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व्यावहारिक निहितार्थ – 11
सभी नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी, उनके उद्धार पाने के साथ ही परमेश्वर द्वारा उसकी कलीसिया का एक अंग बना दिए जाते हैं और उसकी अन्य सन्तानों की सहभागिता में ले आए जाते हैं। परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान किए गए विशेषाधिकारों के लिए, प्रत्येक विश्वासी परमेश्वर का भण्डारी भी है, और उसे अपने भण्डारीपन के उचित निर्वाह के लिए उत्तरदायी भी है। परमेश्वर की कलीसिया और उसकी सन्तानों के भण्डारी होने के नाते, विश्वासियों को कलीसिया की बढ़ोतरी और परमेश्वर की अन्य सन्तानों की आत्मिक उन्नति की बातों में संलग्न रहने वाला होना चाहिए। इसके लिए, जैसा कि हमने पिछले लेखों में सीखा है, परमेश्वर के वचन की सेवकाई की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। जिन्हें परमेश्वर के वचन की सेवकाई सौंपी गई है, उन्हें कलीसिया तथा परमेश्वर की सन्तानों को परमेश्वर के वचन को – गुणवत्ता में तथा माप दोनों में, पर्याप्त मात्रा में, नियमित, और खराई से देना है। हाल ही के लेखों में हमने इस सेवकाई के कुछ पक्षों को देखा है, और इससे पिछले लेख में हमने इफिसुस में पौलुस की सेवकाई के सार से देखा था कि, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, उसने बिना झिझके उन्हें परमेश्वर की सम्पूर्ण मनसा को बताया था। इसीलिए, जब वह इफिसुस से मकिदुनिया गया, तो तीमुथियुस को इफिसुस में ही छोड़ गया कि वह यह सुनिश्चित करे कि जो भी लोग वहाँ पर प्रचार करते और वचन सिखाते हैं, वे पौलुस के द्वारा सिखाई गई बातों के अतिरिक्त और कुछ न सिखाएं। हमने इफिसुस में पौलुस की सेवकाई की मुख्य बातों को भी देखा था, जो आज पवित्र शास्त्र से हमारे अनुसरण करने के लिए, और विशेषकर उनके लिए जो परमेश्वर के वचन की सेवकाई में लगे हैं, एक उपयुक्त रूपरेखा उपलब्ध करवाती है। आज हम वचन की सेवकाई के संदर्भ में बाइबल के कुछ और निर्देशों को देखेंगे; ऐसे कुछ निर्देश जो कलीसिया की बढ़ोतरी और विश्वासियों की आत्मिक उन्नति में सहायक हैं।
परमेश्वर के वचन की सेवकाई से संबंधित, कलीसिया की बढ़ोतरी और विश्वासियों की उन्नति से संबंधित कुछ बहुत महत्वपूर्ण बातों को हाल ही के लेखों में 1 तीमुथियुस 1:3-4 से देखने के बाद, एक अन्य महत्वपूर्ण बात भी है, जिसका ध्यान करना चाहिए, जो पौलुस द्वारा तीमुथियुस को लिखी गई इस पत्री में कुछ और आगे मिलती है। पवित्र आत्मा की अगुवाई में तीमुथियुस को निर्देश देते हुए, 1 तीमुथियुस 4:6 में पौलुस उस से कहता है कि जो उसे दिया गया है, अर्थात जो उसने सीखा है, जो निर्देश उसे मिले हैं, उनकी सुधि औरों को भी दिला दे। पिछले दो लेखों में 1 तीमुथियुस 1:3-4 के हमारे अध्ययन में हम देख चुके हैं कि पौलुस तीमुथियुस से क्यों ऐसा करने के लिए कह रहा है। लेकिन यहाँ, 1 तीमुथियुस 4:6 में, हम पवित्र आत्मा की अगुवाई में सत्यनिष्ठा और संपूर्णता में परमेश्वर के खरे वचन का प्रचार करने तथा सिखाने के एक अन्य लाभ को देखते हैं, जो प्रचारक के लिए है।
