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रविवार, 3 सितंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 9 – Be a Steward / भण्डारी बनो – 1

परमेश्वर का भण्डारी होना – 1

 

    हमने पिछले लेख में दाऊद द्वारा सुलैमान को 1 राजाओं 2:2-4 में दिए गए चार में से पहले निर्देश, पुरुषार्थ कर, की व्याख्या का समापन किया था। हमने यह देखा था कि सुलैमान राजा होने की ज़िम्मेदारियों का ठीक से निर्वाह करते हुए जयवन्त तभी हो सकता था यदि वह साहसी हो कर कार्य करता, और ज़िम्मेदारियों के निर्वाह में उसकी सहायता और मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर पर भरोसा बनाए रखता। इसी प्रकार से मसीही विश्वासी भी परमेश्वर के द्वारा उन्हें दी गयी जिम्मेदारियों का सफलता से निर्वाह तब ही कर सकते हैं जब वे परमेश्वर पर भरोसा रखें, उसके मार्गदर्शन एवं सहायता के खोजी हों, इन बातों के लिए परमेश्वर ने उन्हें जो संसाधन उपलब्ध करवाएं हैं उन से अवगत हों, उन संसाधनों का सदुपयोग करना सीखें। और उन्हें बाधित तथा निराश करने के लिए, शैतान और उसके शक्तियों के द्वारा उनके विरुद्ध लाई जा रही सभी समस्याओं और परेशानियों के बावजूद, साहसी तथा दृढ़ होकर परमेश्वर के लिए कार्य को करने तथा परमेश्वर द्वारा दी गयी ज़िम्मेदारियों के निर्वाह में लगे रहें।


    दाऊद द्वारा अपने पुत्र सुलैमान को दिया गया दूसरा निर्देश है, “जो कुछ तेरे परमेश्वर यहोवा ने तुझे सौंपा है, उसकी रक्षा कर” (1 राजाओं 2:3a), अर्थात परमेश्वर ने जो तुझे दिया है, या सौंपा है, उसका ध्यान रख, उसका भण्डारी बन। ध्यान कीजिए की यहाँ पर दाऊद किसी विशिष्ट ज़िम्मेदारी का नाम लेकर उसके लिए यह निर्देश नहीं दे रहा है। किन्तु वह एक बहुत व्यापक, सभी बातों को सम्मिलित कर लेने वाला निर्देश दे रहा है – परमेश्वर द्वारा तुझे सौंपी गयी सभी बातों की भली-भाँति देखभाल कर। परमेश्वर का अच्छा भण्डारी होने का अर्थ है परमेश्वर द्वारा सौंपे गए की मन लगाकर, और ध्यान से देखभाल करना। दाऊद में होकर पवित्र आत्मा सुलैमान को, जिसे एक स्थिर, शान्त, और समृद्ध राज्य का उत्तराधिकारी बनाया गया था, उसकी ज़िम्मेदारी के विषय सचेत कर रहा था। आरम्भ से ही सुलैमान को इस एहसास के साथ कार्य करना था कि राज्य उसे व्यक्तिगत आनन्द और अपने आप को ऊँचा दिखाने के लिए नहीं सौंपा गया है। बल्कि, उसे एक ज़िम्मेदारी सौंपी गई है, कि वह परमेश्वर के लोगों की देखभाल करे, उन्हें सुरक्षित रखे, और परमेश्वर के भय में बढ़ने वाला बनाए, और इस बात को स्वयं सुलैमान ने परमेश्वर से की गई अपनी प्रार्थना में व्यक्त किया है (1 राजाओं 3:7-9)।


    परमेश्वर अपेक्षा करता है कि उसके लोग, जो कुछ भी वह उन्हें देता है, उसकी देखभाल करें, तथा औरों के लाभ के लिए उसका सदुपयोग करें। भंडारीपन के इस सिद्धान्त को हम आरम्भ से ही स्थापित देखते हैं। परमेश्वर ने अदन की वाटिका आदम और हव्वा के लिए लगाई, और फिर आदम को उसकी देखभाल करने की ज़िम्मेदारी सौंपी (उत्पत्ति 2:8, 15)। क्योंकि इससे पहले ही परमेश्वर आदम और हव्वा से कह चुका था कि “फूलो-फलो, और पृथ्वी में भर जाओ, और उसको अपने वश में कर लो” (उत्पत्ति 1:28); इसलिए यहाँ पर यह निहित है कि आदम और हव्वा को वाटिका की देखभाल करने थी, तथा उसे अपनी भावी पीढ़ियों के लिए सँवार कर रखना था। नूह को नाव बनाने की ज़िम्मेदारी दी गई, ताकि जो चेतावनी को मानें वे बचाए जा सकें, तथा पृथ्वी पर फिर से जीव-जंतुओं को लाने के लिए उन्हें बचा कर रखे (उत्पत्ति 6:20)। परमेश्वर ने अब्राहम को चुना, उसे आशीष दी, किन्तु साथ ही उसे यह ज़िम्मेदारी भी दी कि उसमें तथा उसके वंशजों में होकर पृथ्वी के सभी लोग आशीष पाएँगे (उत्पत्ति 12:3), अर्थात, अब्राहम और उसके वंशज पृथ्वी के लोगों के लिए परमेश्वर की आशीषों के भण्डारी भी थे। यूसुफ को मिस्र का प्रधान मंत्री बनाया, फिरौन के बाद दूसरा सबसे शक्तिशाली अधिकारी (उत्पत्ति 41:39-44); इतने वर्षों तक दुःख उठाने की क्षतिपूर्ति के लिए नहीं, कि अब मज़े कर ले, मौज मना ले; बल्कि आने वाले भीषण अकाल में लोगों को सुरक्षित रखने की तैयारी के लिए (उत्पत्ति 41:33-39, 46-49)। मूसा को उसकी आनाकानी के बावजूद परमेश्वर ने सामर्थ्य देकर वापस मिस्र में भेजा, किसी व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं बल्कि इस्राएलियों को मिस्र से छुड़ा कर लाने के लिए (निर्गमन 3:10)। जिस भी व्यक्ति को परमेश्वर ने कुछ भी दिया है, उस से परमेश्वर की अपेक्षा रही है कि वह उस बात की अच्छी देखभाल करे तथा औरों की भलाई के लिए उसका सदुपयोग करे।


