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शनिवार, 31 दिसंबर 2022

प्रभु भोज – प्रभु यीशु द्वारा स्थापित (7) / The Holy Communion - Established by the Lord Jesus (7)

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प्रभु की मेज़ - जो प्रभु को समर्पित नहीं हैं उनके लिए नहीं 

 

हम चारों सुसमाचारों में से प्रभु द्वारा फसह का भोज खाते समय प्रभु भोज की स्थापना के वृतांत का अध्ययन करते आ रहे हैं। जैसा हम पहले भी कह चुके हैं, इस अध्ययन का उद्देश्य सुसमाचारों के विवरणों में सामंजस्य बैठाना और उन्हें क्रमवार प्रस्तुत करना नहीं है, वरन प्रभु की मेज़ के अर्थ, महत्व, और उसमें भाग लेने के बारे में सीखना है। अब हम इस घटनाक्रम के सबसे महत्वपूर्ण भाग पर आते हैं - प्रभु भोज की स्थापना, और एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न पर भी, कि क्या उस पहले प्रभु भोज में यहूदा इस्करियोती भी सम्मिलित हुआ था? इसका उत्तर और उसके अभिप्राय हम केवल चारों सुसमाचारों के विवरणों का अध्ययन कर के उन्हें साथ मिलाकर देखने के द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं।

 

यहाँ हमें इस घटनाक्रम के दो महत्वपूर्ण भागों को ध्यान में रखना बहुत आवश्यक है। पहला है फसह के भोज का खाया जाना, और दूसरा है प्रभु द्वारा अपने शिष्यों को रोटी और प्याले को अपनी देह और लहू के चिह्नों के रूप में देना, कि भविष्य में वे उसकी याद में यही करते रहें, जब तक कि वह लौट कर नहीं आ जाता है (लूका 22:19; 1 कुरिन्थियों 11:24-26)। जैसा हम पहले देख चुके हैं, प्रभु ने पहले यूहन्ना और पतरस को एक विशेष घर में भेजा था कि फसह के भोज की तैयारी करें, और फिर वहाँ शिष्यों के साथ गया था कि फसह का भोज उनके साथ खाए। जैसा हम यूहन्ना 13 से देख चुके हैं, कि भोजन खाने के दौरान, प्रभु ने उठकर शिष्यों के पाँव धोए, उन्हें दीनता और एक दूसरे को आदर देने का व्यावहारिक पाठ सिखाया। हो सकता है कि उसने यह इस कारण किया क्योंकि तब शिष्यों में वाद -विवाद चल रहा था कि उनमें से बड़ा कौन है (लूका 22:24-30)। भोजन करते समय, शिष्यों के पाँव धोने के पश्चात, प्रभु ने उन्हें बताया कि उनमें से एक उसे पकड़वाएगा, और फिर इस बात को लेकर शिष्यों में चर्चा आरंभ हो गई। फसह के भोज को खाते समय और पकड़वाने वाले की पहचान के रूप में, प्रभु ने रोटी का टुकड़ा डुबोकर यहूदा को दिया, और उससे कहा कि उसे जो करना है वह कर ले (यूहन्ना 13:26-27)। यहाँ पर यूहन्ना घटनाक्रम का एक बहुत महत्वपूर्ण भाग दर्ज करता है - यहूदा ने वह डुबोया हुआ टुकड़ा लिया और बाहर अँधियारे में चला गया (यूहन्ना 13:30), किसी भी सुसमाचार में यह नहीं लिखा है कि यहूदा ने वह टुकड़ा खाया भी। यह भिगो कर दिया गया टुकड़ा, उसके प्रति प्रभु के प्रेम और अभी भी प्रभु द्वारा उसे आदर दिए जाने का प्रतीक था, क्योंकि परंपरा के अनुसार परिवार का मुख्या, फसह खाते समय, यह टुकड़ा वहाँ उपस्थित आदरणीय और प्रेम के भागी व्यक्ति को देता था।

 

