व्यवस्था की उपयोगिता – 2
व्यवस्था की उपयोगिता के बारे में देखते हुए, पिछले लेख में हमने देखा था कि व्यवस्था प्रभु के आने तक, परमेश्वर के लोगों को उनके पाप की पहचान कराने और शिक्षा देने के लिए थी। अब, जब प्रभु यीशु ने आकर उद्धार के कार्य को पूरा कर दिया है, तो स्वतः ही व्यवस्था की सभी बातें पूरी होकर प्रभु के लोगों के द्वारा पालन करने से हटा ली गईं, और उस “शिक्षक” अर्थात व्यवस्था की उनके लिए आवश्यकता नहीं रही, “परन्तु जब विश्वास आ चुका, तो हम अब शिक्षक के आधीन न रहे” (गलातियों 3:25)। उस शिक्षक, व्यवस्था ने प्रभु के लोगों को पाप, उसके परिणाम, और परमेश्वर की धार्मिकता के मानकों के बारे में सिखा कर, परमेश्वर की उस धार्मिकता के सिद्ध स्वरूप प्रभु यीशु मसीह के हाथों में सौंप दिया है। अब जो कोई भी परमेश्वर की धार्मिकता को प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास के द्वारा, उपहार के समान, प्रभु के हाथों से स्वीकार करता है, वह परमेश्वर की संतान और उसका वारिस बन जाता है, “क्योंकि तुम सब उस विश्वास करने के द्वारा जो मसीह यीशु पर है, परमेश्वर की सन्तान हो” (गलातियों 3:26), और फिर प्रभु में “अब न कोई यहूदी रहा और न यूनानी; न कोई दास, न स्वतंत्र; न कोई नर, न नारी; क्योंकि तुम सब मसीह यीशु में एक हो” (गलातियों 3:28)।
इस प्रकार, हम गलातियों 3 अध्याय से समझते हैं कि व्यवस्था का उद्देश्य था प्रतिज्ञा किए हुए उद्धारकर्ता प्रभु के आने तक, प्रभु के लोगों को एक शिक्षक के समान संभाले रखना। उन्हें पाप और उसके परिणामों के प्रति सचेत रखना, और कर्मों के द्वारा नहीं वरन केवल विश्वास के द्वारा ही पाप का निवारण संभव होना सिखाना। क्योंकि लोगों ने व्यवस्था को उसकी सही परिभाषा के अनुसार नहीं, वरन पर्वों तथा रीतियों का मनाना, और भेंट और बलिदानों को चढ़ाना समझ लिया, इसलिए वे व्यवस्था के मूल उद्देश्य को भुलाकर, एक औपचारिकता के समान उसके पूरा करने के असंभव कार्य में भटक गए। व्यवस्था का जो उद्देश्य था, उन्हें पाप की पहचान करवाना, उस की बजाए व्यवस्था के द्वारा धर्मी ठहरने की गलती में शैतान द्वारा उलझा दिए गए।
आज भी यही गलती मसीही समाज में अधिकांश लोग करने में लगे हुए हैं। आज भी वो समझते हैं कि किसी परिवार विशेष में जन्म लेने के कारण, उनके चर्च, डिनॉमिनेशन, मत, समुदायों, आदि की रीतियों के निर्वाह के द्वारा, कुछ पर्वों, रीतियों, और अनुष्ठानों, जैसे कि बपतिस्मा, प्रभु-भोज, आदि में भाग लेने, उन के निर्वाह के कारण परमेश्वर उन्हें अपनी संतान बनाने, उन्हें स्वर्ग में अपने साथ रखना स्वीकार करने के लिए बाध्य हो जाएगा। वे भी अपनी ही बनाई हुई व्यवस्था की बातों में उलझ कर पश्चाताप और विश्वास द्वारा परमेश्वर की धार्मिकता को प्राप्त करने की सच्चाई को मानने से भटके हुए हैं। कोई इस बात पर ज़रा सी भी गंभीरता से विचार नहीं करता है कि जब परमेश्वर के द्वारा दी गई व्यवस्था लोगों को उद्धार नहीं दे सकी, तो फिर मनुष्यों द्वारा बनाई, और सिखाई जाने वाली भिन्न चर्च और डिनॉमिनेशंस की विभिन्न व्यवस्थाएं यह कैसे करने पाएंगी?
