परमेश्वर का भण्डारी होना – 3
पिछले लेख में हमने दाऊद द्वारा सुलैमान को दिए गए निर्देशों, तथा पौलुस द्वारा दिए गए अपनी ही सेवकाई के उदाहरण से देखा था कि परमेश्वर का भण्डारी होना कुछ ही लोगों के लिए आरक्षित नहीं किया गया है, न ही यह किसी के चुनाव के द्वारा है, और न ही किसी के इस ज़िम्मेदारी को स्वीकार करने को पसंद अथवा नापसंद करने के आधार पर है। इस प्रकार से भण्डारी होना परमेश्वर का जन होने, मसीही विश्वासी होने के साथ ही जुड़ा हुआ है, उसका अभिन्न अंग है। प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर के द्वारा कोई न कोई कार्य, कोई न कोई ज़िम्मेदारी दी गई है (इफिसियों 2:10); और जिस किसी को परमेश्वर ने जो कुछ भी दिया है, वह उसका भण्डारी है।
लूका 12:35-44 में एक दृष्टान्त के द्वारा प्रभु यीशु मसीह ने अपने शिष्यों को सिखाया कि उन्हें सदा उसके आगमन के लिए, जो अनपेक्षित और कभी भी हो सकता है, तत्पर और तैयार रहना चाहिए। इस दृष्टान्त में, स्वामी ने जिन सेवकों को तैयार और उसकी बाट जोहते हुए पाया, उन्हें उसके द्वारा आदर और पुरस्कार मिला। और फिर प्रभु ने इस दृष्टान्त के परिदृश्य को स्वयं पर लागू करते हुए दिखाया कि स्वामी वह ही है। जब पतरस ने और स्पष्टीकरण के लिए प्रश्न किया, “हे प्रभु, क्या यह दृष्टान्त तू हम ही से या सब से कहता है?” (लूका 12:41), तब प्रभु ने स्पष्ट कर दिया कि यह स्वामी के सभी सेवकों के लिए है (पद 43); अर्थात, वे सभी जो परमेश्वर के घराने के लोग हैं, जो परमेश्वर के जन बन गए हैं, वे उन बातों के लिए जो उन्हें परमेश्वर से मिली हैं, उन्हें सौंपी गई हैं, परमेश्वर के भण्डारी हैं, तथा उन्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए वरदानों और योग्यताओं के द्वारा प्रभु के लिए कार्य करना है। परमेश्वर पिता की उन से यह अपेक्षा है कि वे उसके योग्य भण्डारी बन कर ज़िम्मेदारी और ईमानदारी से कार्य करेंगे; और जो ऐसा करेंगे, वे बहुतायत से इनाम भी पाएँगे (लूका 12:42, 44)।
अब यहाँ पर लूका 12:42 में ध्यान कीजिए कि प्रभु यीशु यह भी स्पष्ट करते हैं कि जिस सेवक को ज़िम्मेदार ठहराया गया था, उससे क्या अपेक्षा रखी गई थी – उसे स्वामी के अन्य सेवकों को समय पर और नियमित उनका भोजन देते रहना था, कि वे भली-भांति पोषित और स्वस्थ रहें, उन्हें किसी बात की कमी न हो, जिससे कि वे स्वामी के लिए उचित रीति से कार्य करते रहें। इस बात पर पौलुस द्वारा इफिसियों की कलीसिया के अगुवों से कही गई बात के सन्दर्भ में विचार कीजिए। जब पौलुस उन से अपनी अंतिम विदाई ले रहा था, यह जानते हुए कि वे अब फिर कभी इस पृथ्वी पर नहीं मिलेंगे (प्रेरितों 20:17-38), पौलुस उन से उनके मध्य उसके द्वारा की गई अपनी सेवकाई के बारे में बात करता है, उन्हें कलीसिया के प्रति उनके दायित्वों को स्मरण दिलाता है, आने वाले दिनों के खतरों को बताता है, कि शैतान किस प्रकार से कलीसिया को हानि पहुँचाने, नष्ट करने के प्रयास करेगा। अपनी सेवकाई तथा लूका 12:42 के हमारे सन्दर्भ में पौलुस दो बार उन से प्रेरितों 20:20, 27 में कहता है कि उसने उन से उनके लाभ की किसी बात को रोक कर नहीं रखा और परमेश्वर की सारी मनसा को उन्हें पूरी रीति से बताया। यद्यपि पौलुस की मुख्य सेवकाई अन्य-जातियों में सुसमाचार प्रचार की थी (रोमियों 15:16), लेकिन क्योंकि वह यह भी जानता था कि परमेश्वर ने उसे अपने भेदो का भण्डारी भी बनाया है, इसलिए उसे उन भेदो को भी विश्वासियों को बताना था (1 कुरिन्थियों 4:1-2)। और इसीलिए उसने किसी भी बात को छिपा कर या रोक कर नहीं रखा; अपनी सेवकाई में लूका 12:42 को पूरा किया। पौलुस का अनुसरण करने में (1 कुरिन्थियों 11:1), प्रत्येक मसीही विश्वासी को भी परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए वरदानों और योग्यताओं का उपयोग कलीसिया की सेवा तथा सभी की भलाई के लिए करना है (1 कुरिन्थियों 12:7)।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Being God’s Steward - 3