यह भिगोया हुआ रोटी का टुकड़ा दिए जाने, और टुकड़ा लेकर यहूदा के वहाँ से चले जाने के बाद, जब शेष शिष्य भोजन खा रहे थे, तब प्रभु यीशु ने रोटी ली, आशीष मांग कर तोड़ी और शिष्यों को उसके तोड़े गए बदन के प्रतीक के रूप में दे दिया; फिर उसने प्याला भी लिया और उन्हें उसमें से भाग लेने के लिए कहा, उनके लिए बहाए गए लहू के प्रतीक के रूप में, जैसा कि मत्ती 26:26-29; मरकुस 14:22-25; लूका 22:18-20 में लिखा गया है। इसलिए, इन सारी घटनाओं के विवरण को साथ मिलाकर देखने के द्वारा, हमारे सामने यह स्पष्ट हो जाता है कि यहूदा ने उस प्रथम प्रभु भोज में भाग नहीं लिया था, वह उस प्रभु भोज के स्थापित किए जाने के समय वहाँ उपस्थित नहीं था। यह हमारे द्वारा निर्गमन 12 से देखी गई बात के साथ पूर्णतः मेल खाता है कि फसह का भोज और प्रभु भोज केवल प्रभु परमेश्वर के प्रतिबद्ध, समर्पित लोगों ही के लिए है, किसी अन्य के लिए नहीं। कुछ लोग लूका के वृतांत के क्रम से इसके बारे में असमंजस में पड़ सकते हैं, क्योंकि लूका ने फसह के भोज वाला वर्णन और प्रभु यीशु द्वारा यह कहना कि उसके पकड़वाने वाले का हाथ उसके साथ मेज़ पर है, प्रभु भोज की स्थापना के बाद लिखा है। हमें समझने में सहायता के लिए यह ध्यान रखना चाहिए कि लूका फसह के भोज के समय यहूदा की उपस्थिति को बता रहा है, न कि प्रभु भोज के समय पर; क्योंकि यूहन्ना 13 का घटनाक्रम यह स्पष्ट बताता है कि रोटी का डुबोया हुआ टुकड़ा लेने के बाद यहूदा वहाँ से चला गया, उसके जाने के बाद भोजन चलता रहा, तथा शेष घटनाएं हुईं, जिनमें प्रभु भोज की स्थापना भी है। साथ ही यहूदा ने न तो रोटी का डुबोया हुआ टुकड़ा खाया, और न ही वह प्रभु भोज की स्थापना के समय वहाँ उपस्थित था।


कभी-कभी लोग यह तर्क देते हैं कि क्योंकि प्रभु यीशु ने यहूदा इस्करियोती को उस प्रथम प्रभु भोज में भाग लेने दिया, तो फिर आज क्यों वे लोग जो प्रभु यीशु को समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं हैं, इसमें भाग नहीं ले सकते हैं? हमें इसे दो दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है - पहला, जैसे के हम ऊपर देख चुके हैं, प्रभु यीशु ने यहूदा को प्रथम प्रभु भोज में भाग नहीं लेने दिया। दूसरी बात, जैसा कि हमने बारंबार निर्गमन 12 के अध्ययन के समय बल देकर कहा है, प्रभु की मेज़ में भाग लेना एक यादगार है, प्रभु के बलिदान और हमें पाप के दासत्व से छुड़ाने के उसके काम की; इसमें भाग उसका आदर और आज्ञाकारिता करने के लिए है। प्रभु की मेज़ में भाग लेने से कोई पवित्र और धर्मी नहीं बनता है, और न ही कोई परमेश्वर को स्वीकार्य अथवा स्वर्ग में प्रवेश पाने के योग्य हो जाता है - इस विचारधारा के समर्थन एवं पुष्टि के लिए बाइबल में कोई हवाला अथवा उदाहरण नहीं है। तो फिर, बिना प्रभु यीशु के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध हुए, प्रभु भोज में भाग लेने के द्वारा किसी को क्या लाभ होगा और कैसे? बल्कि, जैसा कि 1 कुरिन्थियों 11:27-31 में लिखा है, जो इसमें अयोग्य रीति से भाग लेते हैं, वे अपने ऊपर परमेश्वर के न्याय को लाते हैं। इसलिए जो प्रभु परमेश्वर के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं हैं, उनके लिए प्रभु की मेज़ में भाग लेना किसी लाभ का नहीं परंतु बड़ी हानि का कारण होगा; इसलिए उन्हें अपने लाभ के लिए इसमें भाग लेने से रोक कर रखना चाहिए। यह निर्गमन 12:43-49 की बात के समान है, फसह में केवल तब ही कोई परदेशी भाग ले सकता था, जब वह अपने आप को परमेश्वर और अब्राहम के मध्य हुई वाचा के अंतर्गत ले आता था, और खतने के द्वारा इसकी गवाही दे देता था।

  

अगले लेख से हम 1 कुरिन्थियों 11 पर जाएंगे, तथा आगे की बातें वहाँ से सीखेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • मलाकी 1-4          

  • प्रकाशितवाक्य 22     


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English Translation


The Lord’s Table - Not for Those not Committed to the Lord   


In our study from the four Gospels, we have been looking at the Lord’s instituting the Holy Communion, while eating the Passover with His disciples. As we have said before, the purpose of this study is not to harmonize the Gospel accounts and present them in a chronological order, but to learn about the meaning, significance, and participation in the Lord’s Table. We now come to the crucial part of the event - the actual establishing of the Table by the Lord, and a very crucial question and its implications, did Judas Iscariot participate in that first Holy Communion? The answer and its inferences can only be derived by studying the four Gospel accounts and putting together the events sequentially.


