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बाइबल और जीव-विज्ञान - 2 - जीवन और जीवित
क्रमिक विकासवाद (Evolution) के मानने वालों के सामने अनेकों ऐसे प्रश्न हैं जिनका उनके पास कोई उत्तर नहीं है; कुछ ऐसे प्रश्नों को हम पहले के लेखों में देख चुके हैं। कुछ बहुत मूलभूत प्रश्न हैं: यदि पृथ्वी पर जीवन कुछ रासायनिक और भौतिक क्रियाओं (chemical and physical reactions) के कारण आरंभ हुआ था, और विकसित होते-होते जीव-जंतुओं और वनस्पति की वर्तमान उन्नत दशा में आ गया है, तो जीवन क्या है? यह जीवन इन रासायनिक और भौतिक क्रियाओं में कब और कैसे आया? क्या यह जीवन भी विकसित होता चला गया?
आज तक इतनी विकसित, उन्नत, जटिल रासायनिक क्रियाएं मनुष्य ने बहुत ही नियंत्रित और योजनाबद्ध रीति से विभिन्न उत्पाद के बनाने के लिए संभव कर ली हैं, किन्तु इनमें “जीवन” डालना तो बहुत दूर की बात है, किसी भी क्रिया को अपने आप में स्वचालित तथा स्वतः ही उन्नत (self-sustaining, self-improving) करते जाने वाला नहीं बना सका। इन सभी क्रियाओं पर नियंत्रण, निरीक्षण, सुधार करते रहना पड़ता है, अन्यथा ये कभी भी बिगड़ कर भारी नुकसान कर डालती हैं। जब तक ये क्रियाएं निरीक्षण में नियंत्रित रहती हैं, लाभदायक रहती हैं, किन्तु थोड़ी सी चूक, कुछ समय के निरीक्षण और नियंत्रण में अनदेखी, बहुत हानि कर देने की संभावना उत्पन्न कर देती है।
ऐसा ही एक अन्य मूलभूत प्रश्न है कि क्रमिक विकास तथा विज्ञान के अनुसार अरबों वर्ष पहले पृथ्वी पर विद्यमान उच्च ताप, विभिन्न प्रकार के रासायनिक गैस और पदार्थ, तथा आकाशीय बिजली के कड़कने, आदि से कुछ ऐसे रासायनिक पदार्थ बन गए और फिर एक साथ आ गए, जिनके परस्पर क्रिया करने से फिर जीवित प्राणियों का उत्पन्न होना संभव हो पाया। कितनी विचित्र बात है, यदि आज उच्च ताप, उस प्रकार के रासायनिक पदार्थों, आकाशीय बिजली के समान बिजली के झटकों के संपर्क में कोई भी प्राणी आता है, तो उसमें विद्यमान हर पदार्थ बिगड़ और बिखर जाता है, जीवन समाप्त हो जाता है; किन्तु विज्ञान हमें सिखाता है कि आज जो जीवन को नष्ट करते हैं, उन्हीं बातों ने जीवित प्राणियों को उत्पन्न करने वाले पदार्थों की रचना की - जो आज उन्हीं क्रियाओं को झेल नहीं पाते हैं।
इन से संबंधित एक अन्य प्रश्न है, मृत्यु क्या है? क्यों और कैसे एक जीवित प्राणी “मृतक” दशा में आ जाता है? वर्तमान चिकित्सा-विज्ञान की यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है कि मानव-अंगों का एक से दूसरे शरीर में प्रत्यारोपण और उसके द्वारा दूसरे के शरीर को जीवित रखना संभव है। किन्तु विडंबना यह है कि जिस “मृतक” शरीर में से वे अंग लिए गए हैं, उसमें से ऐसा क्या निकल गया, कि ये अंग “जीवित” होते हुए भी, दूसरे शरीर में प्रत्यारोपण के बाद ठीक से कार्यकारी होते हुए भी, अपने मूल शरीर को “जीवित” नहीं रखने पाए? मृतक शरीर को कितनी भी ऑक्सीजन, पोषक तत्व, दवाइयाँ, मशीनी सहायता से हृदय गति और श्वास क्रिया को चालू रखा जाए, किन्तु वह मृतक ही रहता है; किन्तु उसी शरीर से निकाले हुए अंग, दूसरे के शरीर को जीवित रखते हैं!
