पिछले लेख में हमने इफिसियों 4:5 पद के आधार पर देखा था कि वचन में स्पष्ट लिखा है कि बपतिस्मा एक ही है; एक से अधिक नहीं। इस बात में विरोधाभास और फिर असमंजस तब ही उठता है जब धारणा “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” को सही स्वीकार कर लिया जाए; अर्थात पवित्र आत्मा के कहे के अनुसार या पवित्र आत्मा की ओर से, पानी से दिए जाने वाले बपतिस्मे के अतिरिक्त एक अन्य बपतिस्मा देना स्वीकार किया जाए। और यह बाइबल की किसी भी बात के साथ मेल नहीं खाता है। किन्तु फिर भी, अपनी इस गलत धारणा को सही ठहराने के लिए यह गलत शिक्षा देने वाले लोग एक अन्य पद का दुरुपयोग करते हैं, उसकी गलत व्याख्या करके अपने तर्क को सही ठहराने का प्रयास करते हैं, क्योंकि वहाँ पर एक-वचन “बपतिस्मा” नहीं, वरन बहु-वचन “बपतिस्मे” लिखा हुआ है। आज हम इसी पद का विश्लेषण और व्याख्या करेंगे, और देखेंगे कि बाइबल की व्याख्या के मूल सिद्धांतों के आधार पर जब सही रीति से व्याख्या की जाती है तो यही सामने आता है कि परमेश्वर के वचन में कोई विरोधाभास, कोई त्रुटि या दोगलापन नहीं है; जबकि इन गलत शिक्षाओं को देने वाले लोगों की बातों के कारण परमेश्वर के वचन में विरोधाभास और गलतियाँ उत्पन्न होने लगती हैं।
बपतिस्मा या बपतिस्मे?
बपतिस्मा मसीही विश्वास की एक मूल शिक्षा है। इब्रानियों 6:1-3 में इन मूल शिक्षाओं को सीखने के बारे में लिखा गया है; इस खंड में इब्रानियों 6:2 में लिखा है “और बपतिस्मों और हाथ रखने, और मरे हुओं के जी उठने, और अन्तिम न्याय की शिक्षा रूपी नेव, फिर से न डालें।” ध्यान कीजिए, जैसा कि प्रमुख करके भी दिखाया गया है, बाइबल के पद में प्रयुक्त शब्द है “बपतिस्मों”, जो बहुवचन है, और एक से अधिक बपतिस्मे होने का स्पष्ट संकेत करता है; किन्तु यह बहुवचन प्रयोग बपतिस्मों से संबंधित शिक्षा रूपी नींव के लिए है, बपतिस्मा लिए या दिए जाने के संदर्भ में नहीं। इसी बहुवचन को आधार बनाकर, गलत धारणाओं और शिक्षाओं को देने वाले ये लोग, पानी से दिए गए बपतिस्मे के अतिरिक्त, पवित्र आत्मा का बपतिस्मा एक अन्य या पृथक बपतिस्मा होने को भी सही ठहराने का प्रयास करते हैं। किन्तु यदि इस पद का बाइबल की व्याख्या के मूल सिद्धांतों के अनुसार सही रीति से विश्लेषण किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि उनकी यह शिक्षा भी गलत है, अनुचित है, और सही बातों को सही रीति से प्रयोग करने के द्वारा नहीं है।
इस पद, इब्रानियों 6:2 को उसके संदर्भ में, अर्थात उसके साथ के पदों के साथ देखिए। साथ ही यह भी ध्यान रखिए कि बाइबल की प्रत्येक अन्य पुस्तक के समान, इब्रानियों को लिखी गई यह पत्री भी, अपने मूल स्वरूप में एक संपूर्ण लेख थी, अध्यायों और पदों में विभाजित नहीं थी। बाइबल की प्रत्येक पुस्तक के लेखों को, उनके अध्ययन, हवाला देने, और स्मरण करने में सहायता के लिए, अध्यायों और पदों में बहुत बाद में विभाजित किया गया। यह विभाजन कृत्रिम है, इसलिए कभी-कभी असमंजस भी उत्पन्न करता है। इब्रानियों 6:2 के संदर्भ में, उसकी बात से संबंधित, उससे पहले के पदों को देखिए, विशेषकर इब्रानियों 5:12 “समय के विचार से तो तुम्हें गुरु हो जाना चाहिए था, तौभी क्या यह आवश्यक है, कि कोई तुम्हें परमेश्वर के वचनों की आदि शिक्षा फिर से सिखाए ओर ऐसे हो गए हो, कि तुम्हें अन्न के बदले अब तक दूध ही चाहिए”; और 6:1 “इसलिये आओ मसीह की शिक्षा की आरम्भ की बातों को छोड़ कर, हम सिद्धता की ओर आगे बढ़ते जाएं, और मरे हुए कामों से मन फिराने, और परमेश्वर पर विश्वास करने” को। ये दोनों पद हमें इब्रानियों 6:2 का संदर्भ समझते हैं कि इस खंड में “आदि शिक्षा” या “मसीह की शिक्षा की आरंभिक बातों” की बात हो रही है, जैसे कि 6:2 में भी बपतिस्मों से संबंधित शिक्षा ही की बात लिखी गई है; अर्थात अन्य बातों के विषय की शिक्षाओं के साथ बपतिस्मे की शिक्षाओं की बात हो रही है। ध्यान कीजिए, इब्रानियों में, अन्य बातों के साथ, बपतिस्मा लेने या देने के बारे में नहीं, वरन उससे संबंधित शिक्षाओं की बात हो रही है।
बपतिस्मे की शिक्षाओं के आधार पर वचन में तीन प्रकार के बपतिस्मे दिए गए हैं - यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले का, मूसा का, और प्रभु यीशु तथा उसकी मृत्यु का:
प्रेरितों 18:25 “उसने प्रभु के मार्ग की शिक्षा पाई थी, और मन लगाकर यीशु के विषय में ठीक ठीक सुनाता, और सिखाता था, परन्तु वह केवल यूहन्ना के बपतिस्मा की बात जानता था।”
1 कुरिन्थियों 10:2 “और सब ने बादल में, और समुद्र में, मूसा का बपतिस्मा लिया।” - शिक्षा के दृष्टिकोण से, पुराने नियम में बपतिस्मे का यह उदाहरण इस्राएलियों का लाल सागर में जाना और ऊपर बादल द्वारा ढाँपा हुआ होना - उनका हर ओर से जल से ढँके हुए होना और फिर पार निकालना, यानि कि जल के अंदर जाना और बाहर आना था।
रोमियों 6:3 “क्या तुम नहीं जानते, कि हम जितनों ने मसीह यीशु का बपतिस्मा लिया तो उस की मृत्यु का बपतिस्मा लिया।”
किन्तु इन तीनों में बपतिस्मे का माध्यम एक ही है - पानी से बपतिस्मा देना, पानी में डुबकी या पानी के द्वारा चारों ओर से घेर दिए जाना। इसलिए बपतिस्मे से संबंधित शिक्षाओं के आधार पर एक से अधिक प्रकार के बपतिस्मे हुए; इसीलिए इब्रानियों 6:2, जो मसीह की मूल शिक्षाओं की बात कर रहा है, में बहुवचन “बपतिस्मों” का प्रयोग किया गया है। किन्तु इसका वचन की अन्य किसी भी बात के साथ कोई विरोधाभास नहीं है, क्योंकि तीनों ही रूप में एक ही माध्यम से और एक ही रीति से - पानी में डुबकी या पानी से घेरे जाने के द्वारा बपतिस्मा दिया गया। और इफिसियों 4:5 भी इसी एक बपतिस्मे की बात करता है। इफिसियों 4:5 व्यावहारिक बपतिस्मा लेने या देने की बात करता है, जबकि इब्रानियों 6:2 बपतिस्मे से संबंधित शिक्षाओं की बात करता है। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं, इनमें कोई विरोधाभास नहीं है, कोई गलती नहीं है। जो भी गलती है वह बात को उसके संदर्भ से बाहर लेकर एक गलत दृष्टिकोण के साथ उसका मेल बैठाने का प्रयास करने के कारण है।
इसलिए बपतिस्मा एक ही है, वह पानी से, उसमें डुबकी देने के द्वारा ही दिया गया है। बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” की धारणा का कोई आधार नहीं है, यह धारणा गलत है, अस्वीकार्य है। अगले लेख में हम बपतिस्मे से संबंधित एक अन्य असमंजस की बात, “आग से बपतिस्मा” के बारे में देखेंगे।