    नए नियम में भी, अपने बारह प्रेरितों को चुनने के बाद, प्रभु ने उन्हें दी गई सामर्थ्य के साथ प्रचार करने तथा औरों की सेवा करने की सेवकाई के लिए भेजा (मत्ती 10:1, 5-8)। अपने पुनरुत्थान के बाद, जब प्रभु ने अपने शिष्यों को नियुक्त किया कि वे सँसार भर में सुसमाचार का प्रचार करें, तो फिर से उन्हें आश्चर्यकर्म करने की सामर्थ्य भी प्रदान की, उनके लाभ के लिए जिन लोगों के मध्य वे सुसमाचार प्रचार की सेवकाई करेंगे (मरकुस 16:15-20)। आज, मसीही विश्वासी प्रभु के भंडारी हैं; उन्हें उसका गवाह बनकर कार्य करना है और उद्धार की ज्योति को सँसार के सामने प्रदर्शित करना है, धूमिल नहीं बल्कि तेज़ी से चमकती हुई, लोगों को आकर्षित करने वाली (मत्ती 5:14-16)।


    हम आने वाले कुछ लेखों में अपने भण्डारी होने के बारे में और भी देखेंगे तथा सीखेंगे। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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Being God’s Steward - 1

 

    In the previous article, we had concluded the discussion about David’s first instruction to Solomon in 1 Kings 2:2-4, i.e., to be a man. We had seen that Solomon could only handle the responsibilities of being a King and come out successful, if he carried himself courageously and trusted God to help and guide him in fulfilling his responsibilities. Similarly Christian Believers too can fulfil their God given responsibilities successfully, only if they seek and trust God for His help and guidance, are aware of the resources God has given them for this, learn to use those resources, and courageously, resolutely persevere in working for God to fulfil the God given responsibilities despite all the problems and difficulties the satanic forces bring against them to thwart them.


    The second instruction given by David to his son Solomon is “And keep the charge of the Lord your God” (1 Kings 2:3a); i.e., keep a watch over, or, be a custodian of what God has given to you. Notice that David does not specify any particular thing, but gives a very broad-based, all-encompassing instruction – be careful to look after all things that God has entrusted to you. To be a good Steward of God means to properly and diligently keep charge of what God has given. Through David, the Holy Spirit was conveying this responsibility to Solomon, who had inherited a stable, settled, and prosperous kingdom. Solomon since outset was to realize that the kingdom was not being handed over to him for personal enjoyment and self-exaltation. Rather, he was being given a responsibility, to look after the people of God, keep them safe, and growing in the fear of the Lord, as he expresses in his prayer to God (1 Kings 3:7-9).


    God expects His people to respect, take care of, and properly utilize all that He gives to them, for the benefit of others. We see this principle of stewardship established since the very beginning. God planted the Garden of Eden for Adam and Eve, and then gave Adam the charge of taking care of it (Genesis 2:8, 15). Since God had already told Adam and Eve to “Be fruitful and multiply; fill the earth and subdue it” (Genesis 1:28); therefore, it is implied here that Adam and Eve had to look after the Garden and maintain it for their future generations. Noah was given the charge of preparing the Ark to save those who would heed the warning, and to preserve the animals to repopulate the earth (Genesis 6:20). Abraham was chosen by God, was blessed, but was also given the charge that through him and his generations, all people of the earth were to receive God’s blessings (Genesis 12:3). In other words, Abraham and his descendants were also stewards of God’s blessings for all the people of the earth. Joseph was made the Prime Minister of Egypt, the second most powerful officer in Egypt after the Pharaoh (Genesis 41:39-44), not as a compensation for all that he had suffered, to enjoy and gratify himself; but to prepare for and preserve the people in the days of severe famine that was to come (Genesis 41:33-39, 46-49). Moses, despite his reluctance, was empowered by God and sent back to the Pharaoh, not for any personal gain but to deliver the Israelites from Egypt (Exodus 3:10). Every person whom God gave anything, God also expected from them that His gift would be appropriately taken care of and utilized for the benefit of others.


    In the New Testament as well, soon after selecting His twelve Apostles, when the Lord empowered them, He also sent them out to minister to others with the gifts He had given them (Matthew 10:1, 5-8). After His resurrection, when the Lord commissioned His disciples to go into the world to preach the gospel, He again empowered them to work miracles for the benefit of the people they were to minister amongst (Mark 16:15-20). The Christian Believers today, are Lord’s stewards; they are to function as His witnesses and show forth the light of salvation to the world, not dimly but bright and shining all around, attracting others (Matthew 5:14-16).


    We will continue to see and learn about the various aspects of our stewardship in the next few articles. If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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