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प्रभु की मेज़ - परमेश्वर द्वारा पाप से व्यवहार (1)
अभी तक, प्रभु भोज के बारे में 1 कुरिन्थियों 11:23-29 तक के अध्ययन में हमने देखा है कि प्रभु यीशु ने प्रभु भोज की स्थापना अपने प्रतिबद्ध शिष्यों के लिए की थी, प्रभु भोज में योग्य और अनुचित रीति से भाग लेने का क्या अर्थ है, प्रभु यीशु के प्रतिबद्ध शिष्यों के लिए प्रभु भोज में भाग लेना एक अनिवार्यता है, और प्रत्येक मसीही विश्वासी को भाग लेने से पहले अपने आप को जाँचना ही है। आज, आगे बढ़ते हुए, हम 1 कुरिन्थियों 11:30-31 से देखेंगे कि अयोग्य या अनुचित रीति से भाग लेने के क्या दुष्परिणाम होते हैं, जैसा कि पौलुस ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में लिखे हैं। ये दो पद हमारे सामने रखते हैं कि क्या होता है जब कोई मसीही विश्वासी प्रभु के निर्देशों को हल्के में लेता है, उनकी अनदेखी करता है, अपनी इच्छा के अनुसार करता है, इस पूर्व-धारणा के साथ कि क्योंकि वह परमेश्वर की संतान है, उसे कभी कोई हानि नहीं होगी। किन्तु यह एक बहुत गलत धारणा है, शैतान द्वारा दिया गया धोखा है, मसीही विश्वासियों को बहकाने और गलत मार्ग पर डालने के लिए, जिससे परमेश्वर की संतान हानि उठाए। जैसा कि हम पिछले लेख में प्रेरितों 17:30-31; 2 कुरिन्थियों 5:10; 1 कुरिन्थियों 3:13-15; और 1 पतरस 4:16-17 से देख चुके हैं, सभी को, मसीही विश्वासियों को भी, प्रभु यीशु के सामने खड़े होकर अपने जीवनों और कार्यों का हिसाब उसे देना होगा, उनके द्वारा जिए गए जीवनों और किए गए कार्यों की बहुत बारीकी से और कड़ाई से, परमेश्वर के मानकों के आधार पर जाँच की जाएगी उन्हें उनके प्रतिफल देने के लिए, और परमेश्वर के न्याय का आरंभ मसीही विश्वासियों के न्याय के साथ होगा।
परमेश्वर के वचन में, परमेश्वर द्वारा पाप से व्यवहार करने के केवल दो ही तरीके हैं, और प्रत्येक व्यक्ति को, मसीही विश्वासियों को भी, इन दो में से एक तरीके को चुनना होता है। परमेश्वर या तो पाप को क्षमा कर सकता है, या पाप के लिए न्याय करके उसका दण्ड दे सकता है। बाइबल में पाप के साथ व्यवहार के लिए और कोई तरीका नहीं दिया गया है। यदि परमेश्वर को किसी पाप को क्षमा करना है, तो व्यक्ति को अपने जीवन में उस पाप की उपस्थिति को स्वीकार करना होगा, उस विशिष्ट पाप को प्रभु के सामने मानना होगा, सच्चे और खरे मन से उसके लिए पश्चाताप करके, प्रभु से उसके लिए क्षमा माँगनी होगी। यह रीति के समान, औपचारिकता निभाते हुए, बारंबार धार्मिक अनुष्ठान की प्रथा का दोहराया जाना नहीं हो सकता है, जैसे कि बहुत सी डिनॉमिनेशनल कलीसियाओं में देखने को मिलता है, विशेषकर तब जब लोग अपने प्रभु भोज को मना रहे होते हैं। ऐसे में कलीसिया के एकत्रित लोग या तो किसी छपी हुई पुस्तक से, अथवा अपने पास्टर के पीछे-पीछे दोहराते रहते हैं, जिसमें संभव है कि एक सामान्य बुराइयों की कोई सामान्य सूची भी दी हुई हो। लेकिन शायद ही कोई इस रीति का निर्वाह अपने पाप के विषय सच्ची कायलता, और उसके लिए खरे पश्चाताप के साथ करता है।
ध्यान रखिए कि प्रभु को किसी रीति के नाम-मात्र के लिए पूरा किए जाने में कोई रुचि नहीं है। न ही प्रभु किसी मनुष्य की जाँच और परख मनुष्यों द्वारा बनाए गए तरीकों या मानकों के आधार पर करता है। क्योंकि पाप को क्षमा करना प्रभु का काम है, इसलिए जब तक कि प्रभु, जो बारीकी से मनुष्य के हृदय की गहराइयों को भी देख लेता है, उसके मन की वास्तविक दशा को जानता और पहचानता है, यदि मनुष्य के पश्चाताप और क्षमा याचना की खराई को स्वीकार नहीं करता है, तब तक उस व्यक्ति के द्वारा की गई हर बात व्यर्थ है, निष्फल है, और वास्तव में यह दोगलापन है, परमेश्वर का मज़ाक उड़ाना है (मत्ती 15:7-9, 13-14)। किसी व्यक्ति के द्वारा सच्चे मन से पापों के लिए पश्चाताप करने का अर्थ है, पहले उन विशिष्ट पापों के जीवन में होने को स्वीकार करना, फिर उन विशिष्ट पापों को प्रभु के सामने उन पापों का नाम लेते हुए मान लेना, और फिर प्रभु के समक्ष यह निर्णय लेना कि अब से वह उन पापों को अपने जीवन से निकाल देगा, और फिर इस निर्णय का अपने व्यावहारिक जीवन में निर्वाह करना।
