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सोमवार, 25 अप्रैल 2022

परमेश्वर का वचन – बाइबल / Bible – The Word of God – 7

Click Here for the English Translation

लेखन तथा लेखकों में अनुपम


जैसे पहले कहा गया है, बाइबल कुल 66 भिन्न पुस्तकों का संकलन है, जो भिन्न समयों पर, भिन्न लोगों द्वारा लिखी गई पुस्तकें हैं; किन्तु जब उन्हें एकत्रित करके साथ रखा गया तो वे सभी पुस्तकें एक पूर्ण पुस्तक बन गईं, जिसके सभी भाग एक-दूसरे के पूरक हैं, उनमें कोई विरोधाभास नहीं है, सभी पुस्तकें एक-दूसरे के लेखों को समर्थित करती हैं, और सभी पुस्तकों की परस्पर सहायता से ही बाइबल की बातें भली-भांति समझी जा सकती हैं। यह तब और भी अद्भुत तथा विलक्षण हो जाता है जब बाइबल के लिखे जाने और लेखकों के बारे में थोड़ा विवरण देखते हैं:

  • बाइबल की पुस्तकें लगभग 1500 वर्ष से अधिक के अंतराल में लिखी गईं। 

  • बाइबल की पुस्तकों के 40 से अधिक लेखक थे, जो समय, भौगोलिक स्थान, भाषा, कार्य तथा व्यवसाय, शैक्षिक स्तर, सामाजिक ओहदे, आदि में भिन्न थे। इन विभिन्न लेखकों में से कुछ के उदाहरण देखते हैं:

    • मूसा – एक राजनीतिक अगुवा था, जिसका पालन-पोषण, शिक्षा, प्रशिक्षण मिस्र के राजसी घराने में एक राजकुमार के समान हुआ था। 

    • यहोशू – एक सेनापति था। 

    • दाऊद – एक चरवाहा युवक था, जो राजा की सेना में सम्मिलित किया गया, उन्नति करते हुए शूरवीर पराक्रमी योद्धा, और फिर इस्राएल का राज्य बना। वह एक कवि, और संगीतज्ञ भी था जिसने न केवल स्तुति के भजन लिखे और संगीत-बद्ध किए, वरन कई संगीत वाद्य  भी बनाए। 

    • सुलैमान – राजा तथा परमेश्वर की कृपादृष्टि पाया हुआ दार्शनिक, बुद्धिजीवी, और लेखक था। 

    • नहेम्याह – एक गैर-यहूदी राज्य का सेवक था, जिसका कार्य पहले स्वयं चख-परखकर फिर राजा के पीने के लिए उसे पेय का कटोरा पकड़ाना था। 

    • एज्रा – एक धर्म-शास्त्री और पवित्र शास्त्र का विद्वान था।  

    • दानिय्येल – एक यहूदी गुलाम युवक, जो बेबीलोन के राजा का सर्वोच्च सलाहकार एवं मंत्री बना। 

    • आमोस – एक चरवाहा था। 

    • लूका – एक वैद्य और लेखक था। 

    • मत्ती – एक चुंगी लेने वाला सरकारी नौकर था। 

    • पौलुस – एक धर्म-शास्त्र का विद्वान और धार्मिक अगुवा था। 

    • यूहन्ना और पतरस – अनपढ़ साधारण मछुआरे थे। 

    • मरकुस – पतरस के लिए लिखने वाले एक सामान्य युवक था। 

  • बाइबल की पुस्तकें विभिन्न स्थानों और परिस्थितियों में लिखे गईं:

    • मूसा ने जंगल की यात्रा के दौरान लिखीं 

    • यिर्मयाह ने कैदखाने की काल-कोठरी में पड़े हुए लिखी 

    • दानिय्येल ने राजमहल में लिखी 

    • पौलुस ने बंदीगृह में पड़े हुए लिखीं 

    • लूका ने मसीही सेवकाई की यात्रा करते हुए लिखी

    • यूहन्ना ने पतमोस के टापू पर काला-पानी की सजा भोगते हुए लिखी

    • दाऊद ने कुछ युद्ध के समय में लिखी, तो कुछ अन्य अपने जीवन की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में लिखीं।  

    • सुलैमान ने शांति और संपन्नता के समय में लिखी 

  • बाइबल की पुस्तकें विभिन्न मनोदशाओं में लिखी गईं:

    • कुछ ने परम-आनंद के भाव में उत्साह के साथ लिखीं 

    • कुछ ने घोर निराशा, दुख, और हताश के समयों में अपनी भावनाएं व्यक्त कीं 

    • कुछ ने विश्वास की दृढ़ता में निश्चितता के साथ लिखीं 

    • कुछ ने संदेह और असमंजस से जूझते हुए लिखा 

  • बाइबल की पुस्तकें तीन भिन्न महाद्वीपों और उनकी संस्कृतियों तथा सामाजिक विचारधाराओं में लिखी गईं। ये तीन महाद्वीप हैं:

    • एशिया 

    • अफ्रीका 

    • यूरोप 

  • बाइबल की पुस्तकें तीन भिन्न भाषाओं में लिखी गईं:

    • इब्री या इब्रानी भाषा – जो यहूदियों की, तथा लगभग सम्पूर्ण पुराने नियम के लिखे जाने की भाषा है। 

    • अरामी – जो निकट-पूर्व के देशों – वर्तमान इस्राएल तथा उसके आस-पास के देशों के क्षेत्रों की आम लोगों की भाषा हुआ करती थी; राजा सिकंदर के छठी शताब्दी ईसा-पूर्व में यूनान से संसार के विजय अभियान पर निकले से पहले। पुराने नियम के कुछ भाग, जैसे के दानिय्येल के 2 से 7 अध्याय और एज्रा का अधिकांश 4 अध्याय से लेकर 7 अध्याय तक अरामी भाषा में हैं। 

    • यूनानी – यह लगभग सम्पूर्ण नए नियम के लिखे जाने की भाषा है, और प्रभु यीशु मसीह की पृथ्वी के समय की सेवकाई के समय की यह अंतर्राष्ट्रीय भाषा तथा जन-सामान्य की भाषा थी।


अब थोड़ा ध्यान दीजिए और विचार कीजिए कि हर प्रकार की इतनी अधिक विविधता और भिन्नता होते हुए भी; एक लेखक के दूसरे के बारे में न जानते हुए भी; किसी भी लेखक को यह जानकारी न होते हुए भी के भविष्य में किसी समय पर जाकर पुस्तकें संकलित होंगी; अलग-अलग पृष्ठभूमि, विचार-धारा, संस्कृति, समय, स्थान, और भाषाओं के होते हुए भी, इन लेखकों की पुस्तकों में कोई विरोधाभास नहीं है, कोई असंगत होना नहीं है, सभी पुस्तकें एक-दूसरे की पूरक हैं, सहायक हैं, समर्थक हैं। यदि आज, अभी कोई घटना घटित हो, और उसके प्रत्यक्षदर्शियों से उस घटना का विवरण लिखने को कहा जाए, तो उन लोगों के विवरणों में कुछ न कुछ भिन्नता अवश्य मिलेगी; कुछ थोड़ा-बहुत विरोधाभास भी अवश्य आएगा। यदि ऐसा नहीं होता है, तो विश्लेषण करने वाले विशेषज्ञों का सामान्य निष्कर्ष होता है कि या तो लोगों ने किसी एक के वर्णन को आधार बनाकर उसकी नकल की है; या किसी एक व्यक्ति ने उन सभी से लिखवाया है, जिसे कि समान विचार और सामग्री सभी में देखे जा रहे हैं। 


यही तर्क बाइबल के लेखों के लिए भी लागू होता है। ऊपर दी गए विविधता और भिन्नताओं के कारण ये लेखक एक दूसरी की नकल तो कर नहीं सकते थे; तो फिर उन्हें लिखवाने वाला कोई एक ही होगा - सम्पूर्ण पवित्र शास्त्र परमेश्वर पवित्र आत्मा की प्रेरणा से लिखा गया है। लेखक भिन्न थे, लिखवाने वाला एक ही था। इस पर कुछ और चर्चा हम आते समय में एक अन्य लेख में करेंगे। 


बाइबल के लेखकों और लेखन का अनुपम, अद्भुत इतिहास, उसके परमेश्वर का वचन होने के दावे की पुष्टि करता है।  


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।



एक साल में बाइबल: 

  • 2 शमूएल 21-22

  • लूका 18:24-43

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English Translation



Unique in its Writings and Writers


As stated earlier, the Bible is a compilation of 66 different books, written by different people, at different times. But on being collected and put together, all those books marvelously fit together as one unit and became a single complete book. All the parts of this book complement each other, all the books support each other’s contents, and all the books supplement each other's writings; there is no contradiction in them. It is only by taking the help of what is written in the other books, that the writings of the Bible can be better and properly understood. It becomes even more wonderful and unique when we look at a little detail about the writing and authors of the Bible:


  • The books of the Bible were written over a span of more than 1500 years.

