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प्रभु की मेज़ - प्रभु द्वारा निर्धारित विधि से भाग लेने के लिए
प्रभु भोज के हमारे इस अध्ययन में, हमने देखा है कि प्रभु भोज की स्थापना प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों के साथ फसह का भोज खाते समय और फसह की सामग्री के द्वारा की थी। प्रभु भोज का प्ररूप फसह है और उससे संबंधित परमेश्वर के निर्देश निर्गमन 12 में दिए गए हैं। हमने अपने पहले खण्ड, निर्गमन 12:1-14 से प्रभु भोज का उसके प्ररूप फसह से अध्ययन करते समय, फसह तथा प्रभु भोज के बारे में परमेश्वर की योजनाओं और उद्देश्यों के बारे में बहुत कुछ सीखा है। हमने देखा है कि परमेश्वर इसे लेकर बहुत निश्चित और विशिष्ट रहा है, कि इनमें भाग किस प्रकार से लिया जाना है। उसने किसी भी मनुष्य को कभी भी यह अधिकार अथवा स्वतंत्रता नहीं दी है कि वे फसह और प्रभु भोज की उसकी दी हुई विधि में कोई फेर-बदल, कोई ‘सुधार’ कर सकें। हमारे पहले खण्ड के अंतिम पद, पद 14 में हमने देखा है कि परमेश्वर ने इस एक-बार की घटना को निरंतर बने रहने वाले स्मारक में परिवर्तित कर दिया है, जिससे कि इन्हें छुटकारे और स्वतंत्रता के उत्सव के रूप में माना और मनाया जाता रहे - इस्राएलियों द्वारा शारीरिक रीति से मिस्र के दासत्व से छुटकारे, तथा आत्मिक रीति से प्रभु के शिष्यों, उसके नया-जन्म पाए हुए प्रतिबद्ध शिष्यों के द्वारा प्रभु की मेज़ के रूप में मानव जाति के शैतान और पाप से छुटकारे और स्वतंत्रता के लिए दिए गए बलिदान के स्मारक के रूप में, जब तक कि प्रभु और परमेश्वर का राज्य न आ जाएं।
पद 14 में परमेश्वर ने, इन्हें स्मारक बनाने के द्वारा, ध्यान के केंद्र को तत्कालीन वर्तमान से भविष्य की ओर कर दिया, जिससे कि परमेश्वर के लोग, दोनों, इस्राएली तथा प्रभु यीशु के नया-जन्म पाए हुए शिष्य, यह ध्यान करते रहें, उन्हें याद रहे कि जो वे अपने आप, अपने लिए कभी नहीं करने पाए थे, उसे परमेश्वर ने अपनी विधि और अपने मार्गों के द्वारा कर दिया, और उन्हें उनके दासत्व से निकाल लिया। हमारे विचार के लिए दूसरे खण्ड, पद 15-20 में, परमेश्वर ने इस्राएलियों, तथा प्रभु के शिष्यों, दोनों को निर्देश दिए हैं कि वे किस प्रकार से आनंदपूर्वक परमेश्वर द्वारा दिए गए इस छुटकारे को मनाएं और इसमें भाग लें। एक बार फिर से ध्यान कीजिए, परमेश्वर ने बात को मनुष्यों की इच्छा, समझ, और पसन्द पर नहीं छोड़ा है; उसने न तो यह कहा और न ही अभिप्राय दिया है कि “तुम अपने आनन्द के लिए जैसे चाहे इस मना सकते हो” वरन उसने निश्चित और विशिष्ट निर्देश दिए हैं कि इसे कैसे मनाया जाना है। यही अपने आप में यह दिखाता है कि इसमें कोई भी फेर-बदल, किसी भी मनुष्य के द्वारा किसी भी आधार पर इसे ‘सुधारने’ का किया गया कोई भी प्रयास, एक प्रकार से यह कहना होगा कि “मैं परमेश्वर से बेहतर जानता और कर सकता हूँ; परमेश्वर से कुछ चूक हो गई थी, और अब मैं परमेश्वर की उस भूल को सुधार रहा हूँ!” यह स्वयं को परमेश्वर से उच्च करने के समान है - वही जो लूसिफर ने स्वर्ग में करना चाहा और निष्कासित कर दिया गया, गिराया गया और शैतान बन गया। शैतान, जो हमेशा ही परमेश्वर का विरोधी रहता है, परमेश्वर की सभी योजनाओं, उद्देश्यों, और विधियों को बिगाड़ता और हानि पहुँचाता रहता है (2 कुरिन्थियों 11:3)। हमेशा बड़ी चतुराई से अपनी दुष्टता की योजनाओं को धर्म (जो हमेशा ही परमेश्वर नहीं, मनुष्य की ईजाद रहा है), गढ़ी हुई धार्मिकता, मनुष्य के अनुसार धार्मिकता के कार्यों, आदि (कुलुस्सियों 2:4, 8) के रूप में; तथा सदा ही परमेश्वर के सभी निर्देशों और वचन में कुछ जोड़ने-घटाने के साथ, कुछ गलत व्याख्याओं और दुरुपयोगों के साथ लोगों के सामने बड़े आकर्षक, तर्कपूर्ण, और मनोहर ढंग से रखता रहता है।
शैतान की इस कार्य-विधि का एक बहुत सटीक उदाहरण है यह प्रभु की मेज़, हम जिसके बारे में अध्ययन कर रहे हैं। हम पहले खण्ड में देख चुके हैं कि किस प्रकार से शैतान ने चुपके से, बड़ी चतुराई, और दुष्ट शैतानी योजनाओं के साथ मसीही विश्वासियों के लिए उसके अर्थ, उद्देश्यों, और उपयोग को एक व्यर्थ, निष्फल रीति में बदल दिया है। यद्यपि अधिकांश ईसाई या मसीही समाज के लगभग सभी समुदायों और डिनॉमिनेशंस में इसे बड़ी श्रद्धा के साथ नियमित मनाया जाता है, किन्तु किसी को यह एहसास नहीं होता है कि क्योंकि परमेश्वर द्वारा उसके वचन में दी गई विधि का दृढ़ता से पालन करते रहने की बजाए, शैतान ने लोगों के द्वारा इसे मनाने की विधि में समुदायों और डिनॉमिनेशंस के नियमों और कार्य-विधियों के अनुसार परिवर्तन करवा दिए हैं, इसलिए परमेश्वर की दृष्टि में अब उनका यह प्रभु भोज कितना खोखला और महत्वहीन हो गया है।
जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, प्रभु भोज में भाग लेना एक धार्मिक रीति या औपचारिकता नहीं है, और न ही यह भाग लेने वालों के लिए परमेश्वर को स्वीकार्य तथा स्वर्ग जाने के योग्य होने के लिए है। किन्तु यह उनके लिए है जिन्होंने स्वेच्छा से प्रभु के योग्य जीवन बिताने उसकी आज्ञाकारिता में चलने का निर्णय लिया है, और इसके लिए कीमत चुकाने के लिए भी तैयार हैं। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
अमोस 7-9
प्रकाशितवाक्य 8
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The Lord’s Table - To be Observed as Ordained by God