विज्ञान और वैज्ञानिक जानते हैं, किन्तु मानते नहीं हैं कि शरीर से यदि “आत्मा” चला जाता है, तो वह शरीर मृतक हो जाता है। यदि वे “आत्मा” की उपस्थिति और अनिवार्यता को मान लेंगे, तो उन्हें उस आत्मा को बनाने और देने वाले “परमात्मा” के अस्तित्व को भी स्वीकार करना पड़ेगा; जिसके आगे फिर क्रमिक विकासवाद और अन्य कई संबंधित धारणाएं टिक नहीं पाएंगी, और उन्हें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि अंततः उन्हें उस परमात्मा के समक्ष खड़ा होना ही पड़ेगा। जो मनुष्य इस तथ्य को गंभीरता से विचार करके स्वीकार कर लेता है, उसके जीवन का दृष्टिकोण और दिशा ही बदल जाते हैं।
जिसे विज्ञान जानते हुए भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है, उसे बाइबल ने हजारों वर्ष पहले बता दिया था। इस संदर्भ में परमेश्वर के वचन बाइबल के कुछ पद देखिए:
“और यहोवा परमेश्वर ने आदम को भूमि की मिट्टी से रचा और उसके नथनों में जीवन का श्वास फूंक दिया; और आदम जीवता प्राणी बन गया” (उत्पत्ति 2:7);
“क्योंकि अब तक मेरी सांस बराबर आती है, और ईश्वर का आत्मा मेरे नथुनों में बना है” (अय्यूब 27:3);
“मुझे ईश्वर की आत्मा ने बनाया है, और सर्वशक्तिमान की सांस से मुझे जीवन मिलता है” (अय्यूब 33:4);
“उसके हाथ में एक एक जीवधारी का प्राण, और एक एक देहधारी मनुष्य की आत्मा भी रहती है” (अय्यूब 12:10);
“ईश्वर जो आकाश का सृजने और तानने वाला है, जो उपज सहित पृथ्वी का फैलाने वाला और उस पर के लोगों को सांस और उस पर के चलने वालों को आत्मा देने वाला यहोवा है, वह यों कहता है” (यशायाह 42:5);
“न किसी वस्तु का प्रयोजन रखकर मनुष्यों के हाथों की सेवा लेता है, क्योंकि वह तो आप ही सब को जीवन और श्वास और सब कुछ देता है” (प्रेरितों 17:25);
“क्या मनुष्य का प्राण ऊपर की ओर चढ़ता है और पशुओं का प्राण नीचे की ओर जा कर मिट्टी में मिल जाता है? कौन जानता है?” (सभोपदेशक 3:21)
उपरोक्त पदों से यह स्पष्ट है कि जिस आत्मा या प्राण के अस्तित्व को स्वीकार करने का साहस विज्ञान और नास्तिक वैज्ञानिकों में नहीं है, मनुष्यों तथा सभी जीव-जंतुओं में उसके अस्तित्व के बारे में बाइबल को कोई संकोच नहीं है। जो तथ्य है, वो है। अस्वीकार करने या अवहेलना करने से वह तथ्य न तो लुप्त हो जाएगा, और न ही परिवर्तित होकर कोई भिन्न स्वरूप ले लेगा।
जो विज्ञान यह आधारभूत बात सिखाता है कि जीवन से ही जीवन आ सकता है, वह जीवन और मृत्यु को परिभाषित करने तथा समझा पाने में, अपने ही द्वारा बनाए गए बंधनों के कारण अक्षम है, दुविधा में है; और अपनी ही बात का खण्डन करते हुए यह मनवाना चाहता है कि उन्हीं रासायनिक और भौतिक क्रियाओं ने, जिन्हें आज यदि किसी जीवित प्राणी पर लागू किया जाए तो वह मर जाएगा, “जीवन” उत्पन्न कर दिया।
विज्ञान जो भी कहे या स्वीकार-अस्वीकार करे, सामान्य ज्ञान और बाइबल का तथ्य यही है कि हमारी आत्माओं का दाता परमात्मा है, जिसके सामने हम सभी को अपने जीवनों का हिसाब देने एक दिन खड़ा होना ही है। उसके द्वारा दिया आत्मा, उसी के पास जाकर पृथ्वी पर बिताए अपने जीवन के प्रतिफल प्राप्त करता है। जो पाप के साथ जाता है, वह परमेश्वर से अनन्तकाल की दूरी, अनन्त मृत्यु, या नरक की अनन्त पीड़ा में जाएगा। जो पृथ्वी पर रहते अपने पापों को स्वीकार करके, उन के लिए अपने सृजनहार परमेश्वर से क्षमा मांगकर उद्धार पाएगा, वह परमेश्वर के साथ स्वर्ग में रहने जाएगा। स्वेच्छा और सच्चे मन से, पापों के लिए पश्चाताप के साथ की गई एक छोटी प्रार्थना “हे प्रभु यीशु मेरे पाप क्षमा करें, मुझे स्वीकार करें अपनी शरण में लें, और पाप के दोष से स्वच्छ करके अपना समर्पित, आज्ञाकारी जन बना लें” आपके जीवन की नियति और दिशा अनन्तकाल के लिए बदल देगी। परमेश्वर के इस आह्वान, इस निमंत्रण को ऐसे ही जाने न दें; अभी अवसर है, इसका सदुपयोग कर लीजिए, अपना शेष जीवन तथा परलोक का अनन्तकाल का जीवन सुरक्षित और सुखी कर लीजिए।
एक साल में बाइबल:
2 राजाओं 7-9
यूहन्ना 1:1-28
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Bible and BioSciences - 2 - Alive & Living
There are many questions confronting the believers of evolution, for which they have no answer; and we have seen a few such questions in the earlier articles. There are some very fundamental questions: If life on Earth started due to some chemical and physical reactions, and as it “evolved'' it has come to the present advanced state of fauna and flora, then what is life? When and how did this ‘life’ come about into these chemical and physical processes, and become an integral part of them? Has this entity called ‘life’ also progressed or “evolved”?
Till date, man has developed and refined so many advanced, complex chemical reactions to make various products; all of them in a very controlled and planned manner and environment. But forget about putting "life" into them, man has never been able to make these processes self-sustaining, self-regulating, and self-improving. All these actions have to be controlled, monitored, and regulated, otherwise they can get out of hand, out of control anytime and cause heavy losses. As long as these actions are controlled, regulated, and supervised, they remain beneficial; but any small mistake, any neglect of observation, supervision, and control for even a little while, creates the possibilities of a great harm; nothing gets better, everything only deteriorates towards a catastrophe.
Another such fundamental question is that according to evolution and science, billions of years ago, due to high temperature, different types of chemical gases and substances, and atmospheric lightnings, etc., certain chemical substances were formed, which then came together, and interacted with each other, making it possible for life to begin and living beings to arise. What a strange thing, if today any living creature comes in contact with high temperature, many of the chemical substances often found around us, electric shocks like the very high voltage atmospheric lightning, etc. then every matter present in that creature gets spoiled and disintegrates, life ends for it. But science teaches us that the very things that harm and destroy life today, actually created the substances that produced the living beings - and today those living things cannot withstand the very things and processes which started them off.
