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रविवार, 2 अप्रैल 2023

आराधना (29) / Understanding Worship (29)

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आराधना के लिए परिवर्तित (6) 


हम 2 इतिहास, 29 अध्याय से उस प्रक्रिया को देखते आ रहे हैं, जिसके द्वारा एक मसीही विश्वासी परमेश्वर का आराधक बनता है, वह, जो आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना करता है, जैसे आराधकों को परमेश्वर ढूँढ़ रहा है। जिस प्रकार से राजा हिजकिय्याह ने, अपने पिता अधर्मी राजा  आहाज से राज्य प्राप्त करने के बाद, यरूशलेम में मंदिर को, याजकों और लेवियों को, तथा मंदिर की वस्तुओं को बहाल किया था; और केवल उसके बाद ही वहाँ पर आराधना आरंभ हो सकी थी; उसी प्रकार से एक नया-जन्म पाया हुआ विश्वासी भी, जो उद्धार के समय लिए गए अपने निर्णय पर बना नहीं रह सका है, अर्थात प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता स्वीकार करने के बाद उसका अनुसरण और आज्ञाकारिता करते रहने में बना नहीं रह सका है, अपने हृदय को, जो पवित्र आत्मा का मंदिर है, उसे बहाल कर सकता है, और वैसे आराधक में परिवर्तित हो सकता है, जैसा परमेश्वर चाहता है कि वह बने। हम देख चुके हैं कि यह चार क़दमों से होकर होता है; इनमें से पहले तीन कदम मंदिर को खोल देने, उसकी मरम्मत करने, सफाई करने, उसे शुद्ध उर पवित्र करने; याजकों तथा लेवियों को तथा मंदिर की वस्तुओं को एकत्रित करने, उन्हें भी साफ़, शुद्ध और पवित्र करने, उन्हें वापस उनके कार्यों के लिए बहाल करने के बारे में हैं। केवल इसके बाद ही, जैसे कि 2 इतिहास 29:20-36 में रूप-रेखा दी गई है, मंदिर में आराधना आरंभ होती है। इसी प्रकार से विश्वासी को भी अपने हृदय को खोलना होता है, सांसारिकता और पापों से स्वच्छ करना होता है, उसे शुद्ध और पवित्र कर के, उसकी मरम्मत करके इस बात का ध्यान रखना होता है कि उसके हृदय के अन्दर क्या आ रहा है, और बाहर क्या जा रहा, तथा दृढ़ निर्णय करके परमेश्वर तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता में बने रहकर जीवन जीने के लिए प्रतिबद्ध रहना होता है। विश्वासी को भी अपने जीवन में परमेश्वर की बातों के अनुसार भक्ति का जीवन जीने के लिए उन बातों की प्राथमिकता और स्थान, अर्थात प्रेरितों 2:42 की बातों को बहाल करना होता है। यह होने के बाद ही वह चौथे कदम, अर्थात परमेश्वर की सच्ची आराधना करने की स्थिति में आता है। जैसा पिछले लेख में देखा था, यह चौथा और अंतिम कदम, चार चरणों में पूरा होता है, और आज से हम इन को देखना आरंभ करेंगे।


चरण 1 - 2 इतिहास 29:20-24 - पापों का सार्वजनिक अंगीकार और उनके लिए परमेश्वर से क्षमा याचना: राजा हिजकिय्याह उस स्थिति से भली-भांति अवगत था, जिस स्थिति में अपने मूर्तिपूजा और अन्य-जातियों के समान अधर्मी व्यवहार के द्वारा उसके पिता ने राज्य को, परमेश्वर के निवास स्थान को, और परमेश्वर के लोगों को ला कर छोड़ा था। परमेश्वर के साथ कोई भी सार्थक संबंध में आने और उस से आशीषों को प्राप्त करने के लिए, वह सर्वप्रथम और सर्वोपरि बात जिसका पालन किए जाने की आवश्यकता थी, वह थी राज्य को, निवास स्थान को, और समस्त यहूदा की प्रजा को परमेश्वर की क्षमा के आधीन ले आना। परमेश्वर के मंदिर को खुलवा कर साफ़, शुद्ध और पवित्र करवा देने, उसकी मरम्मत करवा देने, याजकों और लेवियों तथा मंदिर की वस्तुओं को शुद्ध और पवित्र करवाकर उन्हें बहाल करवा देने के बाद हिजकिय्याह ने बात को यहीं नहीं छोड़ दिया, इस धारणा के साथ अब यहाँ से आगे लोग अपना काम करते रहेंगे। हम पद 20 से देखते हैं कि हिजकिय्याह ने स्वयं के उदाहरण के साथ नेतृत्व किया। हिजकिय्याह ने सवेरे उठकर हाकिमों को इकट्ठा किया, और उनके साथ मंदिर में गया। वहां जाकर, सबसे पहले प्रायश्चित के लिए, परमेश्वर की व्यवस्था के अनुसार (लैव्यव्यवस्था 4 अध्याय), उन्होंने पाप-बलि चढ़ाई। हम पद 21 से देखते हैं कि यह राज्य के लिए, निवास स्थान के लिए, यहूदा, और समस्त इस्राएल (पद 24), के लिए किया गया। इस प्रकार से सभी को, सब बातों को, पापों के अंगीकार और उनके लिए व्यवस्था के अनुसार पाप बलि चढ़ाने के द्वारा प्रायश्चित के आधीन लाया गया।


