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उद्धार के साथ तुरंत ही पवित्र आत्मा की प्राप्ति
पिछले लेख में हमने देखा था कि शैतान इतना सामर्थी, कुटिल, और धूर्त है कि मनुष्य के लिए अपनी किसी बल-बुद्धि-ज्ञान के द्वारा उसका सामना करना, या उस पर जयवंत हो पाना संभव नहीं है। परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित के द्वारा लिखवाया, “क्योंकि हमारा यह मल्लयुद्ध, लहू और मांस से नहीं, परन्तु प्रधानों से और अधिकारियों से, और इस संसार के अन्धकार के हाकिमों से, और उस दुष्टता की आत्मिक सेनाओं से है जो आकाश में हैं” (इफिसियों 6:12)। इस आत्मिक मल्लयुद्ध के लिए आत्मिक हथियारों और सुरक्षा कवच, तथा आत्मिक बातों और आत्मिक सामर्थ्य की आवश्यकता है। इसे शारीरिक सामर्थ्य, बुद्धि, ज्ञान, और बातों के द्वारा न तो लड़ा जा सकता है, और न ही जीता जा सकता है। इसीलिए मसीही विश्वासियों को मनुष्य के नहीं, वरन परमेश्वर के सारे हथियार बांध लेने के लिए कहा गया है “इसलिये परमेश्वर के सारे हथियार बान्ध लो, कि तुम बुरे दिन में सामना कर सको, और सब कुछ पूरा कर के स्थिर रह सको” (इफिसियों 6:13), और फिर वह उन हथियारों की सूची देता है (इफिसियों 6:14-17)।
इसी आत्मिक मल्लयुद्ध के लिए आत्मिक सामर्थ्य और ‘युद्ध-विद्या’ को सीखने और जानने के लिए जिसकी सहायता की आवश्यकता है, वह है परमेश्वर पवित्र आत्मा। प्रभु यीशु ने अपने स्वर्गारोहण से पहले शिष्यों को आज्ञा दी कि वे यरूशलेम को तब तक न छोड़ें जब तक उनका यह सहायक और प्रशिक्षक उनके साथ नहीं हो जाता है। तब तक उन्हें वहीं बने रहकर परमेश्वर पिता द्वारा जो प्रतिज्ञा दी गई है, और जिसकी चर्चा प्रभु यीशु ने पहले उन से की है, उसकी प्रतीक्षा करते रहना था। प्रभु की यह प्रतिज्ञा स्पष्ट शब्दों में प्रेरितों 1:5, 8 में बताई गई है “क्योंकि यूहन्ना ने तो पानी में बपतिस्मा दिया है परन्तु थोड़े दिनों के बाद तुम पवित्रात्मा से बपतिस्मा पाओगे”; “परन्तु जब पवित्र आत्मा तुम पर आएगा तब तुम सामर्थ्य पाओगे; और यरूशलेम और सारे यहूदिया और सामरिया में, और पृथ्वी की छोर तक मेरे गवाह होगे।” प्रेरितों 1:5, 8 यह स्पष्ट है कि प्रभु शिष्यों से जिस प्रतिज्ञा के पूरे होने की प्रतीक्षा करने को कह रहा था, वह शिष्यों के द्वारा पवित्र आत्मा प्राप्त करना था; और यह पवित्र आत्मा प्राप्त करना ही पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पाना है।
अब, यहाँ दो बातों पर ध्यान देना आवश्यक है:
पहली, जिसे हम आज देखेंगे, शिष्यों को सेवकाई पर निकलने से पहले, प्रतिज्ञा के पूरा होने तक प्रतीक्षा करनी थी, सेवकाई पर जाने के लिए परमेश्वर के सही समय का इंतजार करना था। किन्तु यह बहुत महत्वपूर्ण और ध्यान में रखने योग्य बात यह कि प्रभु ने उन्हें यह नहीं कहा कि उस प्रतीक्षा के समय के दौरान उन्हें कुछ विशेष करते रहने होगा जिसके परिणामस्वरूप फिर उन्हें पवित्र आत्मा दिया जाएगा। न ही प्रभु ने उनसे यह कहा कि उनके परमेश्वर से विशेष रीति से मांगने से, आग्रह करने या गिड़गिड़ाने से, अथवा कोई अन्य विशेष प्रयास करने के परिणामस्वरूप फिर परमेश्वर उन्हें पवित्र आत्मा देगा, जैसे कि आज बहुत से लोग और डिनॉमिनेशन सिखाते हैं, और अपने लोगों द्वारा करने के लिए बल देते हैं, विशेष सभाएं रखते हैं - जो सभी परमेश्वर के वचन के विरुद्ध है। पवित्र आत्मा प्राप्त होने की प्रतिज्ञा का पूरा किया जाना परमेश्वर के द्वारा, उसके समय और उसके तरीके से होना था, न कि इन शिष्यों के किसी विशेष रीति से मांगने या कोई विशेष कार्य अथवा प्रयास करने से होना था। मनुष्य कभी भी परमेश्वर को कुछ भी करने के लिए, अपने किसी भी प्रयास या कार्य के द्वारा न तो बाध्य कर सकता है, और न ही दबाव में डाल सकता है; और परमेश्वर की इच्छा और योजना के बाहर कुछ भी करने के लिए तो कदापि नहीं।
