परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 5
परमेश्वर के वचन के साथ उचित व्यवहार करना सीखने के लिए, पिछले कुछ लेखों से हम पौलुस के जीवन और सेवकाई से, उसके द्वारा परमेश्वर के वचन के प्रति व्यवहार से सीखते आ रहे हैं। इस में हमने 1 कुरिन्थियों 1:17 के साथ आरम्भ किया था, और देखा था कि पौलुस वहाँ पर अपनी सेवकाई के बारे में तीन बातें कहता है, और इन बातों का तब उसके द्वारा, और आज हमारे द्वारा भी, परमेश्वर के वचन के प्रति व्यवहार पर प्रभाव आता है। ये तीन बातें हैं: पहली, उसे बपतिस्मा देने के लिए नहीं भेजा गया था; दूसरी, उसे सुसमाचार प्रचार करने के लिए भेजा गया था; और तीसरी उसका प्रचार “शब्दों के ज्ञान के अनुसार नहीं” था, और यह करने का कारण भी वह बताता है, “ऐसा न हो कि मसीह का क्रूस व्यर्थ ठहरे।” पिछले दो लेखों में हमने पहली दो बातों में परमेश्वर के वचन से व्यवहार और निहितार्थों को देखा है। आज हम इस पद में पौलुस के तीसरे कथन के बारे में देखेंगे।
पौलुस ने परमेश्वर के वचन से व्यवहार के सम्बन्ध में जो तीसरी बात कही, वह है, कि पौलुस परमेश्वर के वचन का प्रचार “शब्दों के ज्ञान के अनुसार नहीं” करता था, और यह करने का कारण था कि कहीं “ऐसा न हो कि मसीह का क्रूस व्यर्थ ठहरे।” हम यहाँ पर जिस तात्पर्य को देखते हैं, वह है कि सुसमाचार सन्देश का केन्द्र-बिन्दु, “मसीह का क्रूस” है, और क्रूस के सन्देश के उसमें होने के कारण ही सुसमाचार सन्देश प्रभावी होता है (इस पर और अधिक के लिए पद 18 तथा अध्याय 2 को भी देखिए)। साथ ही सुसमाचार प्रचारक को न तो मानवीय समझ-बूझ और तर्क का सहारा लेना चाहिए, और न ही सुसमाचार को ‘समझाने के लिए’ या उसे लोगों के स्वीकार करने के लिए बहुत ‘आकर्षक और तर्क पूर्ण’ बनाने के लिए, उसे शब्दाडम्बरपूर्ण, तथा वाक्पटुता वाला होना चाहिए। हम जब भी सुसमाचार को, अर्थात, समस्त मानवजाति के पापों के प्रायश्चित तथा उन्हें पापों से छुड़ाने के लिए अपना बलिदान देने के सन्देश को प्रस्तुत करें, तो वह सीधे और साधारण शब्दों में हो। परमेश्वर का आत्मा उस सीधे और साधारण शब्दों के सन्देश को लेकर लोगों को उनके पापों के लिए कायल करेगा और उन्हें मसीह यीशु में विश्वास करने तक लेकर आएगा।
इसके विपरीत, परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस बहुत स्पष्ट यह बात कहता है कि सुसमाचार को मानवीय बुद्धि के द्वारा और अधिक प्रभावी करने, उसे और भी आकर्षक और तर्कपूर्ण बनाने के प्रयास, उसे अप्रभावी बना देते हैं। यह नए नियम के द्वारा पुराने नियम की एक बात – निर्गमन 20:24-25 की, जिसे हम पहले देख चुके हैं, की पुष्टि है –अपने भेंट और बलिदान परमेश्वर को चढ़ाने के लिए जो वेदी बनाई जाए, वह केवल उसी सामग्री से बनी हो जो परमेश्वर ने दी है और उसे उसके प्राकृतिक रूप में ही उपयोग किया जाए। परमेश्वर द्वारा उपलब्ध करवाई गई सामग्री को मनुष्यों द्वारा और अधिक सुन्दर और आकर्षक बनाने के प्रयास, केवल उसे अशुद्ध ही करेंगे, और परमेश्वर को कुछ भी अर्पित करने के अयोग्य बना देंगे। जैसे, उस समय के इस्राएलियों के लिए मिट्टी और पत्थर ही वह सामग्री थे जिनके द्वारा उन्हें वेदी बनानी थी, उसी प्रकार से आज मसीही विश्वासियों के लिए, परमेश्वर का वचन ही वह आधार है जिसके द्वारा वे परमेश्वर के पास आ सकते हैं और परमेश्वर को अपनी भेंट – सुसमाचार बाँटने की हमारी सेवकाई का कार्य और उद्धार पाई हुई आत्माओं की भेंटें भी, अर्पित कर सकते हैं। जैसे तब उन प्राकृतिक वस्तुओं में किसी प्रकार की कोई फेर-बदल नहीं की जानी थी, उसी प्रकार से, आज परमेश्वर के वचन में भी कोई फेर-बदल नहीं होनी है। पौलुस इस बात को स्पष्ट कर देता है कि सुसमाचार में मानवीय बुद्धि जोड़ने से वह अप्रभावी हो जाता है। हो सकता है कि वह सन्देश सुनने में बहुत आकर्षक और प्रभावी लगे, हो सकता है कि लोगों के द्वारा उस की बहुत प्रशंसा और सराहना भी हो, लेकिन उस से वह कभी नहीं होगा जो सुसमाचार करता है – आत्माओं को बचाना।
