गैर-ज़िम्मेदार भण्डारी होना – 2
पिछले लेख से हमने परमेश्वर का गैर-ज़िम्मेदार भण्डारी होने के बारे में देखना आरम्भ किया है। हम देख चुके हैं कि प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए परमेश्वर ने कोई न कोई कार्य निर्धारित किया ही है, उस कार्य को करने के लिए उसे उपयुक्त संसाधन भी उपलब्ध करवाए हैं। प्रत्येक विश्वासी को उन कार्यों को सभी की भलाई, परमेश्वर के राज्य की बढ़ोतरी, और परमेश्वर की महिमा के लिए पूरा करना है। प्रत्येक मसीही विश्वासी परमेश्वर द्वारा दी गई इन बातों का परमेश्वर के लिए भण्डारी है; अन्ततः उसे अपना हिसाब प्रभु परमेश्वर को देना होगा, और उसके द्वारा भण्डारी होने की ज़िम्मेदारी के निर्वाह के अनुसार उसे अपने अनन्त काल के लिए पुरस्कार या प्रतिफल मिलेंगे। विश्वासी गैर-ज़िम्मेदार भण्डारी मूलतः दो प्रकार से हो सकता है – पहला, परमेश्वर द्वारा दी गई बातों और जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह और उदासीन होने के द्वारा; तथा दूसरा, भण्डारी होने को स्वामी होना समझ लेना और अधिकारों का दुरुपयोग करना। पिछले लेख में पहली बात को देख चुके हैं; आज दूसरी को देखेंगे।
प्रभु यीशु ने लूका 12:35-48 में अपने शिष्यों को प्रभु का भण्डारी होने की शिक्षा दी; उन्हें समझाया कि स्वामी के किसी भी समय अचानक ही वापस आ जाने के लिए वे भले दासों के समान सदा तत्पर और तैयार रहें, उसकी बाट जोहते रहें। पतरस द्वारा प्रश्न उठाने पर (पद 41) प्रभु ने ‘विश्वासयोग्य और बुद्धिमान भण्डारी’ (पद 42) के गुण भी बताए (पद 42-44); और फिर गैर-ज़िम्मेदार भण्डारी के गुण भी बताए (पद 45) तथा उसका परिणाम भी बताया (पद 46)। हमारे विषय के सन्दर्भ में, हमारा मुख्य अभिप्राय पद 45 से है।
दूसरी प्रकार का गैर-ज़िम्मेदार भण्डारी, स्वामी के आने में देर प्रतीत होने का गलत अर्थ लेता है, और अपने आप को ही स्वामी समझने लगता है। वह अनुचित रीति से स्वामी के अधिकार अपना लेता है, और अपने संगी दासों के साथ दुर्व्यवहार करता है। साथ ही उसका व्यक्तिगत जीवन भी भ्रष्ट हो जाता है, वह शारीरिक सुख-विलास की बातों में लग जाता है। जबकि जब प्रभु ज़िम्मेदारी देता है, तो उस ज़िम्मेदारी का निर्वाह अपने स्वभाव और गुणों के अनुरूप किए जाने की अपेक्षा करता है; अर्थात, उस प्रकार से जैसे प्रभु स्वयं उस कार्य को करता, उस कार्य के सन्दर्भ में जिस प्रकार का व्यवहार प्रभु का होता। आज, हमारे लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इस उचित रीति से भण्डारी की जिम्मेदारियों के निर्वाह को 1 पतरस 5:1-4 में लिखवाया है। पवित्र आत्मा की अगुवाई में पतरस द्वारा लिखे गए गुणों को पढ़ने से स्पष्ट है कि कलीसिया के अगुवों को अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह उस प्रभु के चरित्र और गुणों के अनुसार करना है, जिसने उन्हें यह ज़िम्मेदारी दी है।
दोनों ही प्रकार के भण्डारियों के गैर-ज़िम्मेदार होने के पीछे एक ही बात है – उनकी सोच, जो उनके स्वामी के प्रति, उसके पक्ष में थी ही नहीं। पहले वाले की सोच में स्वामी द्वारा उसे दिए गए आदर और ज़िम्मेदारी का कोई महत्व नहीं था, इसीलिए वह अपने भण्डारी होने के प्रति लापरवाह और उदासीन रहा। दूसरे वाले की सोच में स्वार्थ, अपने व्यक्तिगत हित तथा सांसारिक लाभ के लिए उसे सौंपे गए समय, साधन, और अवसर दुरुपयोग करना था। तात्पर्य यह कि जब तक हम मसीही विश्वासियों की प्रभु और उसके द्वारा दी गई जिम्मेदारियों के प्रति सोच ठीक नहीं होगी, हम प्रभु के भले भण्डारी भी नहीं बन सकेंगे। इसीलिए हम मसीही विश्वासियों के लिए पवित्र आत्मा ने कुलुस्सियों 3:1-2 में लिखवाया है, “सो जब तुम मसीह के साथ जिलाए गए, तो स्वर्गीय वस्तुओं की खोज में रहो, जहां मसीह वर्तमान है और परमेश्वर के दाहिनी ओर बैठा है। पृथ्वी पर की नहीं परन्तु स्वर्गीय वस्तुओं पर ध्यान लगाओ।” यदि हमारा मन, ध्यान, और परिश्रम स्वर्गीय बातों पर नहीं बल्कि नाशमान सांसारिक बातों पर ही लगा होगा; स्वर्ग में संपत्ति अर्जित करने की बजाए सांसारिक संपत्ति, घर, ज़मीन, आदि पर ही लगा होगा, तो हम अपने आप को अपने स्वामी के आने तथा उसके साथ स्वर्ग में रहने के लिए तैयार कैसे रखेंगे, अपने भण्डारी होने की ज़िम्मेदारियों को जानेंगे और उनका ठीक से निर्वाह कैसे करेंगे? यदि हमारी सोच सही होगी, तो हम अपने कार्य भी सही करेंगे। अगले लेख में हम भण्डारी होने की ज़िम्मेदारी के निर्वाह के बारे में कुछ और बातें देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Being an Irresponsible Steward - 2
