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शनिवार, 13 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 139 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 15

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कलीसिया का निर्माण – 6 – पतरस पर? – 6

 

क्योंकि परमेश्वर ने हम नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों को अपनी कलीसिया के अंग बनाया है तथा हमें अपनी सन्तानों की सहभागिता में रखा है, इसलिए परमेश्वर के प्रावधानों के योग्य भण्डारी होने के लिए हम प्रभु की कलीसिया तथा उसकी सन्तानों के साथ सहभागिता रखने के बारे में सीख रहे हैं। प्रभु यीशु ने कहा है कि वही अपनी कलीसिया को बनाएगा, न कि कोई मनुष्य अथवा मानवीय संस्था (मत्ती 16:18)। इसी पद से शैतान ने एक गलत शिक्षा भी डाल दी है, जो ईसाई या मसीही समाज में काफी मान्य एवं प्रचलित है, कि प्रभु ने अपनी कलीसिया पतरस पर बनाई है। पिछले लेखों में इस पद का विश्लेषण करने, तथा पवित्र शास्त्र में से अन्य संबंधित खण्डों को देखने के द्वारा हमने इस धारणा की त्रुटि को समझा है। पिछले लेख से हमने यह देखना आरम्भ किया है कि एक व्यक्ति के रूप में, क्यों पतरस कभी भी प्रभु की कलीसिया का आधार नहीं हो सकता था। आज, तथा अगले लेख में हम बाइबल में पतरस के चरित्र से संबंधित दी गई कुछ बातों को देखेंगे, जो यह दिखाती है कि क्यों वह कभी भी प्रभु की कलीसिया के लिए अनिवार्य स्थिर नींव नहीं हो सकता था।

प्रभु के पुनरुत्थान और स्वर्गारोहण के बाद की बातों को देखने से हमें, कई परिवर्तनों के बावजूद, पतरस के व्यवहार में फिर भी कुछ खामियाँ दिखाई देती हैं, जो उसे अस्थिर और डांवांडोल तथा उस पर कलीसिया के स्थापित किए जाने के लिए अनुपयुक्त प्रकट करती हैं। ये बातें हैं:

  • पतरस उतावली से कार्य कर देता था, अधीर था; जिससे उसके साथ रहने वाले भी उसकी बातों में आकर बहक जाते थे। इसके दो उदाहरण हैं, पहला, यूहन्ना 21:2-3 पद में, जब वह वापस अपने पुराने काम, मछली पकड़ने की ओर लौट गया, और उसके साथ छः और लोग भी चले गए, किन्तु सभी असफल रहे। दूसरा, प्रेरितों 1:15-26 में, बिना प्रभु के ऐसे किसी निर्देश के, और बिना प्रभु की आज्ञा के, प्रभु से पूछे बिना, उसने यह निर्णय लिया कि यहूदा इस्करियोती के स्थान पर किसी और को नियुक्त किया जाए; और सभी लोग उसकी बातों में भी आ गए, यह कर दिया। किन्तु ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि उनके द्वारा नियुक्त व्यक्ति को वचन में कोई स्वीकृति मिली हो। बारहवें प्रेरित का यह पद बाद में प्रभु ने पौलुस को दिया। यह विश्लेषण एक पृथक विषय है, जिसे हम यहाँ पर नहीं देख पाएंगे। 

  • पतरस का ध्यान, कम से कम उस आरंभिक समय में, प्रभु द्वारा दिए जा रहे निर्देशों पर कम, औरों के साथ अपनी तुलना करने में अधिक रहता था; जो आरंभिक कलीसिया के लिए अत्यावश्यक स्थिरता और निष्पक्षता के व्यवहार के अनुरूप नहीं था। इसका उदाहरण भी हम यूहन्ना 21:18-22 में देखते हैं; प्रभु पतरस को उसकी आने वाली सेवकाई और जिम्मेदारियों के विषय सिखाना चाह रहा है, और पतरस का ध्यान प्रभु की बात पर नहीं वरन अपने साथी यूहन्ना के भविष्य पर लगा है। जिसके विषय फिर प्रभु को उसे एक डाँट लगानी पड़ती है (पद 22)। 