We need to keep in mind two important parts of this event, first is the eating of the Passover meal and the second is Lord’s giving the bread and the cup as symbols of His body and blood to the disciples, for them to keep doing in remembrance of Him, in the times to come, till He comes (Luke 22:19; 1 Corinthians 11:24-26). The Lord had first sent Peter and John to prepare for the Passover in a specific house, as we have seen earlier, and had then gone to eat the Passover with His disciples. It was during the meal, as we saw from John 13, that He rose up and washed the feet of the disciples and gave them a practical lesson in humility and honoring others. This might have been prompted by the dispute among the disciples as to which one among them should be considered the greatest (Luke 22:24-30). It was during the meal, after the washing of the feet of the disciples, that the Lord informed that He was going to be betrayed by one amongst them, because of which a discussion as to who it is ensued amongst the disciples. As a part of eating of this Passover meal and as a sign of identification of the betrayer, the Lord gave the sop - the piece of bread dipped in the broth, to Judas, and asked him to do what he wanted to do (John 13:26-27). John records a very important part of the events here - Judas took the sop, and went out into the night (John 13:30), but in none of the gospel accounts is it written that Judas actually ate that sop given to Him by the Lord, which was also a sign of Lord’s love for him and of still giving him a place of honor, since the head of the family, at Passover, gave the sop to a loved and honorable person present at the Passover meal.


It is after the sop had been given, and Judas after receiving the sop had gone out, while the others were eating the meal (Matthew 26:26; Mark 14:22) that the Lord took the bread, blessed and broke it and gave it to the disciples as a symbol of His body broken for them; He then took the cup and asked them to share from it, as a symbol of the Lord’s blood shed for them, as is recorded in Matthew 26:26-29; Mark 14:22-25; Luke 22:18-20. Therefore, by piecing together the sequence of events, it becomes clear that Judas was not present at the time of the Lord establishing the Table, and did not participate in the first Holy Communion established by the Lord. This is in perfect agreement with what we have seen earlier, from Exodus 12, that the Passover, as well as Lord’s Table are only for the actual committed people of the Lord, not for anyone else. Some people may be confused by the account given in Luke, since Luke records the events of eating the Passover meal and the Lord’s saying that the hand of His betrayer is with Him in the dish, after the establishing of the Lord’s Table, whereas Matthew and Mark record it as before the Lord established the Table. What helps us to understand and clarify is that Luke is recording the presence of Judas for the Passover meal not for the Table; since the events of John 13 help us understand that eating of the meal was in presence of Judas, who left after taking the sop, and the continuation of the meal and the rest of the events, including the establishing of the Lord’s Table, followed after that. Moreover, Judas did not even eat the sop, and neither was he present at the institution of the Lord’s Table.


Sometimes, people argue that since the Lord allowed Judas Iscariot to partake of the first Holy Communion, so why can’t people who are not actually committed to the Lord do the same today? We need to understand it from two different perspectives - firstly, as we have seen above, the Lord Jesus did not let Judas partake of the first Holy Communion. Secondly, as we have repeatedly emphasized during the study from Exodus 12, partaking in the Lord’s Table is in remembrance of the sacrifice of the Lord to deliver us from the bondage of sin; it is to honor and obey Him. Partaking of the Lord’s Table does not accord anyone any holiness or righteousness, nor makes anyone acceptable to God, nor worthy of entering into heaven - there is no Biblical reference to support and affirm this thinking. So, how would anyone benefit, and in what manner, by participating in the Holy Communion, without being committed to the Lord? Rather, as it says in 1 Corinthians 11:27-31, those who participate unworthily, invite God’s judgement upon themselves. Therefore, for those not committed to the Lord, participating in the Lord’s Table is more harmful than of any good; and for their own benefit they should refrain from doing so, till they make a commitment to the Lord and join themselves to Him; as was the instruction for the Passover - only those who first came under the covenant of God with Abraham, witnessed for it through circumcision, could participate in the Passover (Exodus 12:43-49).