यदि आप मसीही हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप मनुष्यों की बनाई हुई रीतियों और प्रथाओं का नहीं, परमेश्वर के वचन का पालन करने वाले हों। क्योंकि अन्ततः आपका न्याय, मनुष्यों के द्वारा बनाई और धर्म-उपदेश करके सिखाई गई, मनुष्यों की बातों के आधार पर नहीं होगा। क्योंकि मनुष्यों द्वारा बनाए गए धर्मोपदेश न केवल व्यर्थ हैं (मत्ती 15:9) किन्तु हटा भी दिए जाएंगे (मत्ती 15:13)। सभी का न्याय प्रभु यीशु के द्वारा (प्रेरितों 17:30-31), उसके वचन की अटल और अपरिवर्तनीय बातों के आधार पर होगा (यूहन्ना 12:48)। इसलिए आपके लिए मनुष्यों को नहीं परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला बनना अनिवार्य है, नहीं तो अनन्त जीवन में अनंतकाल की हानि उठानी पड़ेगी। अपने जीवन में गंभीरता से झांक कर देख लें, और जिन भी बातों को सही करना है, उन्हें अभी समय और अवसर रहते हुए सही कर लें; कहीं कल या “बाद में” पर टाल देने से बहुत विलंब और हानि न हो जाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
1 शमूएल 30-31
लूका 13:23-35
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In the previous article, based on Ephesians 4:5 we saw that the Scriptures clearly state that there is only one baptism; not more. The confusion and contradiction about this arises only when the concept of "baptism of the Holy Spirit" is accepted as correct; i.e., a baptism other than water baptism is also accepted, as an extra one allegedly commanded by the Holy Spirit or by the authority of the Holy Spirit. And this concept doesn't match up with anything in the Bible. But still, to justify this misconception, people who give this wrong teaching, misuse another verse, and try to justify their argument by misinterpreting it, because there, instead of the singular "baptism", the plural word "baptisms" is written. Today we will analyze and interpret this verse, and see that there is no contradiction, no error or duplicity in the Word of God, when it is properly interpreted on the basis of the basic principles of Biblical interpretation. Whereas due to the teachings of the people who believe and propagate these wrong concepts, contradictions, apparent errors and mistakes are brought into the Word of God.
Baptism or Baptisms?
Baptism is a basic doctrine of the Christian faith. The necessity of a Christian Believer learning about these fundamental doctrines is stated in Hebrews 6:1-3. In this section, Hebrews 6:2 says "of the doctrine of baptisms, of laying on of hands, of resurrection of the dead, and of eternal judgment." Note, as also highlighted, the word used in the Biblical verse is "baptisms," which is plural, and clearly indicates more than one baptism; But this plural usage refers to the foundational learning of doctrine concerning baptisms. It is not in the context of being baptized. Based on this plural usage, these people propagating misconceptions and wrong teachings, try to justify the baptism of the Holy Spirit as a separate or different baptism, required in addition to water baptism. But if this verse is properly analyzed according to the basic tenets of Biblical interpretation, it becomes clear that this teaching is also wrong, inappropriate, and is not based upon using the right principles, in the right way.
