प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का पहला स्तंभ, वचन
में स्थापित
पिछले कुछ लेखों में हम देखते आ रहे हैं
कि प्रभु की कलीसिया के साथ प्रभु द्वारा जोड़ दिए जाने वाले उसके जन, एक वास्तविक मसीही
विश्वासी के जीवन में, कलीसिया से जुड़ने के साथ ही सात बातें
भी जुड़ जाती हैं, उसके जीवन में दिखने लगती हैं। ये सातों
बातें प्रेरितों 2:38-42 में दी गई हैं, और प्रत्येक मसीही विश्वासी के जीवन में इनका विद्यमान होना कलीसिया के
आरंभ से ही देखा जा रहा है। आज भी व्यक्ति के जीवन में इन बातों की सत्यनिष्ठ
उपस्थिति यह दिखाती है कि वह व्यक्ति प्रभु का जन है, उसकी
कलीसिया के साथ जोड़ दिया गया है। इनमें से पहली तीन को हम पिछले लेखों में देख
चुके हैं। प्रेरितों 2:42 में शेष चार बातें दी गई हैं,
जिनमें उस प्रथम कलीसिया के सभी लोग “लौलीन रहे”। ये चारों बातें
साथ मिलकर मसीही जीवन और कलीसिया के लिए चार स्तंभ का कार्य करती हैं, जिससे व्यक्ति का मसीही जीवन और कलीसिया स्थिर और दृढ़ बने रह सकें। आज से
हम इन चारों बातों को अलग-अलग देखना आरंभ करेंगे।
प्रेरितों 2:42 में दी गई पहली बात
है “प्रेरितों से शिक्षा पाना”।
जिस समय प्रेरितों 2 अध्याय की घटना घटित हुई, और प्रथम कलीसिया की स्थापना हुई, उस समय परमेश्वर
का वचन जो लोगों के पास था, वह हमारी वर्तमान बाइबल का
“पुराना नियम” खंड था; और
वह भी फरीसियों, शास्त्रियों, सदूकियों
के नियंत्रण में था। ये लोग उस वचन को अपनी सुविधा के अनुसार तोड़-मरोड़ कर अपने
स्वार्थ के लिए प्रयोग किया करते थे (मत्ती 15:1-9)। साथ ही
उन्होंने उस वचन की बहुत सी गलत व्याख्याएं भी लोगों में फैला रखी थीं; इसीलिए प्रभु यीशु के पहाड़ी उपदेश (मत्ती 5-7 अध्याय)
में हम बारंबार प्रभु को यह कहते पाते हैं, “तुम सुन चुके हो”,
“तुम्हें कहा गया है”, आदि, और फिर “परंतु मैं तुम से कहता हूँ” - अर्थात प्रभु ने वचन की गलत शिक्षाओं को उनके वास्तविक और सही रूप में
लोगों के सामने रखा। उस समय के यहूदी समाज के ये धर्म के अगुवे प्रभु यीशु के
विरोधी थे, और प्रभु की शिक्षाओं तथा प्रभु यीशु में पापों
की क्षमा एवं उद्धार के सुसमाचार के प्रचार और प्रसार का विरोध करते थे। इसलिए इन
धर्म के अगुवों के विरोध और उनके परमेश्वर के वचन की उनकी गलत समझ एवं जानकारी के कारण यह संभव ही नहीं
था कि प्रभु की सही शिक्षाएं जन-सामान्य तक पहुंचाई जातीं। इसीलिए प्रभु ने यह
दायित्व अपने चुने हुए लोगों, अपने प्रेरितों को, अपने स्वर्गारोहण
के समय सौंपा था (मत्ती 28:18-20)। प्रभु ने अपनी शिक्षाओं
का भण्डारी अपने इन प्रेरितों को बनाया था, और उनकी
ज़िम्मेदारी थी कि वे लोगों को प्रभु की शिक्षाएं सिखाएं। जैसे-जैसे मण्डली या
कलीसिया बढ़ने लगी, शैतान ने भी वचन की सही शिक्षा को लोगों
