time, efforts and energy in fulfilling that. Because your eternal blessings and rewards are based upon what God wants you to do for Him, and not what you want to do for God. God will only accept and reward that which is done in obedience to Him, nothing else.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 29-30 

  • Acts 23:1-15