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कलीसिया का निर्माण – 15 – प्रभु यीशु मसीह पर – 8
परमेश्वर की कलीसिया और उसकी सन्तानों के साथ सहभागिता रखने का भण्डारी होने के नाते, प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को उनके बारे में सीखना है, ताकि अपने भण्डारी होने का सही निर्वाह कर सके। विश्वासियों को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जिस प्रकार से उद्धार और नया-जन्म पाने के द्वारा वे कलीसिया में तथा सहभागिता में जोड़े गए हैं, वैसे ही अन्य भी प्रभु के द्वारा जोड़े जा रहे हैं। साथ ही, जैसे एक नया-जन्म पाए हुए विश्वासी होने पर, उसे अपनी आत्मिक बढ़ोतरी और परिपक्वता के लिए समय चाहिए, उसे प्रकार से अन्य जोड़े जा रहे लोगों को भी समय चाहिए। दूसरे शब्दों में, प्रभु की कलीसिया अभी “निर्माणाधीन” है; और इस लिए अपूर्ण और असिद्ध है। इसी लिए, किसी को भी यह अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए कि प्रभु की कलीसिया अभी पूर्णतः सिद्ध और आत्मिक रीति से परिशुद्ध होगी; यह तब ही होगा जब जोड़े जाने और तैयार किए जाने की प्रक्रिया पूर्ण हो जाएगी।
इन बातों का एक उत्तम उदाहरण राजा सुलैमान द्वारा परमेश्वर की आराधना के लिए बनवाया गया प्रथम मंदिर का निर्माण कार्य है। परमेश्वर के इस मंदिर के लिए लिखा गया है, “और बनते समय भवन ऐसे पत्थरों का बनाया गया, जो वहां ले आने से पहिले गढ़कर ठीक किए गए थे, और भवन के बनते समय हथौड़े बसूली या और किसी प्रकार के लोहे के औजार का शब्द कभी सुनाई नहीं पड़ा” (1 राजा 6:7)। इस पद की बातों पर ध्यान कीजिए - मंदिर के निर्माण के लिए जो पत्थर तैयार किए गए, वे, निकाले जाने के बाद, और मंदिर में लगाए जाने से पहले, वहीं पर एक अलग स्थान पर गढ़कर, तराश कर, काट-छाँट कर ठीक कर लिए जाते थे। जब वे अपने निर्धारित स्थान पर बैठाए जाने के लिए तैयार हो जाते थे, तो उन्हें ला कर उनके निर्धारित स्थान पर स्थापित कर दिया जाता था। हर पत्थर का अपना निर्धारित स्थान था, जिसके आधार पर उसे गढ़, तराश और काट-छाँट कर तैयार किया जाता था। न तो वह पत्थर किसी अन्य का स्थान ले सकता था, और न ही कोई अन्य पत्थर उसका स्थान ले सकता था; और न ही वह पत्थर यह निर्धारित करता था कि वह कहाँ पर लगाया जाना पसंद करेगा। भवन बनाने वाले ने जिसे जहाँ के लिए निर्धारित और तैयार किया था, वह वहीं पर लाकर स्थापित किया जाता था। एक और बहुत अद्भुत बात थी कि उस पत्थर को बस लाकर उसके स्थान पर स्थापित कर दिया जाता था; उसे फिर गढ़ने, तराशने और काटने-छाँटने की, अर्थात अन्य के साथ ताल-मेल बैठाने के लिए सही करने की कोई आवश्यकता नहीं होती थी; वहाँ पर, मंदिर में, किसी भी औज़ार का शब्द सुनाई नहीं देता था। इसी प्रकार से प्रभु भी हमें इस संसार में, जहाँ से उसने हमें निकाल है, विभिन्न परिस्थितियों और अनुभवों के द्वारा इसी सँसार में रहते हुए, गढ़कर, तराश कर, काट-छाँट कर तैयार कर रहा है, जिसमें निःसन्देह कष्ट उठाने और सहने पड़ते हैं। वह यह कार्य हमें अपने सुरक्षित स्थान, अपनी कलीसिया में लाकर करता है, जहाँ हम निरंतर उसकी निगरानी, उसकी देखभाल में रहते हैं। प्रभु के नियुक्त सेवकों के द्वारा हमें तैयार किया जाता है, प्रभु उन सेवकों के कार्य पर भी दृष्टि बनाए रखता है; और अन्ततः जब वह मसीही विश्वासी उसके द्वारा निर्धारित स्थान के लिए तैयार हो जाता है, प्रभु उसे वहाँ पर स्थापित कर देता है। इस प्रकार प्रभु द्वारा परमेश्वर के निवास के लिए यह मंदिर बनाया जा रहा है, निर्माणाधीन है।