In the previous article we have seen from David’s instructions to Solomon, as well as from Paul speaking from his own example, that being a steward of God is not reserved for some, neither is it a matter of one’s choice, nor of liking or not liking taking up this responsibility. It is very much an integral part and parcel of being God’s person, of being a Christian Believer. Every Christian Believer has been given some work, some responsibility or the other (Ephesians 2:10); and everyone is a steward of whatever has been given to them by God.
In Luke 12:35-44, the Lord Jesus, through a parable, told His disciples that they should always remain ready and prepared for His coming again, which could happen unexpectedly, at any time. In the parable, those whom the master, on his return, found ready and watchful, were honored and rewarded by him; and then Lord Jesus applied the scenario in the parable to Himself, with Him being the master. When Peter, seeking further clarification, asks, "Lord, do You speak this parable only to us, or to all people?" (Luke 12:41); and the Lord Jesus clarified it is for all servants of the master (vs 43), i.e., everyone has to be busy and involved in their respective responsibilities. Therefore, all those who are part of God’s household, have become the people of God, they are also God’s stewards for whatever God has given to them, entrusted them with, and have to be working for the Lord with their God given gifts and talents. God the Father expects that they will function as His worthy stewards, responsibly and sincerely; those who do so, will be richly rewarded (Luke 12:42, 44).
Now note here in Luke 12:42, the Lord Jesus specifies what was expected of the steward made responsible – he was to give the other servants of the master their food, or due nourishment, regularly and timely, to ensure that they remained healthy and well nourished, were not deprived of anything, and therefore, were able to do their work for the master properly. Ponder over this along with what Paul says to the Elders of the Ephesian Church, when he is saying his final good bye to them, knowing they will never meet again on this earth (Acts 20:17-38). Paul speaks to them about his ministry amongst them, reminds them of their responsibilities towards the Church, warns them of the dangers in the days to come, of how Satan will try to disrupt and destroy the Church. Regarding his ministry, in our context of Luke 12:42, Paul twice says to them, in Acts 20:20, 27, that he kept back nothing that was helpful for them and declared to them the whole counsel of God. Although Paul’s primary ministry was preaching the gospel amongst the Gentiles (Romans 15:16), but since he also knew that he had also been made a steward of the mysteries by God, he had to be faithful in sharing those mysteries with the Believers as well (1 Corinthians 4:1-2), and so, he kept nothing back, fulfilling Luke 12:42 for his ministry and stewardship. Emulating Paul (1 Corinthians 11:1), every Christian Believer, as a steward of whatever gifts and talents God has given him, has to use it to serve the Church for the profit of all (1 Corinthians 12:7).
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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