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अगुवों की भूमिका
पिछले लेखों से हम नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों के, उनका नया-जन्म पाने के पल से ही परमेश्वर की कलीसिया का अंग बनाए जानें और कलीसिया में तथा परमेश्वर की अन्य सन्तानों की सहभागिता में रखे जाने, के बारे में सीखते आ रहे हैं। हमने जो सीखा था, उसके निहितार्थों को देखते समय, हमने 26 जनवरी के लेख में देखा था कैसे, यद्यपि उनकी परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपी गई सेवाकाइयाँ और ज़िम्मेदारियाँ अलग-अलग हैं, लेकिन विश्वासी न तो एक-दूसरे से और न ही कलीसिया से अलग हैं, बल्कि जिनके साथ वे संगति रखते हैं, वे उनको, अर्थात, कलीसिया को भी तथा एक-दूसरे को भी जवाबदेह हैं। आज हम कलीसिया में अगुवों की भूमिका से संबंधित कुछ बातों को देखेंगे, अर्थात, कलीसिया और विश्वासियों के मध्य अगुवों के भण्डारी होने के बारे में।
परमेश्वर का वचन बाइबल हमें सिखाती है कि स्थानीय कलीसियाओं और उनके सदस्यों को अगुवों की अधीनता में कार्य करना है, जिन्हें उस कलीसिया के संचालन और देख-भाल की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। कलीसिया में विभिन्न प्रकार के अगुवों की नियुक्तियाँ, उनकी भूमिकाएं, कार्य, अधिकार, आदि, एक बड़ा विषय है, और हम उसे यहाँ पर नहीं लेंगे। हम यह देख चुके हैं कि परमेश्वर ने अपनी कलीसिया में प्रत्येक विश्वासी को कुछ ज़िम्मेदारी दी है और करने के लिए कोई कार्य सौंपा है (इफिसियों 2:10)। विश्वासियों को इन जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में सहायता के लिए उन्हें पवित्र आत्मा और उसके वरदान दिए गए हैं, जिनका वे पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और सहायता से उचित उपयोग कर सकते हैं। यद्यपि ये कार्य और ज़िम्मेदारियाँ उस स्थानीय कलीसिया के अगुवों की देख-भाल और निरीक्षण में किए जाने हैं, किन्तु अगुवों को हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि कलीसिया का स्वामी परमेश्वर ही है; और क्योंकि उन अगुवों को कलीसिया के सदस्यों के ऊपर परमेश्वर द्वारा नियुक्त किया गया है, इसलिए, उन्हें उन के लिए परमेश्वर को हिसाब भी देना होगा (इब्रानियों 13:17)। साथ ही अगुवों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उनकी अधीनता में रखे गए विश्वासी उनके मूक सेवक या दास नहीं हैं; उनके साथ ऐसे व्यवहार नहीं किया जाना है कि मानों उन्हें कुछ कहने का कोई अधिकार नहीं है, वे अगुवे से किसी बात के लिए कोई प्रश्न नहीं कर सकते हैं, और न ही अगुवे के प्रति कोई असहमति दिखा सकते हैं। अगुवों को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि वे भी मात्र मनुष्य ही हैं, तथा अन्य मनुष्यों के समान वे भी गलतियाँ कर सकते हैं, शैतान द्वारा बहकाए और भरमाए जा सकते हैं, तथा शैतान के प्रभाव में स्वयं भी औरों को बहका या भरमा सकते हैं – जानते-बूझते हुए अथवा अनजाने में। परमेश्वर की कलीसिया में, अंतिम अधिकार परमेश्वर का ही है, और उसकी सन्तानों के मध्य में हर बात उसी की इच्छा के अनुसार की जानी है, जैसे वह चाहता है, वैसे की जानी है। इसके लिए सभी आवश्यक निर्देश परमेश्वर ने अपने वचन में पहले से दे दिए हैं; क्योंकि वह कभी भी जो उसने अपने वचन में बता और सिखा दिया है, उससे हटकर, या उसके विपरीत कुछ नहीं कहेगा या करेगा; इसलिए अगुवों को कलीसिया की देखभाल उसी तरह से करनी है जैसे परमेश्वर ने अपने वचन में निर्देश दिए हैं।
कलीसिया के अगुवों तथा कलीसिया के सदस्यों, दोनों के लिए इस ज़िम्मेदारी के बारे में सीखने और उसका निर्वाह करने को समझने के लिए, एक बहुत सहायक खण्ड 1 पतरस 5:1-5 है। इस खण्ड में, पतरस अगुवों से आग्रह करता, उन्हें समझाता है कि वे एक चरवाहे या रखवाले के समान होकर यह कार्य करें; अर्थात, धैर्य, नम्रता, और मन लगाकर, हमेशा यह याद रखते हुए कि वह उनका नहीं बल्कि परमेश्वर का ‘झुण्ड’ है जिसकी वे रखवाली कर रहे हैं, और उसके लिए उन्हें परमेश्वर को जवाब देना है। उन्हें परमेश्वर के झुण्ड की देखभाल नीच-कमाई के लिए नहीं करनी है, न ही उन का उपयोग किसी व्यक्तिगत या भौतिक लाभ के लिए करना है – इसके संदर्भ में एक उत्तम मार्गदर्शिका 1 कुरिन्थियों 9 अध्याय में पौलुस द्वारा लिखी गई बातें हैं, जहाँ पर पौलुस अपनी जिम्मेदारियों, अधिकारों, अधिकार, मेहनताना, और वह किस तरह से परमेश्वर के सेवक होकर कार्य करता है, बताया गया है। पतरस आगे, पद 3 में, कहता है कि अगुवों को अपने झुण्ड के लिए एक आदर्श बनना चाहिए, न कि उनके ऊपर अधिकार जताना चाहिए, अर्थात उन्हें उदाहरण बनकर अगुवाई करनी चाहिए न कि बल से अथवा मजबूर कर के, और यही हम पौलुस के जीवन में भी देखते हैं। फिर, पद 4 में, पतरस अगुवों को समझाता है कि वे “प्रधान रखवाले” के आने और उन्हें उनके कभी न मुरझाने वाले अनन्तकालीन प्रतिफलों को देने की प्रतीक्षा करनी है; अर्थात वह एक बार फिर यही निहितार्थ व्यक्त करता है कि उन्हें परमेश्वर के झुण्ड से जो उन्हें सौंपा गया है भौतिक लाभ अर्जित करने की न तो लालसा रखनी है, और न ही अर्जित करने हैं। फिर, पद 5 में, पतरस कलीसिया के लोगों को भी उनकी ज़िम्मेदारी के बारे में बताता है – उन्हें अगुवों के, तथा परस्पर एक-दूसरे के, अधीन होकर रहना चाहिए, तथा सभी बातों में नम्र रहना चाहिए, परमेश्वर द्वारा उन्हें उचित समय पर ऊँचा उठाए जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए (पद 6)। इसलिए, कलीसिया के, तथा सदस्यों के, दोनों के लाभ के लिए, दोनों को ही साथ मिलकर कार्य करना है, एक-दूसरे की सहायता करनी है और एक-दूसरे का पूरक बनना है; क्योंकि कोई एक भी, दूसरे के बिना कार्य नहीं कर सकता है; दोनों को ही अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियाँ साथ मिलकर निभानी हैं।