इस बात का एक उत्तम उदाहरण यशायाह नबी का जीवन है, यशायाह 6:1-8 देखिए। ध्यान रखिए कि इस स्वर्गीय दर्शन से पहले भी यशायाह परमेश्वर का नबी था, जैसा कि हम इस पुस्तक के आरंभ से ही देखते हैं। यद्यपि पहले भी यशायाह ने परमेश्वर से दर्शन और निर्देश पाए थे, किन्तु यशायाह 6 का परमेश्वर के अपनी महिमा में अपने सिंहासन पर बैठे होने का दर्शन यशायाह ने पहली बार देखा था। जब यशायाह ने परमेश्वर की पवित्रता और महिमा के साथ सिंहासन पर बैठे होने के दर्शन को देखा, यद्यपि वह परमेश्वर का नबी और संदेशवाहक था, फिर भी वह तुरन्त ही अपनी पापमय दशा के लिए कायल हो गया, और विशिष्ट रीति से अपने पाप का अंगीकार किया, “मैं अशुद्ध होंठ वाला मनुष्य हूं, और अशुद्ध होंठ वाले मनुष्यों के बीच में रहता हूं” (6:5)। जब यशायाह अपने विशिष्ट पाप का अंगीकार करता है, एक साराप परमेश्वर की वेदी से अँगारा उठाकर उसके शरीर के पाप करने वाले स्थान - उसके होंठों को छू लेता है (6:6-7), और उसे उसके अधर्म दूर होने, पाप क्षमा होने का आश्वासन दिया जाता है, वह प्रभु परमेश्वर के लिए काम पर जाने के लिए तैयार हो जाता है। लगभग यही बात अय्यूब के साथ भी देखने को मिलती है (अय्यूब 40:3-5; 42:1-6), जो इस सारी पुस्तक में बड़े घमण्ड के साथ अपनी धार्मिकता का और अपने अनुचित रीति से दुख भोगने की दावे करता आ रहा था। किन्तु जैसे ही परमेश्वर अपनी महिमा में उसका सामना करता है, तुरन्त ही अय्यूब को अपनी वास्तविक दशा का एहसास होता है, और वह मान लेता है कि उसे अब अपने पर ही घृणा आती है, और वह पश्चाताप करता है।
यही 2 कुरिन्थियों 7:10 का “परमेश्वर-भक्ति का शोक” है, जो पश्चातापी मनुष्य को उद्धार पर ले जाता है, जिसके लिए फिर कोई पछतावा नहीं होता है। किन्तु रीति के समान, औपचारिक रीति से किया गया पश्चाताप, जिसे इस पद में “संसारी शोक” कहा गया है, वह मृत्यु लेकर आता है, क्योंकि वह कभी भी सच्चे मन से किया गया शोक और खरा पश्चाताप था ही नहीं। उस व्यक्ति के पाप कभी माने ही नहीं गए, कभी उनकी क्षमा प्राप्त ही नहीं हुई, और वे अभी भी उस व्यक्ति के जीवन का उतना ही भाग हैं जितना प्रभु भोज में भाग लेने से पहले थे, क्योंकि उसने कभी उन्हें छोड़ने का कोई निर्णय लिया ही नहीं था। वह व्यक्ति तो केवल एक रीति का निर्वाह करने के लिए, एक औपचारिकता को पूरा करने के लिए आया था, और उसके डिनॉमिनेशन की रीति के अनुसार यह करने के बाद इस संतुष्टि के साथ चला गया कि अब वह परमेश्वर के साथ ठीक दशा में आ गया है, क्योंकि उसके पास्टर ने उससे यह कह दिया है। किन्तु वास्तविकता में तो वह जिस हाल में आया था, उससे किसी भी बेहतर स्थिति में नहीं लौटा, वरन संभवतः और बिगड़ी हुई दशा में लौटा, क्योंकि अब उसपर एक और अयोग्य रीति से मेज़ में भाग लेने और परमेश्वर का मज़ाक उड़ाने का पाप भी जुड़ गया है।
अगले लेख में हम इसके बारे में थोड़ा और देखेंगे, और पाप के साथ व्यवहार के परमेश्वर के दूसरे तरीके - न्याय और दण्ड के बारे में भी देखेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
उत्पत्ति 36-38
मत्ती 10:21-42
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The Lord’s Table - God’s Dealing With Sin (1)
So far, in our study about the Holy Communion from 1 Corinthians 11:23-29, we have seen about the setting up of the Communion by the Lord for His committed disciples, what it means to participate worthily or unworthily, participating in the Lord’s Table being a mandatory for the committed disciples of the Lord Jesus, and the necessity of every disciple of the Lord examining himself before participating in the Lord’s Table. Today, moving ahead, from 1 Corinthians 11:30-31, we will see the consequences of participating unworthily, mentioned by Paul under the guidance of the holy Spirit. These two verses place before us what happens if the Christian Believer takes the Lord’s instructions lightly, ignores them, and does what he feels like, under the presumption that since he is a child of God, he will never come to any harm. But this is a very wrong notion, a satanic deception to misguide and mislead God’s children into harm. As we have seen from Acts 17:30-31; 2 Corinthians 5:10; 1 Corinthians 3:13-15; and 1 Peter 4:16-17 in the last article, everyone, including the Christian Believers will have to stand before the Lord Jesus, give an account of their lives, and undergo a meticulously carried out strict scrutiny according to God’s standards, of the life they have lived, to receive the rewards from the Lord; and God’s judgment will begin with the Christian Believers.