ध्यान कीजिए, जिस पहाड़, या खदान से ये पत्थर निकाले जाते थे, वहाँ पर छोटे-बड़े, विभिन्न आकार और प्रकार के अनेकों अन्य पत्थर भी होंगे; किन्तु हर पत्थर मंदिर में लगाए जाने के लिए उपयुक्त एवं उचित नहीं था। केवल वही पत्थर जो मंदिर में लगाए जाने के लिए उपयुक्त एवं उचित थे, उन्हें ही फिर पहले तो गढ़ने, तराशने, और काटने-छाँटने के लिए लिया गया, और उनके तैयार हो जाने के बाद, अन्ततः मंदिर में उनके निर्धारित स्थान पर स्थापित किया गया। प्रभु के द्वारा कलीसिया के बनाए जाने में भी केवल वही “पत्थर” या लोग सम्मिलित होंगे जो वास्तव में प्रभु की कलीसिया के हैं, जो उसे “मसीह” यानि “जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता” स्वीकार करके उस पर विश्वास रखते हैं, उसी के आज्ञाकारी रहते हैं। अन्य कोई भी, जो किसी भी अन्य आधार पर कलीसिया से जुड़ने का प्रयास करता है, अन्ततः उसका तिरस्कार कर दिया जाएगा, उसे कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाएगा, और अनन्त विनाश के लिए भेज दिया जाएगा। मत्ती 13:24-30 के दृष्टांत पर ध्यान कीजिए; बुरे पौधों के खेत में बने और बढ़ते रहने, खेत के स्वामी द्वारा उनकी भी देखभाल होने, उन्हें भी पानी और खाद मिलने, पक्षियों और जानवरों से उनकी भी सुरक्षा किए जाने के द्वारा वे खेत के स्वामी को स्वीकार्य नहीं बन गए थे। उनका अन्तिम स्थान तो पहले से निर्धारित था, और वे फिर वहीं भेज भी दिए गए। इसी प्रकार, प्रभु की कलीसिया में जो प्रभु के मानकों और निर्धारण के द्वारा नहीं है, वे अभी अपने आप को कितना भी सुरक्षित और स्वीकार्य क्यों न समझता रहें, अन्ततः उन की वास्तविकता तथा अंतिम दशा अनन्त विनाश ही की होगी, वह स्वर्गीय मंदिर या कलीसिया का भाग कभी नहीं ठहरेंगे।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो अपने आप को जाँच-परख कर सुनिश्चित कर लीजिए कि आप प्रभु के मानकों और बुलाए जाने के द्वारा अपने आप को मसीही विश्वासी मानते हैं, या आप किसी अन्य रीति द्वारा प्रभु की कलीसिया से जुड़ने के कारण अपने आप मसीही विश्वासी समझते हैं। खेत में उगने वाले बुरे पौधों के लिए तो अपनी अंतिम दशा बदलना संभव नहीं था, किन्तु आपके पास अभी अवसर भी है, और प्रभु की क्षमा भी आपके लिए अभी उपलब्ध है, आप अभी भी अपनी अंतिम दशा बदल कर ठीक कर सकते हैं। अभी सही आँकलन करके सही निर्णय ले लीजिए; बाद में यदि अवसर न रहा, तो फिर अनन्त विनाश ही हाथ लगेगा। दूसरे, पृथ्वी पर प्रभु की कलीसिया में सम्मिलित होने के बाद, प्रभु आपको गढ़कर, तराश कर, काट-छाँट कर ठीक करता है कि आप उसकी स्वर्गीय कलीसिया में आपके उचित स्थान पर स्थापित किए जा सकें। यह प्रक्रिया अवश्य ही पीड़ादायक होती है, इसके द्वारा हमारे जीवन की कई बातें जो व्यर्थ और आत्मिक उन्नति एवं परिपक्वता के लिए बाधक हैं, निकाल दी जाती हैं। इसे कोई विलक्षण, अनहोनी, या अनुचित बात न समझें (प्रेरितों 14:22; 2 तिमुथियुस 3:12; इब्रानियों 12:5-12; 1 पतरस 4:1-2, 12-19); ये बातें हमारे तैयार किए जाने का एक अनिवार्य भाग हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Building the Church – 15 – On Lord Jesus Christ – 8
As a steward of God’s Church and fellowshipping with God’s other children, every Born-Again Christian Believer has to learn about them, to worthily fulfil his stewardship. The Believers should also bear in mind that just as they have been added to the Church and fellowship by being saved and Born-Again, similarly, others are also being added by the Lord to His Church. Also, just as he as a newly Born-Again Believer takes time to grow and mature spiritually, similarly, the others being joined also take their time. In other words, the Lord’s Church is still “under-construction;” and therefore is incomplete and imperfect. So, no one should expect impeccable perfection and pure spirituality in the Church, till this process of being added and perfected has been completed.