बाइबल के गलत अर्थ निकालने और अनुचित शिक्षा देने का सबसे प्रमुख और सामान्य कारण है किसी बात या वाक्य को संदर्भ से बाहर लेकर, और उस से संबंधित किसी संक्षिप्त वाक्यांश के आधार पर, अपनी ही समझ के अनुसार एक सिद्धांत (doctrine) खड़ा कर लेना, उसे सिखाने लग जाना। प्रभु की यहाँ पर कही गई इस बात के आधार पर भी इसी प्रकार से यह गलत शिक्षा दी जाती है कि उद्धार पा लेने के बाद फिर पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करना और प्रयास करना आवश्यक है।
इस संदर्भ में ध्यान कीजिए कि सम्पूर्ण नए नियम में फिर कहीं यह प्रतीक्षा करना न तो सिखाया गया है, और ना इस बात के लिए कभी किसी को कोई उलाहना दिया गया है कि उन्होंने प्रतीक्षा अथवा प्रयास क्यों नहीं किया। न ही किसी मसीही विश्वासी में विश्वास अथवा सामर्थ्य की कमी दिखने पर उससे कभी यह कहा गया कि कुछ विशेष प्रयास अथवा प्रतीक्षा कर के वे पवित्र आत्मा को प्राप्त करें, और उससे प्रभु की सेवकाई के लिए सामर्थी बनें। वरन नए नियम में अन्य सभी स्थानों पर यही बताया और सिखाया गया है कि पवित्र आत्मा प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करते ही, तुरंत ही दे दिया जाता है।
प्रेरितों 10:44; 11:15, 17 – विश्वास करने के साथ ही
प्रेरितों 19:2 – विश्वास करते समय
इफिसियों 1:13-14 – विश्वास करते ही छाप लगी
गलातियों 3:2 – विश्वास के समाचार से
तीतुस 3:5 – नए जन्म और पवित्र आत्मा का स्नान साथ ही
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो प्रभु परमेश्वर की प्रतिज्ञा और वचन के आधार पर जानिए तथा विश्वास रखिए कि प्रभु ने उद्धार पा लेने के बाद आपको निःसहाय नहीं छोड़ दिया है, वरन आपकी सुरक्षा और मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा आपके अंदर उसी क्षण से विद्यमान हैं, जिस क्षण आपने प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार किया और अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर दिया। आपको पवित्र आत्मा के प्रति संवेदनशील होने, उनके कहे के अनुसार कार्य करने, और उनकी आज्ञाकारिता में बने रहकर अपनी मसीही सेवकाई को करते रहने की आवश्यकता है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
प्रभु की प्रतिज्ञा के अनुसार, प्रभु के शिष्यों द्वारा पवित्र आत्मा प्राप्ति से संबंधित दूसरी बात को हम कल के लेख में देखेंगे।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 31-32
प्रेरितों 23:16-35
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Holy Spirit Received Immediately With Salvation
In the previous article we have seen that Satan is so powerful, sly, and crafty, that it is not possible for any person to confront or overcome him through human strength-wisdom-knowledge. Through the Holy Spirit, Paul wrote to the Church in Ephesus, “For we do not wrestle against flesh and blood, but against principalities, against powers, against the rulers of the darkness of this age, against spiritual hosts of wickedness in the heavenly places” (Ephesians 6:12). For this spiritual battle we need spiritual weapons and armour, spiritual abilities, and spiritual power. This battle can neither be fought nor won with physical strength, wisdom, knowledge, and other such things. It is for this reason that Christian Believers have been exhorted to take up not any human but all of divine weapons, “Therefore take up the whole armor of God, that you may be able to withstand in the evil day, and having done all, to stand” (Ephesians 6:13); and then Ephesians 6:14-17 gives the list of these spiritual weapons required for this battle.
