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आराधना में बाधाएँ (4) - अनुचित अभिव्यक्तियाँ
सही आराधना करने में आने वाली बाधाओं, उन बातों पर जो मसीही विश्वासी को वैसी आराधना नहीं करने देती हैं, जैसी परमेश्वर चाहता है, अर्थात, “आत्मा और सच्चाई” से की गई आराधना, पर विचार करते हुए, अभी तक हमने तीन मुख्य समस्याओं पर ध्यान किया है। पहली थी, यह न जानना के आराधना वास्तव में क्या है; और इसलिए उसके स्थान पर उन अभिव्यक्तियों का उपयोग करना जो सच्ची आराधना नहीं हैं। दूसरी थी, विश्वासी का परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान किए गए उच्च स्तर के प्रति सचेत और जानकार न रहना, और इस कारण न तो वे उसके अनुरूप व्यवहार करते हैं और न ही आराधना करते हैं; बल्कि आराधना के नाम पर अपना अनादर करते हैं। तीसरी थी, आराधना में परमेश्वर के बारे में बात करने, उसका तथा उसके कार्यों का वर्णन करने की बजाए अपने बारे में बातें करना, अपना वर्णन करना, और वह भी अपने आप को तुच्छ और निकृष्ट दिखाने के लिए। ऐसा करना, एक प्रकार से परमेश्वर के सर्वज्ञानी होने को नज़रंदाज़ करना है, और उसकी क्षमा, हमारी भूतपूर्व दशा और व्यवहार के बावजूद उसके द्वारा हमें इस संसार में से बुलाने की, उसके प्रेम और अनुग्रह की अनदेखी करना है। आज हम एक चौथी बात, मसीही विश्वासी द्वारा आराधना के लिए प्रयोग की जाने वाली एक और अनुचित अभिव्यक्ति को देखेंगे। इस बात को समझने के लिए हमें परमेश्वर की आराधना करने की आवश्यकताओं में से एक को फिर से ध्यान करना होगा।
जैसा कि हम पहले के लेखों में देख चुके हैं, परमेश्वर इसलिए चाहता है कि हम उसकी आराधना करें, जिससे कि मसीही विश्वासी हमेशा परमेश्वर से संबंधित बातों के प्रति सचेत और जानकार बने रहें। मनुष्य होने के नाते, हम बहुत सी बातों को भूल जाने, उनकी अनदेखी कर देने की प्रवृत्ति रखते हैं; विशेषकर उनकी जो निरंतर हमारे उपयोग या ध्यान में नहीं बनी रहती हैं, जब तक कि हम अपने आप को उनके बारे में याद न दिलाते रहें, या उन्हें अपने लिए दोहराते न रहें। इसलिए, आराधना में हमें परमेश्वर के गुणों, क्षमताओं, योग्यताओं और कार्यों आदि को सदा याद करते रहना चाहिए, उन्हें दोहराते रहना चाहिए, जिससे वे हमारे मनों में हमेशा ताज़ा बने रहें। तब, जब भी शैतान हमारे सामने प्रलोभन लाएगा, हमें किसी गलत मार्ग पर डालने का प्रयास करेगा, या हमें किसी पाप में फंसाने और गिराने का प्रयास करेगा, परमेश्वर के वचन की कोई गलत व्याख्या या शिक्षा हमारे समक्ष लाएगा, तो हम तुरंत ही उसे पहचान लेंगे और उन दुष्टता की युक्तियों और चालाकियों से सुरक्षित बने रहेंगे। इस बात का प्रकट तात्पर्य है कि आराधना का यह उद्देश्य कभी पूरा नहीं होगा यदि हम आराधना में अपने ही बारे में बातें करते रहेंगे, अपना ही वर्णन करते रहेंगे और अपने आप को तुच्छ और निकृष्ट दिखाने के प्रयास करते रहेंगे। बल्कि आराधना का यह उद्देश्य तभी पूरा होगा जब हम वास्तव में परमेश्वर ही की आराधना करेंगे। उसका ही गुणानुवाद करेंगे, उसके बारे में, उसके कार्यों के बारे में, उसके आश्वासनों और पूरी की गई प्रतिज्ञाओं, आदि के बारे में बात करेंगे, उन्हें याद करेंगे, उन्हें दोहराएंगे। ऐसा हम अपने अनुभवों से, औरों के अनुभवों से, तथा परमेश्वर के वचन में दिए गए उदाहरणों के द्वारा कर सकते हैं।
इसलिए, जहाँ तक संभव हो हमें बाइबल के तथ्यों और लेखों का ही अपनी आराधना में उपयोग करना चाहिए। हमें बाइबल में उल्लेख किए गए भक्त लोगों की आराधना का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर ने इन बातों को हमारे उदाहरण और शिक्षा के लिए अपने वचन में रखा है। किन्तु सामान्यतः जो देखा जाता है, वह इससे बहुत भिन्न है; मसीही विश्वासी वचन और बाइबल के लोगों की नहीं, वरन अन्य मनुष्यों की, अपने प्राचीनों और धार्मिक अगुवों का अनुसरण करते हैं; उनकी शैली, अभिव्यक्तियों, शब्दों की नकल करते हैं। यह बहुत आम तौर से देखी जाने वाली बात है कि लगभग प्रत्येक मण्डली की प्रार्थना और आराधना के लिए अपनी ही शैली और अभिव्यक्तियाँ होती हैं। और उस मण्डली के लगभग सभी सदस्य अपनी आराधना और प्रार्थनाओं