An excellent example of this process is the first temple built by Solomon for the worship of the Lord. It has been written about the construction process of this Temple that “And the temple, when it was being built, was built with stone finished at the quarry, so that no hammer or chisel or any iron tool was heard in the temple while it was being built” (1 Kings 6:7). Take note of the things said in this verse. The stones that were used for the building of this temple, after being taken out of the quarry and before being put in their place in the temple, were worked upon in a place at the quarry where they were cut, trimmed, polished and given the size, shape, and appearance required for their place in the temple. Once they were ready for being placed in the temple at their proper appointed place, then they were brought and fitted into their place. Every stone had its assigned place, and according to that place, it was cut, trimmed, prepared, and made ready. No other stone could take its place, nor could the stone take the place of any other stone; nor did the stone decide in which place it would like to be placed and fit in. According to the plan and design of the master-builder, every stone was placed in its pre-determined location. There was another very astounding and wonderful thing that was happening, mentioned here; each prepared and ready stone was just brought and fit into place, there was no need to trim and finely cut or prepare it again to take its place and settle in with the other stones at that location. It is written that in the temple there was no sound heard of any instruments being used. Similarly, the Lord too, in this world, from where He has taken us, through our situations, experiences and circumstances in this world itself, is cutting, trimming, shaping, and polishing us, preparing us to take our pre-determined place in the Church, which undoubtedly is a painful process. He does this work in His secured place, in His Church, where we are constantly under His observation and are being worked upon, under His supervision by His appointed ministers. When we are finally ready and prepared for our pre-determined place, the Lord takes and places us there. In this manner, this temple, this Church is still under construction, he is still building it.
Think it over, in the quarry, from where the stones were cut, there must have been various stones of different sizes and shapes; but every stone was not appropriate for being used in the temple. Only those stones that were appropriate for being used in the temple, were then first taken to be cut, trimmed, polished, and prepared to place in the temple, and then placed at their appropriate place in the Temple. The Lord too uses only those people to build His Church, who are actually worthy of His Church, i.e., those who have actually accepted Him as the Messiah, the “one and only savior of the world” have come into faith in Him, and have lived a life of obedience to Him and His Word. Anyone else, who has joined himself to the Lord’s Church through any other means, on any other basis or criteria, will be rejected, sent out into eternal destruction. Pay heed to the parable of Matthew 13:24-30; the tares received the care of the landlord, they too got the manure, water, protection from birds and animals, etc., but none of this made them accepted by the landlord. They had been identified and kept for destruction from the beginning, and that is where they were eventually sent. Similarly, in the Church of the Lord, all those who are not according to the standards and criteria of the Lord, they may consider themselves safe and secure for now, may think that they are accepted by the Lord, but eventually at the end, they will be cast out and sent to destruction. They will never be a part of the heavenly temple, the Church of God.
If you are a Christian Believer, then examine yourself and make sure that you actually are a saved and Born-Again Believer, as per the criteria and the standards of the Lord Jesus, and have come into the Church not through any other mechanism or way, but by the one and only way of repentance and forgiveness of sins from the Lord, as given by the Lord. The tares growing in that field did not have the power or ability to change their eternal destiny; but you have the opportunity and the ability to receive the Lord’s forgiveness and come to faith in Him, join Him in His prescribed manner. Do a proper evaluation now, and rectify that which needs to be rectified, while you still can do it. Do it now, lest somehow if you do not have the opportunity, time, or ability to do it later, you may not have to cut a sorry figure and face eternal destruction. Secondly, after you become a part of the Church of the Lord Jesus, He will cut, trim, mold, and polish you to prepare you for your assigned place in the Church. This process is painful for sure; but is necessary, and by it many vain and redundant things in our lives are taken away, things that impede our spiritual growth and maturity. Do not think this to be something unexpected or inappropriate (Acts 14:22; 2 Timothy 3:12; Hebrews 12:5-12; 1 Peter 4:1-2, 12-19); this is an integral and essential part of the process to build us up for our place in the Church.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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