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पवित्र आत्मा से सीखना – 22
परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रत्येक मसीही विश्वासी को उसके उद्धार पाने के पल से ही दे दिया जाता है, और उसके बाद से वह मसीही विश्वासी में निवास करता है, उसका सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक बनकर। पवित्र आत्मा मसीही विश्वासी के मसीही जीवन जीने और परमेश्वर के द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई का निर्वाह करने में, उस की सहायता और मार्गदर्शन करता है। विश्वासी का शिक्षक होने के नाते, अन्य बातों के अतिरिक्त, पवित्र आत्मा मसीही विश्वासी को परमेश्वर का वचन भी सिखाता है, यदि विश्वासी उस से सीखने के लिए तैयार हो, तो। दुर्भाग्यवश, बहुतेरे विश्वासी परमेश्वर का वचन सीखने के लिए पवित्र आत्मा की बजाए, मनुष्यों और उनकी रचनाओं पर अधिक निर्भर करते हैं, और इसीलिए बहुत सी गलत बातें भी सीख लेते हैं। हम पवित्र आत्मा से सीखने के बारे में सीख रहे हैं, और इस विषय की विभिन्न बातों को हमने 1 पतरस 2:1-2, फिर भजन 25, से देखा है, और अब 1 कुरिन्थियों 2:12-14 से देख रहे हैं। इस खण्ड के पद 12 पर विचार करने के बाद, पिछले लेख से हमने पद 13 को देखना आरंभ किया है। हमने पिछले लेख में इस पद के पहले वाक्यांश से देखा था कि परमेश्वर द्वारा उसे दी गई बातों के बारे में सीखना प्रत्येक मसीही विश्वासी की ज़िम्मेदारी है। यह सीखना, विश्वासियों के लिए एक बुनियादी शिक्षा की बात है, क्योंकि उन्हें परमेश्वर के उन प्रावधानों का योग्य भण्डारी बनकर उन को उपयोग करना है। इस से पहले कि हमने जहाँ छोड़ा था, उस से आगे इस पद को देखें, आज हम देखेंगे कि परमेश्वर अपने लोगों से किस प्रकार बोलता है और उसका व्यावहारिक उपयोग क्या है। पद 13 में दी गई आगे की बात तथा अन्य स्थानों पर दी गई बातों को समझने के लिए इस बात को जानना और समझना अनिवार्य है।
सम्पूर्ण पवित्र शास्त्र में, परमेश्वर अपने लोगों से अपने प्रतिनिधियों में होकर बोलता रहा है। परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों, जैसे कि भविष्यद्वक्ताओं और प्रेरितों से विभिन्न तरीकों से बात करता था, और फिर वे लोग परमेश्वर की बात को परमेश्वर के लोगों तक पहुँचाते थे; मौखिक, तथा लिखित, दोनों ही प्रकार से। इन में से कुछ लिखित संदेश पवित्र आत्मा की प्रेरणा और मार्गदर्शन से संकलित कर के पवित्र शास्त्र के रूप में रखे गए हैं। यह पवित्र शास्त्र एक अपरिवर्तनीय, सदा काल के लिए स्थापित, अटल, माप-दण्ड है, जिस से किसी भी बात की, परमेश्वर द्वारा कही गई बात के साथ तुलना के द्वारा, जाँच-परख कर के जाँचा जा सकता है। प्रभु यीशु के आगमन से पहले के संदेशों के संकलन को यहूदियों का पवित्र शास्त्र कहा जाता था, जो आज हमारी बाइबलों का पुराना नियम है। प्रभु यीशु के आगमन के बाद प्रेरितों तथा परमेश्वर के अन्य लोगों के संदेशों के संकलन को नया नियम कहते हैं, और नया तथा पुराना नियम साथ मिलकर बाइबल बनाते हैं। इन बातों को जानना और ध्यान में रखना बहुत आवश्यक है, यह समझने के लिए कि पवित्र आत्मा किस तरह से विश्वासियों को वचन सिखाता है, और शैतान किस रीति से झूठी शिक्षाएँ ले आता है।
परमेश्वर ने पहले कुछ लोगों को चुनकर पृथक किया, कि उनके द्वारा अपने लोगों तक अपने संदेश पहुँचाए (इफिसियों 4:11-12), और फिर पवित्र आत्मा की प्रेरणा से, इन नबियों, प्रेरितों, और अन्य लोगों में होकर दिए गए अपने संदेशों को लिखवाया भी (2 पतरस 1:21; 2 तीमुथियुस 3:16)। प्रभु यीशु के, तथा उन चुने हुए लोगों के द्वारा दिए गए ये निर्देश और शिक्षाएँ (1 कुरिन्थियों 3:11; इफिसियों 2:20) हमें बाइबल के रूप में, हमारी शिक्षा के लिए दी गई हैं (रोमियों 15:4; 1 कुरिन्थियों 10:6)। ये ही वह अचूक, अटल, अपरिवर्तनीय, कभी गलत ने होने वाले, अनन्तकाल के लिए स्थापित (भजन 119:89) परमेश्वर का वचन, बाइबल हैं। परमेश्वर मनुष्यों से जो भी कहना चाहता है, मनुष्य के जीवन, उद्धार, परमेश्वर के साथ संगति, परमेश्वर के लिए उपयोगी होने, और परमेश्वर को प्रसन्न करने से संबंधित जो भी बात है, वह परमेश्वर ने अपने इस वचन में मनुष्यों को दे दी है। बाइबल सम्पूर्ण है; उसमें कुछ नहीं जोड़ा जा सकता है, उसमें से कुछ हटाया नहीं जा सकता है, उसमें लिखे को ‘सुधारा’ या “और सुन्दर” नहीं किया जा सकता है, और उससे संबंधित कोई नए प्रकटीकरण नहीं होंगे। अब, परमेश्वर अपने लोगों को जो कुछ भी सिखाता है, वह परमेश्वर द्वारा बाइबल में कही और दी गई