यहाँ पर लिखा हुआ है, “तो मसीह यीशु का अच्छा सेवक ठहरेगा: और विश्वास और उस अच्छे उपदेश की बातों से, जो तू मानता आया है, तेरा पालन-पोषण होता रहेगा।” दूसरे शब्दों में, पौलुस तीमुथियुस को दिखा रहा है कि जब वह औरों को परमेश्वर के खरे वचन को विश्वासयोग्यता से बताएगा, और इस बात का ध्यान रखेगा कि ‘अच्छे उपदेश की बातों’ का, जिन का वह प्रचार कर रहा और सिखा रहा है, स्वयं भी पालन करता रहेगा, उसका ‘पालन-पोषण होता रहेगा’, अर्थात, इससे उसकी अपनी आत्मिक उन्नति और बढ़ोतरी भी होगी। इस प्रकार यहाँ पर ‘मसीह यीशु का अच्छा सेवक’ होने, अर्थात सत्यनिष्ठा और सच्चाई से परमेश्वर के खरे वचन की सेवकाई करने की, न कि मनुष्यों के बनाए वचनों की, या मनुष्यों द्वारा गढ़ी गई कहानियों और वंशावलियों की, दोहरी आशीष लिखी गई है। पहली आशीष है इससे कलीसिया और विश्वासियों की बढ़ोतरी और उन्नति होगी, और दूसरी आशीष है कि ऐसा करने वाले प्रचारक और शिक्षक का भी अच्छे उपदेश की उन बातों से जिनको वह बताता और मानता रहता है ‘पालन-पोषण होता रहेगा।’ इससे मिलने वाली शिक्षा यही है कि विश्वासियों को अपनी आत्मिक उन्नति के लिए, सच्चाई और सत्यनिष्ठा के साथ परमेश्वर के खरे वचन को औरों को सिखाते रहना चाहिए।
जब हम पौलुस द्वारा तीमुथियुस को निर्देश देने के लिए लिखी गई इन दोनों पत्रियों को पढ़ते हैं, तो हम देखते हैं कि वह उसकी सेवकाई के लिए तीमुथियुस को कभी भी, कहीं भी, अपनी समझ या बुद्धि का उपयोग करने के लिए न तो कहता है, न प्रोत्साहित करता है। वरन, पौलुस केवल उस से यही कहता, और इसी के लिए प्रोत्साहित करता है कि वह औरों को भी वही बात सिखाए और बताए जो उसने सीखी है, जिस बात के विषय उसे निर्देश दिए गए हैं। तीमुथियुस के लिए यह मुख्यतः पौलुस के साथ रहने के द्वारा हुआ था, और हम पहले देख चुके हैं कि पौलुस हमेशा ही केवल वही प्रचार करता, सिखाता, और निर्देश देता था जो उसे पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से मिलता था, न कि उसकी अपने ज्ञान, बुद्धि, या समझ की किसी बात के। पौलुस द्वारा तीमुथियुस को दिया गया यह निर्देश, बहुत कुछ उस निर्देश के समान है जो प्रभु यीशु ने अपने स्वर्गारोहण से पहले अपनी महान आज्ञा में अपने शिष्यों को दिया था (मत्ती 28:18-20) – शिष्यों को केवल उसी का प्रचार करना था, वही शिक्षा देनी थे जो प्रभु ने उन्हें सिखाया था, और उन्हें यह पवित्र आत्मा की सामर्थ्य के अंतर्गत करना था (प्रेरितों 1:8)। क्योंकि उनका प्रभु के प्रति आज्ञाकारी बने रहना अनिवार्य था, इसलिए, तात्पर्य यही है कि उन्हें अपनी बुद्धि और समझ से गढ़ी गई, रची गई किसी भी बात का पालन, प्रचार, या सिखाना नहीं करना था।
तीमुथियुस को लिखी उसकी दूसरी पत्री में पौलुस उस से यह भी कहता है कि वह सत्य के वचन को ठीक रीति से काम में लाने वाला बने (2 तीमुथियुस 2:14-17); और किसी को भी यह करने की समझ-बूझ केवल पवित्र आत्मा पर निर्भर रहने से ही आ सकती है, क्योंकि पवित्र आत्मा के कार्यों में से एक है कि वह परमेश्वर के वचन को सिखाने और समझाने के लिए विश्वासियों का सहायक है (यूहन्ना 14:26; 16:13; 1 कुरिन्थियों 2:10-14)। मसीहियों से संबंधित यह एक दुखद और समझने में बहुत कठिन कटु तथ्य है कि कलीसियाओं में, मण्डलियों में, विश्वासियों में, एक अनुचित किन्तु बहुत प्रचलित प्रवृत्ति है कि बजाए परमेश्वर पवित्र आत्मा पर निर्भर होने के, उससे परमेश्वर के वचन को सीखने और अपने जीवन में वचन की बातों और निहितार्थों को लागू करने के, विश्वासी अन्य मनुष्यों पर, मनुष्यों के वचनों और लेखों पर, और यहाँ तक कि उनकी मन-गढ़न्त बातों तथा कहानियों पर भी अधिक निर्भर रहते हैं। यह प्रचलित प्रवृत्ति विश्वासियों के जीवन में कई प्रकार से प्रकट होती है, जैसे कि, मनुष्यों का अनुसरण करना, बिना जाँचे-परखे एक अँध-विश्वास में उनके शब्दों, वाक्यांशों, और व्यवहार की नकल करना, और फिर कलीसिया में दल या गुट बना लेना; कलीसिया में और विश्वासियों के मध्य विभाजन उत्पन्न करना और फिर उन्हें बनाए भी रखना; कलीसिया के संचालन और देखभाल के लिए परमेश्वर द्वारा दिए गए और बाइबल में लिखे गए निर्देशों का नहीं वरन मनुष्यों के बनाए हुए नियम, तरीके, और निर्देशों का पालन करना; निर्णय लेने में परमेश्वर से बढ़कर मनुष्यों को स्थान देना; परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला होने की बजाए मनुष्यों को प्रसन्न रखने वाला होने की प्रवृत्ति रखना; परमेश्वर की बजाए मनुष्यों के भय में रहना और काम करना; आदि। और इससे देर-सवेर विश्वासियों के अपने जीवनों में तथा कलीसिया में और परमेश्वर की सन्तानों में कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं।