Another related question is, what is death? Why and how does a living being convert from “living” into the "dead" state? It is a great achievement of current medical science that it is possible to transplant human organs from one body to another and thereby keep those organs as well as the body of another alive. But the problematic question is what has gone out of the "dead" body from which those organs were taken? These organs, despite being "alive" and functioning properly, as they do after transplantation in another body, why couldn't they keep their original body, from which they were removed, "alive"? No matter how much oxygen, nutrients, medicines, mechanical aids are given, and the heart rate and breathing are maintained by machines, still a dead body stays dead. But the organs removed from the same “dead” body and transplanted into another “living” body not only remain alive themselves, but keep the body of another alive!
Science and scientists know, but do not accept that if the "spirit" leaves the body, then that body becomes dead. Because if they accept the presence and necessity of the “spirit” for life, they must also accept the existence of the “Parmatma”, the Supreme Spirit, who creates and gives that spirit. And then, in front of this, the notion of gradual evolution and many other related concepts will not be able to survive. Moreover, they will also have to accept that eventually they will have to stand before that divine Supreme Spirit. The person who considers this fact seriously and accepts it, the outlook and direction of his life changes from believing and living in conjectures, into facing reality.
What contrived “science” is not being shown as willing to accept, despite well knowing it, was told by the Bible thousands of years ago. In this context, look at some of the Bible verses of God's Word:
“And the Lord God formed man of the dust of the ground, and breathed into his nostrils the breath of life; and man became a living being" (Genesis 2:7);
“As long as my breath is in me, And the breath of God in my nostrils” (Job 27:3);
“The Spirit of God has made me, And the breath of the Almighty gives me life” (Job 33:4);
“In whose hand is the life of every living thing, And the breath of all mankind?” (Job 12:10);
“Thus says God the Lord, Who created the heavens and stretched them out, Who spread forth the earth and that which comes from it, Who gives breath to the people on it, And spirit to those who walk on it” (Isaiah 42:5);
“Nor is He worshiped with men's hands, as though He needed anything, since He gives to all life, breath, and all things” (Acts 17:25);
“Who knows the spirit of the sons of men, which goes upward, and the spirit of the animal, which goes down to the earth?" (Ecclesiastes 3:21).
It is clear from the above verses that the spirit or soul, whose existence atheist scientists and their contrived “science” do not have the courage to accept, the Bible has no hesitation about accepting and stating its existence in humans and all living beings. That which is a fact, will always be a fact. By rejecting, ignoring, or disregarding, that fact will neither be lost, nor will it change into something else.
The very science that teaches this fundamental concept that life can only come from life, is incapable of defining and explaining life and death; and because of the limitations it has put around itself, it is in a dilemma about life. So, refuting its own point of view, it wants to impose the belief that those same chemical and physical processes, which today if applied to any living creature would kill it, had given rise to "life", all on their own, through random processes.
Whatever science may say or accept, it is common knowledge and Biblical fact that the giver of our souls is God, before whom we all have to stand one day to give an account of our lives. The soul given by Him, eventually goes to him and receives the rewards of its life spent on earth. The soul that goes from this earth with its sins, because while it was on earth it always chose not to be reconciled with the Savior Lord God, will, as per its decision, go into eternal separation from God, i.e., eternal death, or the eternal torment of hell. The soul who is saved by confessing his sins while on earth, and seeking forgiveness from his Creator God for them, who has reconciled with the Savior Lord God, will go to live with God in heaven. A voluntarily said short but sincere prayer, with repentance for sins "Lord Jesus forgive my sins, accept me, take under your care, and cleanse me from the guilt of sin and make me a person, obedient and committed to you" Will change the eternal destiny and direction of your life will change for eternity. Do not waste this opportunity, this call from God. Now is the opportunity, make good use of this invitation, to make the rest of your life on earth, and your eternal life in the next world safe, secure, and blissful.
Through the Bible in a Year:
2 Kings 7-9
John 1:1-28