उद्धार त्रिएक परमेश्वर का कार्य है – परमेश्वर पुत्र ने अपने आप को समस्त मानव-जाति के सभी पापों के लिए बलिदान कर दिया; परमेश्वर पवित्र आत्मा इसे लेकर लोगों को उनके पापों के लिए कायल करता है और उन्हें पश्चाताप करने तक लेकर आता है; परमेश्वर पिता उस कायल हुए और क्षमा-प्रार्थी पापी के पश्चाताप को स्वीकार करता है और प्रभु यीशु के छुटकारा देने वाले क्रूस के कार्य पर उसके विश्वास के आधार पर उसे पापों की क्षमा प्रदान करता है, और उसे अपनी पापों से छुड़ाई हुई तथा मेल-मिलाप हुई संतान (यूहन्ना 1:12-13) बनाकर अपने राज्य में स्वीकार कर लेता है। अब, इस में कहाँ पर और किस प्रकार से कोई भी मानवीय बुद्धि, समझ-बूझ, या तर्क बीच में आ सकते हैं, कि इस आधारभूत तथ्य को और बेहतर बनाएँ? किसी भी मानवीय बुद्धि, समझ-बूझ, या तर्क की किसी बात का यहाँ पर बीच में आना केवल त्रिएक परमेश्वर में से किसी एक के स्थान पर ही हो सकता है। दूसरे शब्दों में सृजे गए मनुष्य की मानवीय बुद्धि की उपज, सृजनहार परमेश्वर के तुल्य हो कर उसका स्थान ले! यह होना असंभव है। और अब इससे यह देखा तथा समझा जा सकता है कि शैतान ने किस तरह से इस साधारण और अहानिकारक प्रतीत होने वाली बात के द्वारा परमेश्वर को उसके स्थान से हटाने और परमेश्वर का स्थान हथियाने की यह दुष्ट योजना कार्यान्वित की है। और इसे करते हुए मनुष्य यही समझता रहता है कि वह सुसमाचार सन्देश को और अधिक आकर्षक, तथा प्रभावी बना रहा है, परमेश्वर के प्रति भक्तिपूर्ण, आदर और श्रद्धा का व्यवहार कर रहा है, जबकि वास्तव में शैतान ने उसे बहका कर परमेश्वर के विरुद्ध चलने के मार्ग पर डाल दिया है।
इसीलिए, परमेश्वर के वचन के साथ व्यवहार करते हुए, हमें इस बात के लिए बहुत सावधान एवं सचेत रहना चाहिए कि हम उसमें किसी भी प्रकार की कोई भी फेर-बदल नहीं करें, न तो उसमें कुछ जोड़ें, और न ही उसमें से कुछ निकालें। पौलुस के जीवन और सेवकाई के द्वारा परमेश्वर के वचन के प्रति व्यवहार को सीखने को आगे बढ़ाते हुए, अगले लेख में हम 1 कुरिन्थियों 2:4-5 से देखना आरंभ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Appropriately Handling God’s Word – 5
In learning to handle God’s Word appropriately, for the past few articles, we have been learning from Paul’s life and ministry, from his handling of God’s Word. In this, we started off with 1 Corinthians 1:17, and saw that there Paul says three things about his ministry, and these things have a bearing on how he, and we handle God’s Word. These three things in this verse are: Firstly, he was not sent to baptize; secondly, he was sent to preach the gospel; and, thirdly, he preached ‘not with wisdom of words’, and the reason for doing so was, ‘lest the cross of Christ should be made of no effect.’ In the previous two articles, we have considered the implications of the first two statements on handling the Word of God. Today, we will consider this for the third statement of Paul in this verse.