  • पतरस अभी स्वर्गीय दर्शनों को समझने और उनके अनुसार कार्य करने के लिए अपरिपक्व था। प्रेरितों 10:10-16 में प्रभु उसे दर्शन के द्वारा संसार के सभी लोगों के पास जाकर सुसमाचार प्रचार करने की बात दिखा और बता रहा है, जो प्रभु द्वारा शिष्यों से प्रेरितों 1:8 में कही बात के अनुरूप था; और वह उसे केवल अपनी शारीरिक स्थिति, उसके उस समय भूखे होने के अनुसार समझ कर, और अपने आप को व्यवस्था के अनुसार धर्मी बता कर, प्रभु की बात को मानने से इनकार कर रहा है। और प्रेरितों 10:17 में लिखा है कि जब कुरनेलियुस के घर से लोग उसके पास पहुँचे, तब भी वह असमंजस में ही पड़ा हुआ था। यदि उसकी आत्मिक परिपक्वता उचित स्तर की होती तो समझ जाता कि जो दर्शन उसने देखा और जहाँ जाने के लिए प्रभु ने बुलावा भेजा है, वे एक ही बात हैं, जिसके लिए प्रभु उसे उस दर्शन के द्वारा आगाह कर रहा था (प्रेरितों 10:19-20)।

    अगले लेख में हम बाइबल में दी गई पतरस की कुछ अन्य बातों को देखेंगे जो उसे कलीसिया का आधार होने के अयोग्य ठहराती हैं।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Building the Church – 6 – On Peter? – 6

 

    Since God has made us, the Born-Again Christian Believers members of His Church and has placed us in the fellowship of His other children, therefore to serve worthily as stewards of God given provisions, we are learning about the Lord’s Church and about fellowshipping with His children. The Lord Jesus has said that He, not any person or human organization, will build His Church (Matthew 16:18). From this same verse, Satan has brought in a false teaching, which unfortunately is quite popular in Christendom, that the Lord has built His Church on Peter. In the preceding articles, having analyzed this verse, and having studied other relevant Scriptures, we have seen the fallacy of this notion. From the last article we have started to see how Peter, as a person, could never have been the foundation of the Lord’s Church. Today and in the next article, we will see some of Peter’s character traits from the Bible, that show why he could never provide the firm foundation required for the Lord’s Church.

    After the resurrection and ascension of the Lord Jesus, despite the many changes, we still see some short-comings and wrongs in the Christian life and behavior of Peter, which clearly show him to be shaky and unworthy of being considered as the foundation of the Assembly or Church of the Lord Jesus Christ. These things in Peter’s life are:

  • Peter would act rashly, he was impatient; because of this, those with him would also do the same wrong things. We have two examples of this, first is in John 21:2-3, when he went back to his initial livelihood - fishing, and six others from the disciples of the Lord followed suit; but despite their toil and labor, they all remained unsuccessful. Second, in Acts 1:15-26, without any such instructions from the Lord, and without asking the Lord, without the permission or instructions of the Lord to do so, he decided to have someone appointed in the place of Judas Iscariot; and everyone gathered there fell for his logic and arguments, and did so. But there is no Scriptural affirmation that the person they chose and appointed “through God” was accepted by God to take that position. This place of being the twelfth Apostle was later given to Paul. This analysis is a separate topic which we will not be able to consider here.

  • Peter’s attention used to be more upon the others around him, comparing them with himself, than on what the Lord was saying to him, at least in the initial phase, before the Lord’s ascension. We see this from John 21:18-22, where the Lord is instructing him about his ministry and work in the days to come, but Peter’s attention is upon his colleague John and what was to happen to John. The Lord had to pull-up Peter (v. 22) to get him to pay attention to the Lord.

  • Peter was not mature enough to understand heavenly visions and work according to them; he would even refuse to do God’s bidding. We see in Acts 10:10-16 that the Lord is showing to him through a vision to go and preach the gospel to all people of the world, what the Lord had said to the disciples in Acts 1:8; but he is looking at and understanding the heavenly vision only from the perspective of his then physical condition, of being hungry and even refuses to accept the Lord’s instructions about it, citing his own contrived righteousness of following the Law. It is also written in Acts 10:17 that when people from the house of Cornelius reached him, he was still perplexed about it. If he had the spiritual maturity, he would have understood that the vision he saw, and the call he had received from the Lord through those people were about the same ministry, and the Lord was calling him for a purpose (Acts 10:19-20).

In the next article we will see some more things about Peter from the Bible that show his being unworthy of being the foundation of the Church.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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