From the next article, we will shift to 1 Corinthians 11 and learn more from there. If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Malachi 1-4

  • Revelation 22



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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

प्रभु भोज – प्रभु यीशु द्वारा स्थापित (6) / The Holy Communion - Established by the Lord Jesus (6)

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प्रभु की मेज़ - परमेश्वर द्वारा दिए गए आदर और विशेष-अधिकारों की यादगारी 

 

हम यूहन्ना 13 से प्रभु द्वारा फसह मनाते हुए, फसह की सामग्री से लेकर प्रभु भोज को स्थापित करने से ठीक पहले हुई बातों और घटनाओं को देख रहे हैं। पिछले लेख में हमने पद 18-19 से देखा था कि प्रभु यीशु के जीवन में परमेश्वर के वचन का पालन करने का क्या स्थान था; और इसी प्रकार से जो लोग प्रभु भोज में भाग लेते हैं उन्हें भी इस बात में प्रभु का अनुसरण करना है। साथ ही, यूहन्ना 13:19 में प्रभु वार्तालाप का ध्यान शिष्यों की भावी गतिविधि की ओर लेकर जाता है। अभी तक, यहाँ पर, यूहन्ना 13 में, प्रभु यीशु की शिष्यों के साथ फसह से संबंधित बातचीत में, शिष्यों की भावी सेवकाई का कोई उल्लेख नहीं हुआ था। किन्तु संभावित भावी घटनाओं के बारे में बात करते हुए, पद 19 में, प्रभु न केवल उन शिष्यों को आश्वस्त करता है कि वे घटनाएं भी उसके दावों की पुष्टि ही करेंगी; साथ ही प्रभु उन्हें उनके ओहदे और आशीषों के लिए भी आश्वस्त करता है। प्रभु जानता था कि उन्हें आने वाले दिनों में इन बातों का सदा ध्यान रखने की आवश्यकता पड़ेगी, जब वे सुसमाचार प्रचार के लिए संसार में निकलेंगे।


यहाँ, यूहन्ना 13:20 में, प्रभु शिष्यों से कोई नई बात नहीं कह रहा है। वह उन्हें यही बात तब भी कह चुका था जब उसने पहली बार उन्हें सेवकाई के लिए भेजा था (मत्ती 10:40-42)। इसके बाद भी अपनी सेवकाई के दौरान प्रभु ने शिष्यों को उनके ईश्वरीय अधिकार और सहारे की बात बताई थी (मरकुस 9:37; लूका 10:16; यूहन्ना 12:44-45)। अब, उसे पकड़ कर क्रूस पर मारे जाने के लिए ले जाए जाने से पहले, प्रभु फिर से उन्हें इस बात को याद दिला रहा है। इस अनुपम आदर और विशेषाधिकार के बारे में प्रभु द्वारा बारंबार शिष्यों को याद दिलाना, उनके लिए और उनके जीवनों में इन बातों के महत्व का सूचक है; और इस बात का भी कि प्रभु के लिए उनकी सेवकाई में भी इसे याद रखना बहुत आवश्यक तथा महत्वपूर्ण है। उन्हें कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि उन्हें एक खतरनाक अभियान पर, बिना किसी अधिकार और सामर्थ्य के भेज दिया गया। वरन उनके पास तो सर्वाधिक सामर्थ्य और सृष्टि की सर्वोच्च सहायता और अधिकार है - स्वयं परमेश्वर से। इसलिए प्रभु यीशु मसीह के शिष्य, परमेश्वर के लोग होकर जीने के लिए उन्हें कभी भी मनुष्यों से डरने और मनुष्यों के बनाए हुए नियमों के अधीन होने की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु हमेशा ही कोई भी विशेषाधिकार और ओहदा, और सामर्थ्य बिना उससे जुड़ी हुई जिम्मेदारियों के नहीं मिलते हैं; साथ ही उन जिम्मेदारियों को भी लेना और निभाना पड़ता है। अपनी पृथ्वी की सेवकाई के आरंभिक समय में ही, अपने पहाड़ी उपदेश में, प्रभु ने अपने शिष्यों के सामने यह स्पष्ट कर दिया था कि उनसे क्या आशा रखी गई है। उन बातों में से एक थी कि उन्हें “पृथ्वी के नमक” तथा “जगत की ज्योति” के समान जीना है जिससे लोग उनके स्वर्गीय पिता की महिमा करें (मत्ती 5:13-16)।