यदि किसी भी कारण से हम कलीसिया और विश्वासियों के बढ़ोतरी और उन्नति में योगदान नहीं दे पाते हैं, तो कम से कम हमें इतना तो करना चाहिए कि अपने व्यवहार और प्रचार के द्वारा कलीसिया में अनबन और विभाजन करने वाली किसी बात को लेकर न आएँ। यह करने के लिए, हमें बस इतना ही करना पर्याप्त होगा कि किसी मनुष्य का अनुसरण और उसकी बातों की नकल और पालन करना छोड़कर, वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करने लगें, उसके वचन का पालन करने लगें। पौलुस ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में, प्रभु का अनुसरण और उसके वचन का पालन करने के लिए अपने आप को एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है, और लिखा है कि औरों को भी उसके समान ही प्रभु का वैसे ही पालन करना चाहिए जैसे वह करता है, क्योंकि वह जो प्रचार करता और सिखाता था, वह उसकी अपनी मन-गढ़न्त बातें नहीं थीं, वरन वे बातें थीं जो उसे प्रभु ने विश्वासियों और कलीसियाओं के लिए दी थीं (1 कुरिन्थियों 11:1; 1 थिस्सलुनीकियों 4:1-2)।
अगले लेख से हम कलीसिया में अगुवों की भूमिका और कलीसिया में अनुशासन लागू करने के बारे में कुछ बातें देखना आरंभ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Practical Implications – 11
All Born-Again Christian Believers, at the moment of their salvation are made a part of God’s Church and are placed by God in fellowship of His other children. For these God given privileges, every Believer is also a steward of God and accountable to Him for fulfilling his stewardship worthily. As stewards of God’s Church and of the fellowship of His children, the Believers are to be involved in the growth of the Church and spiritual progress of God’s other children. For this, as we have learnt in the past few articles, the role of the ministry of God’s Word is of paramount importance. Those entrusted with the ministry of God’s Word are to serve God’s Word to the Church and God’s children regularly, adequately, and properly – both in quality as well quantity. In the recent articles we have seen some aspects of this ministry, and in the last article we saw From Paul’s summary of his ministry in Ephesus that he, under the guidance of the Holy Spirit, had unhesitatingly declared to them the whole counsel of God. Therefore, when he went from Ephesus to Macedonia, he left Timothy behind to ensure that those who preach and teach there, should not teach anything other than what Paul had taught. We saw the salient features of Paul’s ministry in Ephesus, which provide a scriptural guideline for us today to follow, especially for those engaged in the ministry of God’s Word. Today we will consider some more Biblical instructions in context of the Word ministry; instructions that help the Church to grow and the Believers to progress in their spiritual lives.