Look at this verse, Hebrews 6:2 in its context, i.e., along with the verses preceding it. Also note that this Epistle to the Hebrews, like every other book in the Bible, in its original form, was a complete text, not divided into chapters and verses. The writings of each book of the Bible were later divided into chapters and verses to aid in their study, citation, and memorization. This division is artificial, hence sometimes causing confusion. Bearing this point in mind, in the context of Hebrews 6:2, look at the verses before it, especially Hebrews 5:12 “For though by this time you ought to be teachers, you need someone to teach you again the first principles of the oracles of God; and you have come to need milk and not solid food.” and Hebrews 6:1 "Therefore, leaving the discussion of the elementary principles of Christ, let us go on to perfection, not laying again the foundation of repentance from dead works and of faith toward God." Both of these verses help us understand the context of Hebrews 6:2, we learn that this section is referring to the "basic principles" or "the elementary principles of Christ," just as 6:2 also refers to baptismal doctrines. In other words, in this verse the teachings related to baptism, along with the teachings related to other matters written there, are the subject. Notice that these verses from Hebrews, are stating the fundamental doctrinal topics that every Christian Believer ought to know; and baptism is one of those topics. But they are not referring to the taking or giving of baptism, but only to the doctrinal teachings related to it.
On the basis of doctrinal teachings of baptism, there are three types of baptism mentioned in the Scriptures - baptism of John the Baptist, of Moses, and of the Lord Jesus and his death:
Acts 18:25 "This man had been instructed in the way of the Lord; and being fervent in spirit, he spoke and taught accurately the things of the Lord, though he knew only the baptism of John."
1 Corinthians 10:2 "all were baptized into Moses in the cloud and in the sea" - From a learning point of view, this example of baptism in the Old Testament is the Israelites going into the Red Sea and being covered by a cloud on top - their being covered with water on all sides and then passing through, that is, going in and coming out of the water.
Romans 6:3 “Or do you not know that as many of us as were baptized into Christ Jesus were baptized into His death?"
But the means of baptism is the same in all three - baptizing with water, immersing in water or being surrounded by water. So, there is more than one type of baptism in context of the doctrinal teachings about baptism; that's why the plural "baptisms" is used in Hebrews 6:2, referring to the elementary principles of Christ. But this causes no contradiction with anything else in the Scriptures, for all three are baptisms by the same means and in the same manner—by immersion in water or by being covered with water. And Ephesians 4:5 too speaks of this same baptism. Ephesians 4:5 speaks of practical taking or giving of baptism; while Hebrews 6:2 speaks of doctrinal teachings related to baptism. Both complement each other, there is no contradiction, no mistake. Whatever the mistake is, it is because of trying to reconcile a wrong point of view with Biblical truth, and that too by taking it out of context to interpret and understand it.
Therefore, there is only one baptism, it is given by water, by immersion in it. According to the teachings of the Bible, the concept of "baptism of the Holy Spirit" has no basis, this concept is patently wrong, and absolutely unacceptable. In the next article, we will consider another confusion regarding baptism, “baptism by fire.”
If you are a Christian, it is essential for you to follow the Word of God, not the customs and traditions created by men. Because in the end, you will neither be judged by any man, nor on the basis of any man-made doctrines and teachings, all of which not only are vain (Matthew 15:9) but will also be taken away (Matthew 15:13). But everyone will be judged by the Lord Jesus (Acts 17:30-31), and only on the basis of His unalterable and firmly established Word (John 12:48). Therefore, it is necessary for you to be pleasing to God, instead of striving to please men; else you will have to suffer the loss of eternal life and eternity. Take a serious account of your life, and whatever things you need to rectify, do it right now, while you have the time and opportunity; procrastinating and postponing it for tomorrow or "later" may be very harmful.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Read the Bible in a Year:
1 Samuel 30-31
Luke 13:23-35