बातों के अन्तर्गत ही होता है, किसी भी रीति से उसके बाहर कदापि नहीं; क्योंकि इसका तात्पर्य होगा कि उस से पहले वाला संस्करण पूर्ण और सिद्ध नहीं था; उसमें कुछ त्रुटियाँ थीं। इसीलिए परमेश्वर ने उसके वचन में कुछ भी जोड़ने या घटाने को वर्जित किया है (व्यवस्थाविवरण 4:2; नीतिवचन 30:6; प्रकाशितवाक्य 22:18-19); तथा प्रभु यीशु मसीह ने पवित्र आत्मा के सेवकाई के लिए कहा है कि वह जो पहले से कह दिया गया है, उसे ही स्मरण करवाएगा (यूहन्ना 14:26) और वह अपनी ओर से कुछ भी नया नहीं कहेगा, परन्तु प्रभु द्वारा कहे हुए में से लेकर शिष्यों को बताएगा (यूहन्ना 16:13-15), और इस तरह से उन का समस्त सत्य में मार्गदर्शन करेगा।
इसलिए ऐसी कोई भी बात जो पवित्र शास्त्र में पहले से ही नहीं कही गई है, वह परमेश्वर की ओर से नहीं हो सकती है, बाइबल से नहीं हो सकती है, बाइबल का सत्य नहीं हो सकती है, वह चाहे कितनी भी आकर्षक, तर्कसंगत, भक्तिपूर्ण तथा श्रद्धापूर्ण क्यों न प्रतीत हो। किसी भी नई बात अथवा शिक्षा के परमेश्वर अथवा पवित्र आत्मा से प्राप्त होने के दावे, सिवाए झूठ के और कुछ नहीं हो सकते हैं, और प्रत्येक मसीही विश्वासी को उन्हें, शैतानी होने के कारण, तुरन्त ही अस्वीकार कर देना चाहिए। जैसा हमने पहले, जब हम विश्वासियों के परमेश्वर के वचन के भण्डारी होने के बारे में देख रहे थे तब, देखा था, शैतान द्वारा बहुधा उपयोग की जाने वाली एक और युक्ति है कि लोगों द्वारा, परमेश्वर के प्रति समर्पित विश्वासियों के द्वारा भी, बाइबल से शब्द और वाक्यांश लेकर, उन्हें उस अभिप्राय और तरीके से उपयोग करना, जैसा उनके विषय बाइबल में नहीं लिखा और दिया गया है। दूसरे शब्दों में, शैतान परमेश्वर के लोगों को वचन में लिखे हुए से आगे बढ़ा देता है, और इस तरह से पवित्र शास्त्र का झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धान्तों के प्रचार और प्रसार के लिए दुरुपयोग करवाता है, चाहे वह अनजाने में और भक्ति तथा श्रद्धा की गलतफहमी में फँसा कर ही क्यों न करवाए।
प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए यह अनिवार्य है कि वह बाइबल के इन तथ्यों पर विचार और मनन करे तथा उन्हें अपने अन्दर स्थापित कर ले; अन्यथा शैतान उन्हें परमेश्वर के वचन की गलत व्याख्या और दुरुपयोग करने की ओर बहका देगा। अगले लेख में, पद 13 के अगले वाक्यांश को देखने और यह समझने के लिए कि पौलुस में होकर पवित्र आत्मा हमें क्या सिखाना चाहता है, हम बाइबल से संबंधित इन सिद्धान्तों का उपयोग करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Learning from the Holy Spirit – 22
God the Holy Spirit is given to every Christian Believer at the moment of his salvation, and from then on, He resides in the Believer to be his Helper, Companion, Teacher, and Guide. The Holy Spirit helps the Believer in living his Christian life and fulfil his God assigned ministry, so that the Believer can be a worthy steward of the Holy Spirit. As the Believer’s Teacher, the Holy Spirit, besides other things, teaches God’s Word to him, If the Believer is willing to learn from Him. Unfortunately, many Believers, instead of the Holy Spirit tend to rely on men and their works to learn God’s Word, and therefore often learn incorrect things. We have been learning about learning from the Holy Spirit, and have seen various aspects of this from 1 Peter 2:1-2, then from Psalm 25, and now are learning from 1 Corinthians 2:12-14. Having considered verse 12, since the last article, we have started to consider verse 13 of this passage. In the last article we have seen from the first phrase of this verse that it is every Christian Believer’s responsibility to learn about the things that God has freely given to him. This learning is a basic requirement for the Believers, since they have to use them in their Christian lives and ministry, to be worthy stewards of their God given provisions. Before carrying on from where we left, and see further about the Believer having to learn about God’s provisions, today we will first see how God speaks to His people and its practical application. It is essential to be clear about this for the further understanding of things mentioned in verse 13 and other places.