पौलुस प्रेरित ने, पवित्र आत्मा में होकर मसीही विश्वासियों को याद दिलाया कि वह तथा सभी विश्वासी “मसीह के राजदूत” हैं (2 कुरिन्थियों 5:20), और उन्हें प्रभु परमेश्वर की ओर से संसार के लोगों से प्रभु के लिए बोलना है। प्रेरित यूहन्ना ने लिखा “सो कोई यह कहता है, कि मैं उस में बना रहता हूं, उसे चाहिए कि आप भी वैसा ही चले जैसा वह चलता था” (1 यूहन्ना 2:6)। प्रेरित पतरस ने अपने पाठकों को याद दिलाया कि परमेश्वर ने उन्हें कितना उच्च ओहदा और आदर प्रदान किया है “पर तुम एक चुना हुआ वंश, और राज-पदधारी याजकों का समाज, और पवित्र लोग, और परमेश्वर की निज प्रजा हो, इसलिये कि जिसने तुम्हें अन्धकार में से अपनी अद्भुत ज्योति में बुलाया है, उसके गुण प्रगट करो” (1 पतरस 2:9); वे इसे हल्के में नहीं ले सकते थे, उनकी जिम्मेदारी थी कि “...जिसने तुम्हें अन्धकार में से अपनी अद्भुत ज्योति में बुलाया है, उसके गुण प्रगट करो”। जैसा पतरस ने यहाँ पर कहा है और यूहन्ना ने प्रकाशितवाक्य 1:6 में कहा, प्रत्येक नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, अर्थात प्रभु यीशु मसीह का प्रत्येक शिष्य, परमेश्वर की दृष्टि में, परमेश्वर के लिए याजक है। परमेश्वर के संदेशवाहक होने के नाते, उसके याजक की दो ज़िम्मेदारियाँ होती हैं, “क्योंकि याजक को चाहिये कि वह अपने ओठों से ज्ञान की रक्षा करे, और लोग उसके मुंह से व्यवस्था पूछें, क्योंकि वह सेनाओं के यहोवा का दूत है” (मलाकी 2:7); पहली, उसे “ज्ञान की रक्षा” करनी है; और दूसरी, उसे लोगों को परमेश्वर की व्यवस्था, परमेश्वर के मार्ग सिखाने हैं।


इसलिए प्रभु की मेज़ में भाग लेने की तैयारी करते समय, उसमें सम्मिलित होने वाले प्रत्येक जन को अपनी तथा अपने मसीही जीवन की जाँच इन बातों के लिए कर लेनी चाहिए - प्रभु यीशु का शिष्य होने के नाते, क्या मैं उस ओहदे और विशेषाधिकार को याद रखता हूँ, उसका ध्यान रखता हूँ जो प्रभु परमेश्वर ने मुझे प्रदान किया है? उसके द्वारा प्रदान किए गए इस ओहदे और विशेषाधिकार के साथ जुड़ी हुई जिम्मेदारियों का क्या मैं निर्वाह करता हूँ? क्या मैं मसीह के राजदूत, परमेश्वर के याजक, उच्च ओहदा पाए हुए लोग के समान कार्य कर रहा हूँ जिससे कि मेरे कारण लोग परमेश्वर की महिमा करें?


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • ज़कर्याह 13-14          

  • प्रकाशितवाक्य 21     


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English Translation


The Lord’s Table - A Remembrance for Honoring God Given Status & Privileges  

    

We are seeing the events immediately preceding the Lord’s establishing the Holy Communion from the Passover, using the elements of the Passover, from John 13. In the last article we saw from verses 18-19 the place in Lord Jesus’s life of going by the Word of God; and how the Lord’s Table should remind those partaking in it to emulate the Lord for this characteristic. In John 13:19, the Lord shifts the focus of conversation to something related to the future activities of the disciples. As yet, here in John 13, in the Lord’s conversation with the disciples related to the Passover there had been no allusion to the future ministry of the disciples. But talking of the possible future events, in verse 19, not only does the Lord reassure the disciples that those events will only reaffirm His claims about Himself, but also reassures them of their status and blessings. The Lord knew that they will need to keep them in mind in the days to come, when they step out into the world to preach the gospel.