लूका 12:45-46 में प्रभु ने ऐसे सेवक के बारे में बताया है जिसने स्वामी द्वारा उसे दिए गए अधिकार का दुरुपयोग किया, जो एक बुरा भण्डारी होने का चिह्न है, और जिसका परिणाम घोर ताड़ना है (साथ ही, इसी संदर्भ में यहेजकेल 34 अध्याय भी देखें)। अगले लेख से हम कलीसिया में अनुशासन बनाए रखने के बारे में देखना आरंभ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Role of Elders
In the preceding articles we have been studying about the Born-Again Christian Believers being placed in and being made stewards of God’s Church and of fellowship with God’s other children from the moment they are Born-Again. While considering the implications of what we learnt, in the article of 26th January on the implications, we had seen how, despite their different God given ministries and responsibilities, the Believers are not independent of each other and the Church, but are accountable to the Church and also to the other Believers that they are in fellowship with. Today, we will look at some things related to the role of the Elders in the Church, i.e., the stewardship of the Elders towards the Church and the Believers.
God’s Word, the Bible teaches us that the local Churches and their members, are to function under the care of certain Elders that have been given the responsibility of looking after and managing the Church. The appointment, role, function, and authority, etc., of various kinds of Church Elders is a vast subject, and we will not be considering it here. We have seen that God has given responsibilities and assigned works to be done for every Believer (Ephesians 2:10) in His Church. The Believers have been given the Holy Spirit and the gifts of the Holy Spirit to fulfill their responsibilities with the help of and under the guidance of the Holy Spirit. Though these works and responsibilities have to be carried out under the supervision and care of Elders of that local Church, but the Elders should always keep in mind that God is still the owner of His Church; and since they, the Elders have been placed over the members by God, to look after them, therefore, they will have to give an account to God for them (Hebrews 13:17). Moreover, the Elders should bear in mind that the Believers placed under them are not their voiceless servants, or slaves; they are not to be treated as those who cannot say anything to the Elder, or ask any questions to the Elders, or show any disagreement towards the Elders. The Elders should never forget that even they are mere human-beings, and like other human-beings, they too can make mistakes, can be led astray and deceived by Satan, and under the influence of Satan they too can lead others astray as well as deceive them – knowingly or unknowingly. In God’s Church, God is still the final authority, and amongst His children, things have to be done as per His will, the way He wants them done. God has given all the necessary instructions in His Word; since He will never go contrary to His will that He has already expressed in His Word; therefore, the Elders have to take care of the congregation, as God has instructed in His Word.
One passage that is of great help in learning about and carrying out this responsibility, by both, Elders and congregation in the prescribed manner is 1 Peter 5:1-5. In this passage, Peter exhorts the Elders to function as a shepherd, i.e., patiently, gently, and with perseverance, always remembering that it is not their own but God’s flock that they are looking after, so they will have to give an account for them to God. They should not tend God’s flock for dishonest gain, nor try to use it for personal benefit and temporal gains – a good guide for this is Paul’s example in 1 Corinthians chapter 9, where he explains his responsibilities, rights, authority, remuneration and how he functioned as a minister of God. Peter goes on to say in verse 3 that the Elders should set themselves up as examples to God’s flock, and not behave as lords over them; i.e., they should lead by example not force or coercion, as we see from the life of Paul too. Then, in verse 4, Peter urges the Elders to wait for their “Chief Shepherd” to come and give them their eternal, unfading rewards; once again implying that they should not seek and desire getting temporal gains from God’s flock entrusted to them. Then, in verse 5, Peter also instructs the congregation about their responsibility – they should submit themselves to the Elders, as well as to each other, and remain humble in all things, waiting for God to exalt them in due time (verse 6). So, for the benefit of the Church and of the congregation, the Elders and the congregation, both have to work hand-in-hand, helping and supplementing each other; one cannot function properly without the other, both have to fulfil their respective responsibilities.
In Luke 12:45-46, usurping and misusing the authority given by the Master to His servant, is a sign of bad stewardship, and will invite severe retribution (also see Ezekiel chapter 34 in this context). From the next article we will start considering about maintaining discipline in the Church.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.