In our study of the Holy Communion, we have seen that the Holy Communion was established by the Lord Jesus while eating the Passover with His disciples, using the elements of the Passover. The Passover is the antecedent of the Lord’s Table, its being ordained by God and the instructions related to it are given in Exodus 12. From Exodus 12:1-14, our first section for studying the Holy Communion through its precursor, we have seen many things that in tell us about God’s plans and purpose for the Passover as well as the Lord’s Table, and about participating in them. God has been very specific, how this participation has to be done, and has not given any freedom or authority to any man, to alter or modify His instructions about either the Passover, or about the Holy Communion. In the concluding verse of our first section, verse 14, we have seen that God has turned this one-time event into a perpetual memorial, to be kept and celebrated as a feast of deliverance and liberation - both literally by the Israelites, as the deliverance and liberation of Israel from Egypt - the house of bondage; and figuratively by the Lord’s disciples, as the Lord’s Table, commemorating the Lord Jesus’s sacrifice for the deliverance of mankind from the bondage of Satan and sin, to be celebrated by His committed, Born-Again disciples till He and God’s Kingdom come.
In verse 14, God has changed the focus from the then current to the future, by making these into a memorial, meant to keep reminding the people of God, both the Israelites as well as the committed, Born-Again disciples of the Lord Jesus, of how God has done for them what they could never do by themselves, or, for themselves; He through His methods and ways has delivered them from their respective bondages. In our second section of Exodus 12, i.e., verses 15-20, God has given the instructions to the Israelites as well as the disciples of the Lord Jesus, about how to joyfully remember and partake of their respective feasts of God’s deliverance. Again, note, God has neither said nor implied that “you can keep doing it and enjoy yourself as you feel like” but has given a specific set of instructions about doing it. This by itself implies that any alterations, any modifications, any attempts by any person, on any pretext, is tantamount to saying, “I can do better than God; God happened to overlook something, and I am now rectifying God’s mistake!” It is exalting self above God - what Lucifer tried to do in heaven, was cast out of heaven and became Satan, forever the adversary of God, always subverting and sabotaging God’s plans, purposes, and methods about everything (2 Corinthians 11:3). Always very cunningly presenting his devious ploys to people in a very attractive, logical, and appealing manner; in the garb of religion (ever a man-made entity, never given by God), contrived religiosity, works of righteousness according to man, etc. (Colossians 2:4, 8); and, always with some additions or subtractions from God’s Word, with some misinterpretation and mis-application or the other of God’s instructions, for everything that God has said and given.
A very apt illustration of this working pattern of Satan is the Lord’s Table, that we are studying about. We have already seen in the first section how Satan has subtly, cunningly, and deviously altered the meaning, purpose, and application of the Lord’s Table for the Christian Believers, and turned it into a vain, inconsequential ritual. Although it is regularly and quite reverentially is being practiced in practically all of the sects and denominations of Christendom but without realizing how empty and meaningless it has become in God’s eyes, because how Satan has cunningly induced people to alter and modify the Holy Communion according to the rules and regulations of the various sects and denominations, instead of staying committed to God’s way given in His Word.
As we have seen earlier, participating in the Holy Communion is not a religious ritual or formality to be carried out perfunctorily, nor is it meant to make the participants the people of God and worthy of going to heaven. But it is for those who willingly have chosen to be committed disciples of the Lord, to live in obedience to His Word, and are even willing to pay a price for doing so. If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Amos 7-9
Revelation 8
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