For this spiritual battle, it is God the Holy Spirit, whose help and guidance is necessary to learn the battle strategies and acquire the required spiritual power. The Lord Jesus commanded His disciples not to leave Jerusalem till they have this helper and trainer, God the Holy Spirit, with them. The disciples were to wait till they received what had been promised to them by God, and the Lord too had talked to them about. The Lord has expressed this promise of their helper to them in very clear unambiguous words in Acts 1:5, 8 “for John truly baptized with water, but you shall be baptized with the Holy Spirit not many days from now.” “But you shall receive power when the Holy Spirit has come upon you; and you shall be witnesses to Me in Jerusalem, and in all Judea and Samaria, and to the end of the earth.”
Now, here there are two things to note:
First, which we will see today, was that the disciples had to wait for the promise to be fulfilled, they had to wait for God’s correct time to go out for their ministry. But what is particularly important to note here is the fact that the Lord had not asked them to do something special, and consequent to their doing that thing, they will receive the Holy Spirit. Neither did the Lord say to them that if they ask for Him in a particular manner, or plead before Him or do some special efforts, then in response to any of those efforts or works, the Lord Jesus will give them the Holy Spirit; as many sects and denominations teach these days, and insist that their members do so; and they hold special services and meetings too for this purpose - all contrary to the Word of God. The fulfillment of the disciple’s receiving the Holy Spirit was to be by the Lord God, in His time and manner; not by any special human works or efforts. God can never be coerced or manipulated into doing things by any human efforts or works; least of all things not in harmony or accordance to His will and plans.
The foremost reason of misinterpreting the Bible and giving wrong teachings about it, is people’s taking a phrase or word or statement out of its context, and then building up a doctrine on that out-of-context statement or phrase or words, according to one’s own understandings and imaginations. This is what is done to this statement of the Lord; it has been taken out of its context, and misused to propound and teach an unBiblical “doctrine”, that to receive the Holy Spirit, one has to wait and do certain activities, after having received salvation.
In this context, ponder over the Biblical fact that in the whole of the New Testament, never again and nowhere has this teaching of having to wait for the Holy Spirit ever been given again or reminded of; nor has anyone ever been pulled up for not waiting or making some special efforts to receive the Holy Spirit after being saved. Also, no Christian Believer exhibiting any weakness in their faith or strength has ever been asked in the New Testament to make some special efforts to receive the Holy Spirit and thereby be strengthened for the Lord’s work. Instead, in the whole New Testament, it has always been told and taught that the Holy Spirit is given to every person, as soon as they repent of their sins, accept the Lord Jesus as their Savior, and come to have faith in Him; consider some instances of receiving the Holy Spirit:
At the time of believing and coming into faith - Acts 10:44; 11:15, 17
At the time of believing - Acts 19:2
Sealed at the moment of believing - Ephesians 1:13-14
By the hearing of faith - Galatians 3:2
On being regenerated and renewed - Titus 3:5
If you are a Christian Believer, then know and believe on the promise of God and His Word that the Lord has not left you helpless and alone after your salvation. Rather, from that very moment onwards when you accepted the Lord Jesus as your Savior and surrendered your life to Him, for your safety and protection from satanic attacks, God the Holy Spirit comes to reside within you. What you need to do is to be sensitive to the promptings of the Holy Spirit, to be obedient to Him and do as He directs you to do, and fulfill your Christian ministry under His guidance.
We will consider the second thing in the next article.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 31-32
Acts 23:16-35