In the Word of God, there are only two ways in which sin can be dealt with by God, and every person, including the Christian Believer, has to choose one or the other for God to deal with their sin. Either God can forgive sin, or He has to punish sin. There is no other way mentioned for handling sin in the Bible. If God has to forgive sin, then the person has to acknowledge the presence of sin in his life, specifically confess that sin to the Lord Jesus, sincerely and honestly repent of it, and ask for forgiveness from Him for it. This cannot be a ritualistic, perfunctory repetition as is routinely and liturgically practiced in the denominational Churches, especially while having their Holy Communion. The congregation simply reads or repeats after the Pastor from their printed book, where a general list of common wrong-doings may be mentioned. But quite unlikely that anyone ever goes through this ritual with a sincere sense or conviction of sin and repentance.
Remember, the Lord is neither interested in the technical fulfillment of a ritual, nor does He evaluate and decide by man’s methods and criteria. It is the Lord who has to forgive the sin; so, unless the Lord, who looks deep into the hearts of men seeing the actual state of the heart, is convinced about the sincerity of a person’s repentance and asking for forgiveness, everything that the person does is vain, inconsequential, and in-fact a mockery of God and His instructions (Matthew 15:7-9, 13-14). For a person to sincerely repent of his sins, he has to first accept the specific sins he has committed, confess those specific sins, naming them or recounting them to the Lord, decide in the presence of the Lord to get rid of them from his life, and then follow up the decision by implementing it in his life.
This is well illustrated from the life of Isaiah, in Isaiah 6:1-8. Remember, even before this heavenly vision seen by Isaiah, he already was a Prophet of God, as we see right from the beginning of this book. While Isaiah had been receiving visions and instructions from God, but the vision of God in His majesty, seated on His throne, was first seen by Isaiah in chapter 6. When Isaiah sees the Lord God in His holiness and majesty, though a Prophet and spokesperson of God, he is immediately convicted of his own sins, and cries out confessing specifically that “I am a man of unclean lips, And I dwell in the midst of a people of unclean lips” (6:5). When Isaiah confesses his sin, a seraphim takes a coal from the altar of God and touches the sinning part of Isaiah’s body - his lips (6:6-7), and he is assured of his sin being forgiven and iniquity removed, and he is now ready to go to work for the Lord God. Much the same happened to Job (Job 40:3-5; 42:1-6), who throughout the book, till this point, had been proudly declaring his being righteous and suffering unjustly. But the moment God in His majesty confronts him, Job immediately realizes his actual condition, and confesses that he is vile, abhors himself and repents.
This is the “godly sorrow” of 2 Corinthians 7:10, that leads to salvation of the penitent person, and for which there will not be any regrets later. But the ritualistic, perfunctory repentance, addressed in this verse as “sorrow of the world” produces death, since it never was a sorrow of the heart, never was a true repentance. Those sins still remained unconfessed, unforgiven, and still very much a part and parcel of the person’s life; they were never actually regretted for and the person never meant to cast them away. All he had come to do was fulfill a religious ritual, an obligation, and having done it in the denominationally prescribed manner, he went back content that he had become right with God since his Pastor told him that; but actually no better than the condition he had come in, maybe somewhat worse, since now another sin of unworthily participating in the Communion and mocking God had also been added to his list of sins.
In the next article, we will see more about this, and the second way of God handling sin - by judgment. If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Genesis 36-38
Matthew 10:21-42
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