The third statement Paul makes in this verse about his handling God’s Word was that Paul preached ‘not with wisdom of words’, and the reason for doing so was, ‘lest the cross of Christ should be made of no effect.’ What we see implied here is that the “the Cross of Christ” is central to the gospel message, and the gospel is made effective through incorporating the message of the Cross (see verse 18, and chapter 2 for more on this). Moreover, the preacher of the gospel should neither resort to human logic and reasoning, nor have to be very verbose, either to explain the gospel, or to make it sound appealing and logical, for others to accept it. When we present the gospel, i.e., the message of the sacrifice of the Lord Jesus to atone for the sins of entire mankind and redeem all mankind from their sins, in a simple straightforward manner. The Spirit of God uses the simple straightforward message to convict people of their sins and bring them to faith in Christ Jesus.
On the other hand, through God the Holy Spirit, Paul clearly says here that by trying to enhance the gospel, make it sound more appealing and logical by adding human wisdom to it, only takes away its efficacy. This is a New Testament attestation of what we had considered earlier from the Old Testament – Exodus 20:24-25 – in building altars to offer sacrifices and offerings to God, only use what He has provided, and only use it in its natural form. Any human attempts at trying to make the God provided material more beautiful or attractive, will only render it profane, and unfit to be used as an altar for offering anything to God. Like the earth and stones were materials meant for constructing the altars for the Israelites at that time, today, for the Christian Believers, God’s Word is the basis of approaching God and offering our gifts to God – even the gifts of serving Him through sharing the gospel and bringing the saved souls to Him. Like those natural materials were not to be altered in any manner, similarly, God’s Word is not to be altered in any manner today. Paul makes it clear, adding human wisdom to the gospel, makes it ineffective. It may sound like a very appealing and attractive preaching, may even be appreciated and applauded, but will never do what the gospel is meant to do – save souls.
Salvation is the work of the Triune God – God the Son sacrificed Himself for the sins of entire mankind; God the Holy Spirit takes this and convicts people of their sins and brings them to repentance; God the Father, accepts the repentance of the convicted and penitent, those seeking forgiveness of their sins on the basis of their faith in the redeeming work of the Lord Jesus on the Cross of Calvary, and forgives their sins, accepts them into His Kingdom as His redeemed and reconciled children (John 1:12-13). So, how and where can any human wisdom, logic, understanding enter into this in any way and improve upon this basic fact? Any attempts to bring in anything of human wisdom, logic, understanding, will have to be at the cost of the role or function at least one member of the Triune God. In other words, a product of human ingenuity will replace God; i.e., a creation of the created man, will be equivalent to the Creator God! An impossibility. And now, one can see and realize the subtle, devious satanic scheme of getting man to dethrone God, usurp God’s position, while deceiving him into believing that by doing this enhancing of the gospel message, he is being pious, reverent, and useful for God; while actually, he has been misled into going contrary to God.
Therefore, in handling God’s Word, we have to be very careful to not alter it in any manner, neither add to it, nor take away from it in any manner. From the next article we will start with 1 Corinthians 2:4-5 in our study through Paul’s life and ministry on appropriately handling God’s Word.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.