Throughout the Scriptures, God’s method of speaking to His people is through His spokesmen. God would speak to His chosen people, e.g., the Prophets and the Apostles in various ways, and they would then convey God’s messages to God’s people; orally, as well as in the written form. Some of these written messages have been compiled together under the guidance of the Holy Spirit as the Scriptures, to form a standard, unalterable, permanently established reference for cross-checking and evaluating everything, by comparing it to what God has said about that thing. Before the coming of the Lord Jesus, the earlier messages had been compiled together as the Hebrew Scriptures, which we have as the Old Testament in our Bibles. The writings of the Apostles and other messengers of God after the coming of the Lord Jesus are the New Testament writings, and together, the Old and New Testaments form the Bible. It is very essential to know and keep in mind these concepts, to understand how the Holy Spirit teaches God’s Word to the Believers, and how Satan brings in false teachings.
God first chose and set apart certain people to convey His messages to His people (Ephesians 4:11-12), and then through the inspiration of the Holy Spirit, had these Prophets, Apostles, and others write down the messages that God had given through these chosen persons (2 Peter 1:21; 2 Timothy 3:16). These instructions and teachings of the Lord, and those conveyed through the chosen people (1 Corinthians 3:11; Ephesians 2:20) have been given to us as the Bible for our learning (Romans 15:4; 1 Corinthians 10:6). They form the incontrovertible, irrevocable, infallible, inerrant, eternal Word of God, forever settled in heaven (Psalm 119:89), God’s Word the Bible. Anything and everything that God wanted to convey to man, everything required for man’s life, salvation, fellowshipping with God, functioning for God, and for pleasing God, has been given by God to mankind in this Word. The Bible is complete; there can be no additions to it, no subtractions from it, no modifications or “beautification” of its contents, and there can be no newer revelations about it; else it will imply that the earlier version was imperfect, and had some errors or short-comings in it. Now, everything that God teaches His people, always falls within what has already been spoken and given in the Bible; never outside it. Therefore, God has forbidden any additions or subtractions to His Word (Deuteronomy 4:2; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19); and the Lord Jesus said for the ministry of the Holy Spirit, that He will remind of what has already been spoken (John 14:26) and He will not say any new thing on His own authority, but will take from what he Lord has already spoken and declare them to the Lord’s disciples (John 16:13-15), and thereby guide them into all truth.
Therefore, anything that is not already stated in the Scriptures, cannot be from God, cannot be Biblical and Biblically true; no matter how appealing, logical, pious, and reverential it may appear. Any claims of any new revelations or teachings from God, or given by the Holy Spirit cannot be anything but false, and every Christian Believer should reject them outright, as being from Satan. As we have seen earlier, while considering stewardship of God’s Word, another very common ploy that Satan uses is to get people, even God’s committed Believers, to take words and phrases from the Bible, but use them in a manner and with meanings not given about them in the Bible. In other words, Satan makes God’s people go beyond what has been written in the Scriptures about those words and phrases, and misuse the Scriptures to spread false teachings and wrong doctrines, even though inadvertently and under the misunderstanding of being pious and reverential.
It is absolutely essential for every Christian Believer to ponder over these Biblical facts and have them firmly established in themselves; else they will be misled by Satan to misuse and misinterpret God’s Word. In the next article, while considering about the next phrase of verse 13, we will utilize these Biblical principles to understand what God the Holy Spirit is saying to us through Paul.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.