Here, in John 13:20, the Lord is not saying anything new to the disciples. He had already said the same to them when He sent them out the first time for ministry (Matthew 10:40-42). He had reminded them of this divine authority and backing that they had as His disciples, during His earthly ministry as well (Mark 9:37; Luke 10:16; John 12:44-45). Now, just before His being caught and taken for death by crucifixion, He again reminds them of it. The Lord’s repeatedly reminding the disciples of this unique authority and privilege is an indicator of its importance in their lives, and the necessity of the disciples of the Lord always bearing it in mind, when working for the Lord. They should not think of themselves as being sent on a dangerous mission without any authority or backing; instead, they had the highest possible backing, and they had the authorization to fulfill their mission from the highest possible authority of the universe - God Himself. Therefore, they did not have to fear men or subject themselves to man-made regulations when living as the people of God, the disciples of the Lord Jesus. But privileges, status, and authority always come with responsibilities. Right in the initial stage of His earthly ministry, in His Sermon on the Mount, the Lord had made clear to His disciples, what was expected of them. One of the things they had to do was to serve as “salt of the earth” and “light of the world” so that through them the people of the world would glorify our Heavenly Father (Matthew 5:13-16).


The Apostle Paul, through the Holy Spirit reminds the Christian Believers that he and the Believers, all are “Ambassadors for Christ” (2 Corinthians 5:20), to speak on behalf of the Lord God to the people of the world. The Apostle John wrote “He who says he abides in Him ought himself also to walk just as He walked” (1 John 2:6). The Apostle Peter reminded his readers that God had given them a highly exalted status, “But you are a chosen generation, a royal priesthood, a holy nation, His own special people, that you may proclaim the praises of Him who called you out of darkness into His marvelous light” (1Peter 2:9); they could not take it lightly, but in accordance with that status and authority, they had to “...proclaim the praises of Him who called you out of darkness into His marvelous light.” As Peter has said here, and John says in Revelation 1:6, every Born-Again Christian Believer, i.e., every disciple of the Lord Jesus, in God’s eyes, is a priest for God. A priest, as the messenger of God, has two functions to fulfill “For the lips of a priest should keep knowledge, And people should seek the law from his mouth; For he is the messenger of the Lord of hosts” (Malachi 2:7); firstly he has to “keep knowledge”, i.e., guard or protect knowledge of God and His Word; and secondly, he should teach God’s law, God’s ways to the people.


Therefore, when preparing to partake of the Lord’s Table, every participant should examine himself, his Christian life and living for these things - as a disciple of the Lord Jesus, do I bear in mind the unique privilege and authority given to me by the Lord God? Do I fulfill God’s expectations from me in response to the privilege and authority He has bestowed upon me? Am I serving as God’s ambassador, as His priest, as people to whom He has accorded an exalted status so that they may glorify Him?


If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Zechariah 13-14

  • Revelation 21



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गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

प्रभु भोज – प्रभु यीशु द्वारा स्थापित (5) / The Holy Communion - Established by the Lord Jesus (5)

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प्रभु की मेज़ - परमेश्वर के वचन को सही समय और स्थान देने की यादगारी

 

पिछले लेख में हमने यूहन्ना 13 से देखा था कि प्रभु यीशु ने पहले करके दिखाया और उसके बाद शिष्यों को दीनता और सेवा - यदि आवश्यक हो तो औरों के पाँव भी धोने का पाठ पढ़ाया; अर्थात पहले अपने जीवन में उसे करना उसके बाद किसी से कहना और सिखाना। प्रभु ने इस बात के अंत में कहा, “तुम तो ये बातें जानते हो, और यदि उन पर चलो, तो धन्य हो” (यूहन्ना 13:17)। दूसरे शब्दों में, शिष्य का धन्य होना उसकी परमेश्वर के वचन तथा प्रभु की शिक्षाओं की जानकारी पर निर्भर नहीं है, परंतु प्रभु के उदाहरणों और निर्देशों का पालन करने के द्वारा है। इस बात को बाद में प्रभु के भाई याकूब ने भी अपनी पत्री में कहा तथा इसकी पुष्टि की (याकूब 1:22-25)। जब हम यूहन्ना 13 को पढ़ते हैं, तब यह प्रकट है कि जब प्रभु ने शिष्यों के पाँव धोए, तब उसने यहूदा इस्करियोती के पाँव भी धोए। क्योंकि प्रभु यीशु यहूदा की वास्तविकता को जानते थे, कुछ ही समय के बाद उसे “विनाश का पुत्र” कहकर संबोधित करने वाले थे (यूहन्ना 17:12), इसलिए स्वाभाविक है कि यूहन्ना 13:17 की प्रतिज्ञा यहूदा के लिए नहीं थी। इसीलिए, प्रभु ने उसे तुरन्त ही स्पष्ट भी कर दिया (यूहन्ना 13:18-19)। प्रभु को अंदेशा था कि बाद में जब शिष्य जो कुछ हुआ उस पर विचार और मनन करेंगे, तब अवश्य ही इस बात पर सोचेंगे कि क्या प्रभु को यहूदा की वास्तविकता का पता था अथवा नहीं? और यदि पता था, तो फिर प्रभु ने उसे क्यों चुना और उसे उनके साथ प्रेरित ठहराया (देखिए मरकुस 3:13-19 तथा लूका 6:13)? शैतान इस बात को शिष्यों के मनों में संदेह उत्पन्न करने के लिए प्रयोग कर सकता था कि क्या यीशु वास्तव में प्रभु और परमेश्वर है? यह न केवल उन तत्कालीन शिष्यों के लिए था, वरन उनके लिए भी जो आने वाले दिनों और समयों में उसके शिष्य बनेंगे।