तक पहुँचने से रोकने के प्रयास किए (प्रेरितों 6:1-7) किन्तु
उन प्रेरितों ने प्रार्थना और वचन की सेवकाई के प्रति अपने दायित्व की प्राथमिकता
को नहीं छोड़ा (6:4), परिणामस्वरूप, वचन
का प्रसार हुआ, शिष्यों की संख्या भी बढ़ी, और यहूदी याजकों का भी एक बड़ा समुदाय प्रभु के शिष्यों के साथ जुड़ गया (6:7)।
जब वचन सभी स्थानों पर फैलने लगा, प्रभु यीशु के अनुयायी
बढ़ने लगे, तो प्रभु ने वचन की इस सेवकाई, वचन की शिक्षा उसके लोगों तक पहुँचाने के लिए और लोगों को भी कलीसिया में
नियुक्त किया (1 कुरिन्थियों 12:28; इफिसियों
4:11-12)। पौलुस प्रेरित में होकर कलीसिया की देखभाल करने
वालों को वचन की सही शिक्षा देने (2 तिमुथियुस 3:16-17)
का दायित्व सौंपा गया, तथा उन्हें इस बात का
ध्यान रखने को कहा गया कि वे भविष्य के लिए वचन की सही शिक्षा देने वालों को भी
तैयार करें (2 तिमुथियुस 2:1-2)। और तब
से लेकर आज तक यह सिलसिला इसी प्रकार चलता चला आ रहा है - प्रभु के समर्पित और
आज्ञाकारी सेवक, जिन्हें प्रभु ने वचन की इस सेवकाई के लिए
नियुक्त किया है, वे प्रार्थना और वचन के अध्ययन में प्रभु
के साथ समय बिताते हैं, प्रभु से सीखते हैं, और फिर उन शिक्षाओं को प्रभु के लोगों तक पहुँचा देते हैं, तथा भावी पीढ़ी में इसी सेवकाई के लिए प्रभु और लोगों को उन से सीखने तथा
औरों को सिखाने के लिए उनमें जोड़ता चला जाता है।
ध्यान कीजिए, प्रभु ने कभी भी,
कहीं भी, अपने शिष्यों से यह नहीं कहा कि भले
बनो, भलाई करो, भलाई की बातें सिखाओ,
और परमेश्वर तुम्हारे साथ रहेगा। प्रभु ने अपने शिष्यों से सुसमाचार
प्रचार करने के लिए कहा, उसकी बातें संसार के लोगों को
सिखाने के लिए कहा (प्रेरितों 1:8)। लोगों को परमेश्वर और उसके वचन से भटकाने और
उन्हें उनके पापों में फँसाए रखने के लिए शैतान ने ही यह प्रभु के वचन और प्रभु की
आज्ञाकारिता में “लौलीन रहने” के स्थान
पर “भले बनो, भला करो” का ‘मंत्र’ लोगों में डाला है।
भले बनना और भला करना अच्छा है, किन्तु इसे परमेश्वर के वचन
और उसकी आज्ञाकारिता के स्थान पर रखना अच्छा नहीं, घातक है।
जो प्रभु परमेश्वर के वचन के आज्ञाकारी रहेंगे, वे स्वतः ही
भले भी हो जाएंगे, और भलाई भी करेंगे। किन्तु भले बनने और
भलाई करने से कोई प्रभु के वचन को नहीं सीख अथवा सिखा सकता है। ध्यान कीजिए,
संसार का पहला पाप था परमेश्वर के वचन, उसके
द्वारा दिए गए निर्देश की अनाज्ञाकारिता करना; और हव्वा से
यह पाप करवाने के लिए शैतान ने उसके मन में परमेश्वर के वचन, उसके निर्देशों की सार्वभौमिकता और भलाई के प्रति संदेह उत्पन्न किया। आज
भी शैतान इसी कुटिलता का ऐसे ही प्रयोग करता है - परमेश्वर के वचन और आज्ञाकारिता
से ध्यान भटका कर, उनके प्रति संदेह उत्पन्न कर के, अपनी बातों में फँसा लेता है, पाप में गिरा देता है।