Having seen some very important aspects of the ministry of God’s Word for the growth and progress of the Church and the Believers from 1 Timothy 1:3-4 in the recent articles, there is another important instruction to also take note of, stated later in Paul’s this first letter to Timothy. In 1 Timothy 4:6, having given instructions to Timothy through the Holy Spirit, Paul asks him to instruct others about that which has been given i.e., has been taught or instructed to him. Through our study of 1 Timothy 1:3-4 in the previous two articles, we have already seen and understood why Paul is asking Timothy to do this. But here, in 1 Timothy 4:6, we see another benefit, for the preacher, of sincerely preaching and teaching God’s pure Word in its truth and entirety, under the guidance of the Holy Spirit.
It is written here that by doing this “you will be a good minister of Jesus Christ, nourished in the words of faith and of the good doctrine which you have carefully followed.” In other words, Paul is pointing out to Timothy that when he faithfully instructs others about God’s pure Word, and he himself also takes care to carefully continue to follow the ‘good doctrine’ that he is preaching and teaching to others, it will contribute to his own spiritual growth and stability. So, here we have mentioned a two-fold benefit of being “a good minister of Jesus Christ” i.e., sincerely and honestly ministering God’s Word, instead of being a minister of man’s word, instead of ministering fables and genealogies contrived by man. These two benefits are, firstly it will cause the growth and progress of the Church and the Believers, and secondly, it will cause such a preacher and teacher to himself be “nourished in the words of faith and of the good doctrine” which he shares and also carefully follows. The lesson is, for the Believer’s own spiritual growth, they should sincerely and honestly teach others, the true and unadulterated Word of God.
As one goes through both these letters of instructions written by Paul to Timothy, we see that nowhere does he ask or encourage him to use his own wisdom and understanding about this ministry. Rather, Paul only asks and repeatedly emphasizes upon him to instruct others about what he has already received, has already been instructed about. Timothy had mainly learned these things through his association with Paul; and we have seen earlier that Paul always preached, taught, and instructed nothing out of his own knowledge, wisdom, and understanding, but only what he received from the Lord, what he had under the guidance of the Holy Spirit. This instruction of Paul to Timothy is very similar to what the Lord Jesus had instructed His disciples at the time of His ascension, in the Great Commission (Matthew 28:18-20) – the disciples had to preach and teach only that which the Lord had taught them, and do so under the power of the Holy Spirit (Acts 1:8). Since their obedience to the Lord’s instructions was essential, therefore, by implication, they were not to practice, preach, or teach anything that they contrived through their own wisdom and understanding.
In his second letter to Timothy, Paul also asks him to be one who rightly divides God's Word (2 Timothy 2:14-17); and for any person this discernment can only come through being dependent upon the Holy Spirit, since one of the functions of the Holy Spirit as the Believer’s Helper is to teach and expound God’s Word to them (John 14:26; 16:13; 1 Corinthians 2:10-14). It is a sad and a very difficult to understand bitter fact of Christianity, that in the Churches or Assemblies and amongst Believers, there is an inordinate but prevalent tendency for Believers to rely more upon men, men’s teachings, words, and writings, and often even on men’s fables, than upon the Holy Spirit of God to learn God’s Word and its practical implications and application in life. And, this tendency manifests itself in many ways in the life of Believers, e.g., of following men, of in blind faith copying the words, phrases, and mannerisms of men without cross-checking and examining them, and forming factions in the Church; of causing and maintaining divisions in the Church and amongst Believers; of ignoring the God given methods and the Biblical instructions for the functioning of the Church and instead following man-made rules, regulations and instructions; of putting man before God in taking decisions; of trying to be a man-pleaser rather than a God pleaser; of being more afraid of man than of God; etc., and it sooner or later leads to various problems in the Believer’s own lives, in the Church, and in fellowship amongst God’s children.
If we, for whatever reasons, are unable to contribute to the growth and progress of the Church and the Believers; then the least we can do is not in any way preach and teach things that contribute to disunity and divisions in the Church. For this, all that we need to do is to stop following persons and copying their words, and actually start following God and obeying His Word. Paul through the Holy Spirit, has set himself as an example of following the Lord, and wants that others too should follow the Lord in the same manner as he was doing, since what he was preaching and teaching was not something he had devised, but what he had received from the Lord for the Believers and Church of the Lord (1 Corinthians 11:1; 1 Thessalonians 4:1-2).
From the next article we will start considering the role of the Church Elders and some aspects of enforcing discipline in the Church.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.