 

प्रभु यीशु ने इस बात को चार बातों को कहने के द्वारा स्पष्ट किया (तीन पद 18 में और एक पद 19 में): पहली, वह सभी शिष्यों के आशीषित होने की बात नहीं कह रहा था। दूसरी, जिन्हें उसने चुना था, वह उन्हें जानता था और उनमें यहूदा का सम्मिलित होना किसी धोखे में आकर या अनजाने में किया गया कार्य नहीं था, किन्तु एक उद्देश्य के साथ किया गया था। तीसरी, यहूदा को पवित्र शास्त्र की बात को पूरा करने के लिए चुना गया था, भजन 41:9 की भविष्यवाणी को पूरा करने के लिए। चौथी, बाद में जब वे शिष्य इन बातों पर विचार और मनन करेंगे, तो ये सभी बातें प्रभु के दावों की पुष्टि करेंगे, कि वो कौन है; उन शिष्यों को आश्वस्त करेंगी कि प्रभु के पीछे चलने का निर्णय करके उन्होंने कुछ गलत नहीं किया। इस प्रकार से प्रभु ने पहले से ही शैतान द्वारा इन बातों और घटनाओं के दुरुपयोग करने और तत्कालीन तथा भावी शिष्यों को बहकाने की संभावना को समाप्त कर दिया।


पवित्र शास्त्र की बातों तथा उसके विषय की गई भविष्यवाणियों को पूरा करना प्रभु यीशु के पृथ्वी के जीवन और सेवकाई का एक बहुत महत्वपूर्ण भाग थे। पृथ्वी पर आते समय प्रभु ने परमेश्वर पिता से कहा था कि वह पवित्र शास्त्र की बातों और परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए आया है (इब्रानियों 10:5-7)। अपने शिष्यों से उसने कहा था कि उसके लिए परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना भोजन के समान है (यूहन्ना 4:34)। क्योंकि उसने सबत के दिन चंगा किया था, इसलिए उसका विरोध कर रहे और उसे जान से मार डालना चाह रहे यहूदियों से प्रभु ने कहा कि वह पृथ्वी पर केवल परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए ही आया है (यूहन्ना 5:30; पूरा खंड यूहन्ना 5:17-47 पढ़िए)। उसने क्रूस पर अपने प्राण तब ही त्यागे जब उसने यह सुनिश्चित कर लिया कि जो कुछ उसके बारे में लिखा गया था, वह सभी पूरा हो चुका है (यूहन्ना 19:28-30)। इसीलिए, पौलुस, पवित्र आत्मा के द्वारा, “सुसमाचार” की परिभाषा देते हुए 1 कुरिन्थियों 15:1-4 में, दो बार, बल देकर वाक्यांश “पवित्र शास्त्र के अनुसार” का प्रयोग करता है। प्रभु यीशु के लिए परमेश्वर के वचन के अनुसार जीना और उसे पूरा करना सर्वोच्च प्राथमिकता की बात थी। यही उसके जीवन और सेवकाई का आधार था।

 