  • There were over 40 authors of Bible books, spread over different times, differing in geographic locations, languages, work and occupations, educational levels, social status, etc. Let's see some examples of some of these different authors:

    • Moses – was a political leader, who was raised, educated, trained as a prince in the royal family of Egypt.

    • Joshua – There was a Military General.

    • David – a young shepherd who joined the king's army, rose to become a mighty warrior, and then became the King of Israel. He was also a poet, and musician who not only wrote and composed hymns of praise, but also made many musical instruments.

    • Solomon - was a Prince who had received the blessings and visions of God; and was a philosopher, intellectual, and writer.

    • Nehemiah – was a servant of a Gentile kingdom, whose job was to first taste himself and then to hand the drink bowl to the King to drink.

    • Ezra – was a theologian and scholar of the Holy Scriptures.

    • Daniel – A Jewish slave youth, who became the supreme adviser and minister to the Babylonian king.

    • Amos – was a shepherd.

    • Luke – was a physician and writer.

    • Matthew – There was a tax collector, a government servant.

    • Paul – was a theological scholar and religious leader.

    • John and Peter – were illiterate and ordinary fishermen.

    • Mark – was a common young man who wrote for Peter.

  • The books of the Bible were written in different places and circumstances:

    • Moses wrote during his journey in the wilderness

    • Jeremiah wrote in the prison cell

    • Daniel wrote in the palace

    • Paul wrote while in prison

    • Luke wrote while traveling for the Christian ministry

    • John wrote on the island of Patmos while serving the punishment of solitary confinement

    • David wrote some during the times of war, some others in different circumstances of his life.

    • Solomon wrote in a time of peace and prosperity

  • The books of the Bible were written in different moods:

    • Some wrote with enthusiasm in the spirit of ecstasy

    • Some expressed their feelings in times of great despair, sadness, and depression

    • Some wrote with certainty in the firmness of faith

    • Some wrote struggling with doubts and confusion

  • The books of the Bible were written on three different continents, in their entirely different cultures and social ideologies. These three continents are:

    • Asia

    • Africa

    • Europe

  • The books of the Bible were written in three different languages:

    • Hebrew or Jewish language - which is the language of writings of the Jews, and of almost the whole of the Old Testament.

    • Aramaic – which used to be the language of the common people of the Near-East countries – areas of present-day Israel and its surrounding countries; Before King Alexander set out on a conquest of the world from Greece in the 6th century BC. Parts of the Old Testament, such as chapters 2 to 7 of Daniel and most of Ezra from chapters 4 to chapter 7, are in Aramaic.

    • Greek – This is the language of writing of almost all of the New Testament, and it was the language of international communications, and also the language of the general public during the time of the earthly ministry of the Lord Jesus Christ.


Now please give it a little thought and consider the fact that despite there being so many differences, and so much variety in all related factors; despite none of the authors knowing anything about any other author; despite none of the author’s ever knowing that at some time in the future, their written books will be compiled to make one book; despite the different backgrounds, ideologies, cultures, times, places, and languages, etc. of the authors, the books of these authors have no contradictions, no inconsistencies, all books complement each other, supplement each other, and help to understand each other’s writings. If today, just now, an event happens, and its eyewitnesses are asked to write a description of that event, then there definitely will be some variations in the details written by those people; and there will also be some mutual contradictions in some details. If this doesn't happen, then the general conclusion of the experts analyzing their descriptions is that either all the people have based their description on one record, and copied from it; Or have had one person write them all, and that is why the same ideas and content are being seen in all.


This same argument applies for the writings of the Bible. But these authors could not copy each other or copy from any one record, because of the above-mentioned diversity and variations amongst the various authors. Therefore, then the only logical conclusion is that only one person has had the whole record written down - all the Scriptures are written by the inspiration of God's Holy Spirit. The writers, the people holding and using the pen, were different; but the author was the same for all the books. We will discuss this some more in another article in the coming time.


The unique, wonderful history of the Bible's authors and writings confirms its claim to be the Word of God.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


Through the Bible in a Year: 

  • 2 Samuel 21-22

  • Luke 18:24-43