उद्धार, पापों की क्षमा, परमेश्वर की संतान बनना, और परमेश्वर को स्वीकार्य होकर उसके राज्य में स्थान पाना किसी भी व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन केवल पापों से पश्चाताप और प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करने, उसे समर्पित हो जाने के द्वारा है। अगले लेख में हम हमारे तीसरे प्रश्न, मसीही विश्वासियों के जीवनों में व्यवस्था की भूमिका के बारे में देखेंगे। अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अपने आप को किसी भी प्रकार की “व्यवस्था” - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - के पालन के द्वारा धर्मी बनाने के, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो ध्यान देकर समझ लीजिए कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट बताता है कि व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने के द्वारा ही आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य बन सकते हैं। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Utility of the Law – 2
In the previous article, considering the utility of the Law, we had seen that the Law was meant to make God’s people recognize sin and to be their teacher. Now, when the Lord Jesus has come and completed the work of salvation, all things of the Law were automatically fulfilled by Him, and then were removed from being necessary for being observed by the Lord's people; i.e., then onwards, that “teacher” was no longer required for them, “but when faith has come, we are no longer under a tutor" (Galatians 3:25). That teacher, the Law, having taught the Lord's people about sin, its consequences, accountability for sin, and the standards of God's righteousness, then handed us over to the perfect incarnation of God's righteousness, into the hands of the Lord Jesus Christ. Now whosoever accepts the righteousness of God, as a gift, from the hands of the Lord, by coming into faith in the Lord Jesus Christ, becomes a child of God and His heir, “For you are all sons of God through faith in Christ Jesus" (Galatians 3:26), and then in the Lord "There is neither Jew nor Greek, there is neither slave nor free, there is neither male nor female; for you are all one in Christ Jesus" (Galatians 3:28).
Thus, we understand from Galatians 3 that the purpose of the Law was to, as a teacher, safeguard the Lord's people until the Lord, the promised Savior, came. Keeping them conscious of sin and its consequences, and to teach them that their redemption from sin is possible not through any works but only through coming into faith in the Redeemer. Because people did not understand the Law according to its true definition, but misinterpreted it as a formality of regularly observing the feasts and rituals, and the offering of gifts and sacrifices, they lost sight of the true purpose of the Law, and got lost in the impossible task of fulfilling it. Instead of letting them recognize sin through the Law as had been intended, they were entangled by Satan in the mistake of trying to be justified by the Law.
Even today most people in Christendom remain entrapped in making the same mistake. Even today they assume that by virtue of being born in a particular religion or family, because of their observances of the customs set by their church, denominations, sects, and communities, etc., in the form of certain days and festivals, traditions and rituals, and by participating in sacraments such as baptism, Holy Communion, etc. they are safe, and God is under compulsion to accept them as His children, to accept them to be with Him in heaven. By engaging in the things of their own making, they too have strayed from the truth of receiving God's righteousness through repentance and faith. Sadly, no one gives the slightest thought to the fact that when the Law given by God could not save people, how can the different laws of different churches and denominations, created and taught by man, deliver them?
Salvation, forgiveness of sins, becoming a child of God, and being accepted into God's kingdom, is not through observance of any Law, but only by repenting of sins and accepting the Lord Jesus as Savior, surrendering to Him. In the next article, we'll look at our third question, the role of the law in the lives of Christians. For now, if you are a Christian, and are hoping to justify yourself by observing any sort of "law" — whether that of God, or of your religion, creed, community, or denomination — and are trying to make yourself acceptable to God by being ‘good’ through the works of the flesh; then pay heed and understand that God's Word clearly states that you become righteous and acceptable to God, not by keeping the Law, but only by following the God given path of repentance and submission to the Lord. Therefore, while you have the time and the opportunity, take the right decision, decide on the right path, and leave the useless and fruitless path.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.