यह हम नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों, प्रभु यीशु के शिष्यों, के समक्ष अपने जीवनों को जाँचने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात को रखता है - हमारे अपने जीवन में परमेश्वर के वचन का क्या स्थान है? हम परमेश्वर के वचन के साथ कितना समय और प्रयास लगाते हैं? हम परमेश्वर के वचन को औरों तक कितना पहुँचाते हैं? लेकिन साथ ही हमें प्रभु द्वारा यूहन्ना 13:7 में कही गई, तथा बाद में याकूब द्वारा दोहराई गई बात का भी ध्यान रखना है - वे नहीं जो परमेश्वर के वचन को जानते हैं, परंतु जो उसका पालन करते, उसका अनुसरण करते हैं, वे ही धन्य हैं। प्रभु की मेज़, प्रभु के जीवन को, तथा विशेषकर क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़वाए जाने से पहले उनके जीवन की इन अंतिम घटनाओं, निर्देशों, और वार्तालापों को याद करने के दृष्टिकोण से, मसीही जीवन और सेवकाई के बारे में हमें इस बहुत महत्वपूर्ण बात को याद दिलाती है; और परमेश्वर के वचन के हमारे जीवनों में वास्तविक स्थान से संबंधित सभी गलतियों और कमियों को समझने तथा सुधारने का अवसर हमारे सामने रखती है।

  

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • ज़कर्याह 9-12          

  • प्रकाशितवाक्य 20     



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English Translation


The Lord’s Table - A Remembrance for Giving Proper Time & Place to God’s Word  

    

In the previous article we had seen from John 13 that the Lord Jesus first demonstrated and then taught His disciples humility and serving others, even washing other’s feet if necessary, i.e., first practiced or demonstrated in His life, and then taught it. The Lord concluded by saying that “If you know these things, blessed are you if you do them” (John 13:17). In other words, it is not the disciple’s knowledge about the Word of God and Lord’s teachings, but obeying the Lord’s examples and instructions that makes him blessed. This was later affirmed by the Lord’s brother James in his Epistle, in James 1:22-25. As we read John 13, it is apparent that when the Lord washed the disciple’s feet, He washed the feet of Judas Iscariot as well. Since the Lord Jesus knew the reality of Judas, whom He addresses as “son of perdition” sometime later (John 17:12), it is obvious that the Lord’s promise of John 13:17 would not be applicable to Judas. Therefore, the Lord immediately clarifies about it (John 13:18-19). He had anticipated that later on as the disciples would think over all that happened, they would wonder whether or not the Lord knew about Judas; and if He did, then why did He allow him to be with them as an Apostle, giving him all the powers and abilities as He did to the others (see Mark 3:13-19 and Luke 6:13). Satan could use this to create doubts in the disciple’s hearts, about Jesus being Lord and God. This would be true not only for those disciples, but also for those who would believe on Him and become His disciples in the days and times to come.


The Lord Jesus clarifies by saying four things (three in verse 18 and one in verse 19): firstly, He was not speaking about all the disciples being blessed. Secondly, He knew the ones He had chosen and Judas’s inclusion with them was not inadvertent or accidental, it was deliberate, it was with a purpose. Thirdly, Judas was chosen to fulfill the Scriptures, the prophecy of Psalm 41:9. Fourthly, later on, as they ponder over these things, the happenings will serve to affirm His claim of being who He said He is; will assure them that they have not made any mistake in following Him. Thereby He nullified the possibilities of Satan misusing these events against Him, to misguide the disciples, those and the future ones.


Fulfilling the Scriptures and the prophecies about Him was an integral and very important part of the Lord’s earthly ministry. At the time of His coming to earth, the Lord had said to God the Father that He had come to earth to fulfill the Scriptures and do the will of God (Hebrews 10:5-7). To His disciples, He had likened His doing God’s will as His food (John 4:34). He said to the Jews opposing Him and wanting to kill Him for healing on a sabbath, that He was on earth to do God’s will (John 5:30; read 5:17-47). He only gave up His Spirit, after making sure that all things written about Him had been fulfilled (John 19:28-30). Therefore, Paul, through the Holy Spirit, in defining what the “Gospel” is, in 1 Corinthians 15:1-4, twice, pointedly, uses the term “according to the Scriptures.” Living by and fulfilling the Word of God was of paramount importance for the Lord Jesus. It was the very basis of His life and ministry.

 

This places before us, the Born-Again Christian Believers, the disciples of the Lord Jesus, a very important point to examine our lives - what place does God’s Word have in our lives? How much time and effort do we spend with God’s Word? How much do we spread the Word of God? But we should also remember what the Lord said in John 13:17, and James affirmed later - not those who hear and know God’s Word, but those who do it, those who obey and follow it - they are blessed. The Lord’s Table, as a remembrance of the life of the Lord and especially the remembrance of the last events and instructions and conversation of the Lord, before His being caught and taken for crucifixion, should make us ponder over this very important aspect of Christian living and ministry, and we should seriously endeavor to correct our deficiencies about the place of the Word of God in our lives.


If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Zechariah 9-12

  • Revelation 20



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