में उन्हीं को दोहराते और प्रयोग करते रहते हैं, क्योंकि उनके प्राचीन और धार्मिक अगुवे भी वैसे ही शब्दों, अभिव्यक्तियों, और शैली का उपयोग करते हैं। कोई भी कभी यह प्रयास नहीं करता है कि उनके बारे में परमेश्वर के वचन से भी जाँच ले, देख ले कि क्या बाइबल में किसी ने उन शब्दों, अभिव्यक्तियों या उस शैली द्वारा आराधना या प्रार्थना की भी है या नहीं? कोई इस बात की पुष्टि करना, उसे जाँच कर देखना नहीं चाहता है कि क्या उन बातों एवं अभिव्यक्तियों का प्रयोग करना वचन के अनुसार और उचित है भी कि नहीं; या कहीं यह किसी व्यक्ति विशेष का अपना भावनात्मक तरीका तो नहीं है, जो परमेश्वर के वचन के सत्य और तथ्यों से भिन्न है।
बाइबल भी हमें ऐसे करने के लिए कहती है। पौलुस ने कहा है कि हम मसीह का अनुसरण करें (1 कुरिन्थियों 11:1), तथा अपने मसीही जीवन और व्यवहार को प्रभु यीशु मसीह, उसके प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं की नींव, अर्थात उनकी शिक्षाओं, निर्देशों, और उदाहरणों पर बनाएँ (1 कुरिन्थियों 3:11; इफिसियों 2:20)। किन्तु आज ऐसा करने के स्थान पर विश्वासी आम तौर से अपने प्राचीनों और धार्मिक अगुवों का ही अनुसरण करते हैं, बाइबल के लोगों और बातों की बजाए वर्तमान में विद्यमान अपनी पसंद के मनुष्यों के पीछे चलना अधिक पसंद करते हैं। न केवल यह, वरन, अधिकाँश लोगों के प्रार्थना और आराधना से संबंधित अपने कुछ शब्द और वाक्यांश होते हैं, जिन्हें वे अपनी प्रार्थना या आराधना के प्रत्येक वाक्य में अनेकों बार, हर थोड़े से शब्दों के बाद दोहराते रहते हैं। प्रभु यीशु ने कहा है कि इस प्रकार बहुत बोलना, व्यर्थ दोहराते रहना अन्य-जातियों का चिह्न है, इसके कारण उनकी सुनी नहीं जाएगी (मत्ती 6:7)। राजा सुलैमान ने सचेत किया और कहा कि परमेश्वर के समक्ष अपने मुँह की चौकसी रखनी चाहिए, अपने शब्दों को थोड़ा और सार्थक रखना चाहिए; सतर्क रहना चाहिए, न कि “मूर्खों का बलिदान” चढ़ाने वाला, क्योंकि बहुत बोलना न केवल मूर्खता है, वरन बुरा भी है (सभोपदेशक 5:1-3)। ऐसा करने वाले विश्वासियों की प्रार्थना या आराधना बहुत अधिक सार्थक और मनोहर हो जाएगी, तथा साथ ही उनके बोलने का समय भी घट जाएगा, यदि वे औरों के शब्दों, शैली और अभिव्यक्तियों की नकल करने के स्थान पर अपने मन से सीधे और साधारण शब्दों में केवल मुद्दे की बात कहें। उन्हें अपनी पसंद के शब्दों और वाक्यांशों को व्यर्थ में दोहराते रहने की कोई आवश्यकता नहीं है, और न ही किसी और के समान कोई आलंकारिक भाषा का प्रयोग करने अथवा वाक्पटुता दिखाने की कोई आवश्यकता है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यहोशू 19-21
लूका 2:25-52
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Obstacles to Worship (4) - Improper expressions
While considering the obstacles to proper worship, things that do not let a Christian Believer worship God in the manner He desires, i.e., “in spirit and in truth”, so far, we have seen three major problems. The first was not knowing what worship actually is; therefore, substituting it with expressions that do not constitute true worship. The second was the Believer not remaining conscious and aware of the high status accorded to him by God, and therefore neither conducting himself, nor worshipping God accordingly; instead belittling himself in the name of worship. The third was, instead of speaking about and describing God and His works for worshipping Him, the tendency to describe self and speak about themselves, and that too in a disparaging manner. This, in a way, disregards God’s omniscience, His forgiveness, and His calling us out from this world regardless of our former condition and behavior, in His love and grace. Today we will consider a fourth factor, the Believer not using appropriate expressions to worship God. To properly understand this factor, we need to remind ourselves of one of the purposes of worshipping God.