मसीही विश्वासी के जीवन में भी, जो परमेश्वर का सच्चा और फलवन्त आराधक बनना चाहता है, यही बात ऐसी ही लागू होती है; उसे भी अपने जीवन की सभी पक्षों और बातों को एकत्रित करके, विशेषकर वे जो उसके जीवन तथा दिनचर्या को नियंत्रित करती हैं, उसकी आदतों को, उसकी प्राथमिकताओं, आदि को, परमेश्वर के समक्ष लेकर आना है, उनका और उसके जीवन में उनके प्रभावों का परमेश्वर के सामने अंगीकार करना है, और उन्हें परमेश्वर के सामने रखना है, यह मानते हुए कि वे सभी उसके जीवन पर नियंत्रण रखती हैं। प्रभु हमारा परमेश्वर, न तो कठोर है और न ही वास्तविकता से अनभिज्ञ और बेपरवाह है; “क्योंकि वह हमारी सृष्टि जानता है; और उसको स्मरण रहता है कि मनुष्य मिट्टी ही है” (भजन संहिता 103:14)। उसे पता है कि इस संसार में रहते हुए, और शैतान क्योंकि निरंतर हम पर किसी न किसी प्रकार से हमले करता ही रहता है कि हमें किसी बात में गिरा दे, इसलिए हम दूषित हो सकते हैं, और होते भी हैं। इसीलिए, पकड़वाए जाने से पहले शिष्यों के साथ अंतिम फसह के भोज के समय, जब प्रभु यीशु ने शिष्यों के पांव धोए, और पतरस ने प्रभु को उसके पाँव धोने से रोकना चाहा, तो प्रभु ने पतरस को शान्त करते हुए उससे कहा, “यीशु ने उस से कहा, जो नहा चुका है, उसे पांव के सिवा और कुछ धोने का प्रयोजन नहीं; परन्तु वह बिलकुल शुद्ध है: और तुम शुद्ध हो; परन्तु सब के सब नहीं” (यूहन्ना 13:10)। नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों को उद्धार के समय प्रभु द्वारा नहला कर शुद्ध कर दिया गया है। लेकिन संसार में जीते और कार्य करते हुए, हम पाप और समझौतों में गिरते रहते हैं; समय-समय पर शैतान हमें गलत शिक्षाओं और अनुचित व्यवहार द्वारा बहका कर पाप में गिराता रहता है। हम जब कभी भी इस दशा में आ जाएँ, तो हमारे अन्दर निवास करने वाला परमेश्वर पवित्र आत्मा हमें हमारे पापों के लिए कायल करता है, क्योंकि यह उसके हमारे अन्दर निवास करने से संबंधित कार्यों में से एक है (यूहन्ना 16:8)। यदि हम पवित्र आत्मा के कहे, उसके द्वारा हमें हमारे पाप में होने की दशा के लिए बेचैन किए जाने के प्रति संवेदनशील होंगे, तो हम यह एहसास कर लेंगे कि हम किसी रीति से, किसी बात में, प्रभु के मार्ग से भटक गए हैं, और हमें उसके पास वापस लौटने की आवश्यकता है। इसीलिए हमें भी, समय-समय पर, हमारे पांवों को धुलवाने की आवश्यकता होती है किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा नहीं, किसी धर्म या धार्मिक कार्यों के द्वारा नहीं, परन्तु केवल प्रभु यीशु ही के द्वारा (यूहन्ना 13:8)। दूसरे शब्दों में, हमें बारंबार प्रभु के पास पापों के अंगीकार और पश्चाताप के साथ आते रहना होता है, उसके द्वारा स्वच्छ और बहाल किए जाने की आवश्यकता होती है, चाहे जितनी भी बार इसकी आवश्यकता हो। मसीह यीशु हमारी पाप बलि है - जब भी, जितनी भी बार, हमें उसकी आवश्यकता हो। प्रत्येक मसीही विश्वासी को अपने पापों के अंगीकार और उनसे पश्चाताप के साथ उसकी अधीनता में, उसकी धार्मिकता की अधीनता में आना चाहिए (1 यूहन्ना 1:9; प्रेरितों 3:19); केवल तब ही हम योग्य रीति से प्रभु के लिए कुछ करने पाएँगे।