कनान देश में प्रवेश करने से ठीक पहले
परमेश्वर ने यहोशू से कहा, “इतना हो कि तू हियाव बान्धकर और बहुत दृढ़ हो कर जो
व्यवस्था मेरे दास मूसा ने तुझे दी है उन सब के अनुसार करने में चौकसी करना;
और उस से न तो दाहिने मुड़ना और न बांए, तब
जहां जहां तू जाएगा वहां वहां तेरा काम सफल होगा। व्यवस्था की यह पुस्तक तेरे
चित्त से कभी न उतरने पाए, इसी में दिन रात ध्यान दिए रहना,
इसलिये कि जो कुछ उस में लिखा है उसके अनुसार करने की तू चौकसी करे;
क्योंकि ऐसा ही करने से तेरे सब काम सफल होंगे, और तू प्रभावशाली होगा। क्या मैं ने तुझे आज्ञा नहीं दी? हियाव बान्धकर दृढ़ हो जा; भय न खा, और तेरा मन कच्चा न हो; क्योंकि जहां जहां तू जाएगा
वहां वहां तेरा परमेश्वर यहोवा तेरे संग रहेगा” (यहोशू 1:7-9)। और कनान देश में इस्राएलियों को बसाने के बाद यहोशू ने अंत में आकर लोगों से कहा, “इसलिये अब यहोवा का
भय मानकर उसकी सेवा खराई और सच्चाई से करो; और जिन देवताओं
की सेवा तुम्हारे पुरखा महानद के उस पार और मिस्र में करते थे, उन्हें दूर कर के यहोवा की सेवा करो। और यदि यहोवा की सेवा करनी तुम्हें
बुरी लगे, तो आज चुन लो कि तुम किस की सेवा करोगे, चाहे उन देवताओं की जिनकी सेवा तुम्हारे पुरखा महानद के उस पार करते थे,
और चाहे एमोरियों के देवताओं की सेवा करो जिनके देश में तुम रहते हो;
परन्तु मैं तो अपने घराने समेत यहोवा की सेवा नित करूंगा”
(यहोशू 24:14-15)।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं तो ध्यान
रखिए कि आत्मिक ‘कनान
देश’ - प्रभु की आशीषों, सुरक्षा,
और संगति में प्रवेश करने वाले प्रत्येक ‘इस्राएली’
अर्थात प्रभु के जन के लिए इसी प्रकार से प्रभु के वचन में स्थिर और
दृढ़ बने रहना अनिवार्य है। ऐसा करने से, जैसा यहोवा ने यहोशू
को प्रतिज्ञा दी, वैसे ही मसीही विश्वासी के लिए भी,
“तब जहां जहां तू जाएगा वहां वहां तेरा काम सफल होगा”;
“ऐसा ही करने से तेरे सब काम सफल होंगे, और
तू प्रभावशाली होगा”; “जहां जहां तू जाएगा वहां वहां
तेरा परमेश्वर यहोवा तेरे संग रहेगा”। प्रभु यीशु मसीह
ने कहा है कि उसके वचन से व्यक्ति का प्रेम और आज्ञाकारिता ही व्यक्ति के प्रभु से
प्रेम का माप है, वास्तविक सूचक है (यूहन्ना 14:21,
23)। प्रभु द्वारा दिए गए इस माप-दण्ड के आधार पर आज आप वचन की
शिक्षा के संदर्भ में कहाँ खड़े हैं? अभी समय और अवसर है,
जो आवश्यक हैं, अपने जीवन में वे सुधार कर
लीजिए, जिससे कल की किसी बड़ी हानि की संभावना से बच सकें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो
अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के
पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की
आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- निर्गमन
12-13
- मत्ती 16