As we have seen in the earlier articles, one of the main purposes of why God wants us to worship is that we Believers always remain aware about things related to God. Being human, we are prone to forgetting and overlooking many things, especially those that are not in our constant use, unless we keep reminding ourselves about them or repeating them to ourselves. Therefore, in worship we should keep recalling, keep reminding ourselves, and keep fresh in our minds the attributes, capabilities, works, and other things about God, at all times, for ready use at any time. As and when Satan tempts us, or tries to mislead us, or entice us into committing some sin, or misinterprets and wrongly presents God’s Word to us, if we have been worshiping properly then we can immediately discern and keep ourselves safe from falling for his devious tricks and ploys. The evident implication is that this purpose of worship will never be served if we keep talking about ourselves and keep describing ourselves, and that too in a belittling manner. The purpose will only be served if we truly worship God by exalting Him, if we recall and speak about Him and what He has done, recount His promises and assurances given in His Word, review His works in our as well as other’s lives, or even through the examples given in God’s Word, etc.
Therefore, as far as possible, we should use Biblical facts and texts in our worship. We should emulate the worship of godly people mentioned in the Bible, those whom God has set as an example in His Word, for our learning. But instead, the commonly seen way of worshipping amongst the Believers is their worshipping by blindly copying the style, expressions, and words of other men, usually the elders or religious leaders. It is quite common to see that nearly every Assembly has its own style and particular expressions for worshipping and praying. And practically all members of that Assembly keep repeating the same style and expressions in their worship, because their elders or religious leaders use those expressions and words. Nobody bothers to cross-check from the Word of God if that expression or style has ever been used by any one in God’s Word for worship? Whether or not it is appropriate and actually according to God’s Word; or is it a person’s own fanciful way, which may actually be at variance from God’s word.
Even the Bible teaches us to do this. Paul says to emulate Christ (1 Corinthians 11:1), and to build our Christian lives and behavior on the foundation laid by the Lord Jesus Christ and His Apostles and Prophets, i.e., on the teachings, instructions and examples set by them (1 Corinthians 3:11; Ephesians 2:20). But instead, today the Believers, very commonly emulate their elders and religious leaders, use them instead of following the people and examples of the Bible. The Word of God calls those who follow men, whether elders or religious leaders, or any other, carnal and immature and admonishes them (1 Corinthians 1:11-13; 3:3-6). Not only this, but most people also have their own pet prayer and worship related phrases and words, which they keep repeating many times, after every couple of words, in every sentence they speak while praying or worshipping. The Lord Jesus has said that such vain repetitions are a characteristic of heathens, and of no use (Matthew 6:7). King Solomon has cautioned and said to refrain from being rash with one’s mouth, to keep one’s words to be few and meaningful; being circumspect and careful not to offer the “sacrifice of fools” since that is evil and foolishness (Ecclesiastes 5:1-3). Such a Believer’s prayer or worship could be far more meaningful and also pleasant, while taking up much less time, if they simply spoke the actual matter from their hearts instead of copying other men, or using any fanciful flowery language, and without this meaningless repetition of their pet phrases and words after every couple of words.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Joshua 19-21
Luke 2:25-52
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