Since the previous article we have begun to look about being an irresponsible steward of God. We have already seen that God has determined some work or the other for every Christian Believer, and to help him do that work has also made available for him the appropriate resources. Every Believer has to do those works for the benefit of others, for the growth of God’s Kingdom, and for God’s glory. Every Christian Believer is God’s steward for what has been given to him; eventually, he will have to give an account to God for it. According to how he has fulfilled his responsibility of being God’s steward, he will receive his rewards for eternity. A Believer can be irresponsible in two basic ways – firstly, by being careless and unconcerned regarding what God has given him; the second is by assuming stewardship is being the master and misusing the usurped authority. In the previous article we have seen about the first one; today we will see the second one.
The Lord Jesus, in Luke 12:35-48 taught His disciples about being His steward. He taught them that like good servants, they should always remain ready and prepared for the master to come at any time, and they should be found waiting for His coming. Peter then raised a question (vs. 41), and the Lord gave the characteristics of the ‘faithful and wise steward’ (vs. 42-44); and then also told them about the irresponsible steward (vs. 45) and his outcome (vs. 46). In context of our topic, we are mainly concerned about verse 45.
The second kind of irresponsible steward misuses the apparent delay in the coming of the master, and starts considering himself as the master. He wrongly usurps the authority of the master, and then starts ill-treating his fellow servants. His personal life also gets corrupted, and he gets involved in things related to physical gratification and pleasures. Whereas, whenever the Lord gives a responsibility, He expects that it be fulfilled in accordance with the Lord’s characteristics and nature, i.e., as the Lord would have done that work, as would have been the Lord’s behavior towards that responsibility. Today, for our benefit, God the Holy Spirit has had this right way of fulfilling responsibilities in 1 Peter 5:1-4. It is very clear from the manner of doing the Lord’s work as written by Peter, that the Elders and leaders of the Church have to conduct themselves and fulfill their responsibilities according to the characteristics and behavior of the Lord who has given them these responsibilities.
There is one common thing behind both the stewards being irresponsible – their attitude, their thinking, which was not towards their master, not oriented towards him. The attitude of the first one had no importance for the honor and responsibility entrusted to him by the master, therefore, he remained careless and unconcerned towards it. The attitude of the second one was of being selfish, to misuse the time, resources, and opportunity given to him, for personal gains and for acquiring physical benefits. The implication is that unless and until we Christian Believers have a right attitude and thinking towards the Lord and towards the responsibilities He has given to us, we will not be able to become good stewards of God. That is why God the Holy Spirit has had it written for us Christian Believers in Colossians 3:1-2, “If then you were raised with Christ, seek those things which are above, where Christ is, sitting at the right hand of God. Set your mind on things above, not on things on the earth.” If our hearts, mind, and efforts are not on heavenly things, but on temporal worldly things; instead of acquiring heavenly things, are on acquiring material things and wealth on earth; then how can we keep ourselves ready for the return of our Master and be with Him in heaven; how can we know of our responsibilities as His stewards and fulfill them? If our attitude, our thinking is right, then we will also fulfill our responsibilities properly. In the next article we will look further about fulfilling our responsibilities as stewards of God.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.