जब पाप बलि चढ़ाई गई, तो दूसरे चरण के तथा आराधना के आरंभ होने के लिए भी मंच तैयार हो गया। इस दूसरे चरण को हम अगले लेख में देखेंगे।

   

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • न्यायियों 16-18           

  • लूका 7:1-30      


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English Translation


Being Transformed To Worship (6)


We have been studying from 2 Chronicles, chapter 29 the process through which a Christian Believer becomes a worshipper of God, one who worships God in spirit and in truth, the kind of worshipper that God is looking for. As King Hezekiah, after inheriting the kingdom of Judah from his ungodly father Ahaz, restored the Temple in Jerusalem, the Priests and Levites, and the things of the Temple; and only then could the worship could begin from there; similarly a Born--Again Christian Believer, who has not lived up to his decision at the time of accepting the Lord Jesus as savior, i.e., of following and obeying the Lord, can restore his heart, i.e., the Temple of the Holy Spirit, and be transformed into the worshipper God wants him to be. We have seen that this happens through four steps; the first three of these four steps are about opening the Temple, repairing, cleansing, and sanctifying it; gathering, cleansing and sanctifying the Priests and Levites, and the things of the Temple, restoring them to their place and function in the Temple. Only then, as the fourth step, outlined in 2 Chronicles 29:20-36, does the worship begin in the Temple. Similarly, the Believer has to open his heart, cleanse it of the worldliness and sinfulness, sanctify it, repair it and firmly resolve to live committed and obedient to God and His Word, keeping an eye upon and regulating what goes in to and out of his heart. The Believer too has to restore to their primary importance and place in his life, and make fully functional the things of godly living, i.e., Acts 2:42, in his life. It is only then that he can enter into the fourth and final step of becoming a worshipper of the Lord. As stated in the last article, this fourth and final step is completed in four stages, and we will start looking at these stages now.


Stage 1 - 2 Chronicles 29:20-24 - Public Confession and Seeking of Lord’s Forgiveness: King Hezekiah was well aware of the state his father had left the kingdom, God’s sanctuary, and people of God through his idolatrous, ungodly behavior. To have any meaningful relationship with God and His blessings, the first and foremost thing to be done was to bring the kingdom, the sanctuary, and all of Judah under God’s forgiveness. Having had the opening, repairing, cleansing, and sanctification of the Temple, the people of the Temple, and the things of the Temple done, Hezekiah did not leave it there, assuming that now things will carry on as they ought to. We see from verse 20 that Hezekiah led by example. Hezekiah rose early, gathered the administrative officials and went to the Temple with them. There, first of all, to make an atonement, they offered the prescribed sin offering as per the Law given by God (Leviticus chapter 4). We see form verse 21 that this was done for the kingdom, for the sanctuary, for Judah, and for all Israel (verse 24). So, everyone and everything was brought under the confession of their sins, and an atonement was made in the prescribed manner, through the sin offering.


In a Christian Believer’s life, wanting to be a true and fruitful worshipper of God, the same holds true; he too has to actively gather all aspects of his life, especially those that control and regulate his day-to-day life, his habits, his priorities, etc., and bring into the presence of God, confess them and their influences in his life  and place them before God, as the influences that govern his life. The Lord our God is neither harsh nor unrealistic. He well knows our frame and remembers that we are but dust (Psalms 103:14). He knows that living in this world, and with Satan relentlessly attacking us in various ways to bring us down, we will get sullied. Therefore, at the time of the Last Supper with His disciples, while washing the feet of the disciples, when Peter tried to prevent the Lord from doing this to him, the Lord pacified Peter and said to him, “Jesus said to him, "He who is bathed needs only to wash his feet, but is completely clean; and you are clean, but not all of you."” (John 13:10). The Born-Again Christian Believers have been ‘bathed’ and made clean by the Lord at our salvation. But as we live and work in the world we do tend to fall into compromises and sin, from time-to-time, we get misled and misguided by Satan into various kinds of wrongdoings. Whenever we get into this state, the Holy Spirit residing in us convicts us of our sin, since that is one of His functions in us (John 16:8). If we are sensitive to His promptings, and to His making us restless when we are in sin, we will realize that we have gone astray from the ways of the Lord in some way, in some manner, and need to return back to Him. Therefore, we do need to have our feet washed, not by anyone else, not by any religion or religious works, but by the Lord (John 13:8), from time to time. In other words, we have to keep coming to the Lord in confession and repentance and get Him to cleanse and restore us, as often as it is required – Christ Jesus is our sin offering – as and when required, as many times it needs to be done, all of us Christian Believers should confess and repent, and come under Him, under the cover of His righteousness (1 John 1:9; Acts 3:19), only then can we do anything worthily for the Lord.

 

As the sin offering was made, the stage was set and made ready for the second stage of worship to begin. This second stage, we will see in the next article.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.  


Through the Bible in a Year: 

  • Judges 16-18

  • Luke 7:1-30


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