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प्रभु यीशु के लोगों के लिए चौथे स्तंभ, प्रार्थना का महत्व
प्रभु की कलीसिया में, प्रभु द्वारा जोड़ दिए लोगों के जीवनों में, कलीसिया के आरंभ के समय से ही सात बातें देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में दिया गया है। इनमें से अंतिम चार, एक साथ, प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, और इन्हें मसीही जीवन तथा कलीसिया की स्थिरता के लिए चार स्तंभ भी कहा जाता है; तथा इनके लिए इसी पद में यह भी लिखा है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग इन बातों का पालन करने में “लौलीन रहे”। हमने इन चारों में से पहली तीन, और सातों में से पहली छः बातों को पिछले लेखों में देखा है। आज इन चार में से चौथी तथा सात में से सातवीं बात, प्रार्थना में लौलीन रहने के बारे में देखते हैं।
यहाँ हम देखते हैं कि प्रभु यीशु के उन आरंभिक अनुयायियों के जीवन में, आरंभ से ही प्रार्थना करने का बहुत महत्व रहा है। सामान्यतः परमेश्वर से प्रार्थना करने को परमेश्वर से कुछ माँगने या उससे प्राप्त करने के प्रयास करने के अभिप्राय से देखा और समझा जाता है। किन्तु परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार परमेश्वर से प्रार्थना का अभिप्राय होता है परमेश्वर से वार्तालाप करना, जैसा प्रभु यीशु मसीह बहुधा किया करते थे (मरकुस 1:35; मत्ती 14:23; लूका 5:16; 6:12-13)। यह वार्तालाप औपचारिकता का निर्वाह नहीं, अपितु, किसी अंतरंग मित्र के साथ दिल खोल कर बात करने के समान है। अपने मन की बात परमेश्वर से खुल कर कहना, और परमेश्वर के मन की बात को उससे सुनना। अर्थात, प्रार्थना करना, परमेश्वर से संगति करने के समान है, निरंतर हर बात के लिए उसके संपर्क में बने रहना, हर बात के लिए उसकी इच्छा जानकर उसके अनुसार कार्य करना। जब मसीही विश्वासी परमेश्वर के साथ ऐसे निकट संबंध और संपर्क में रहेगा, परमेश्वर की इच्छा के अनुसार अपना हर निर्णय और कार्य करेगा, तो स्वतः ही उसके जीवन में परमेश्वर की सामर्थ्य भी प्रकट रहेगी, उसके कार्य भी सफल होंगे, और वह परिस्थितियों द्वारा विचलित और निराश भी नहीं होगा, क्योंकि उसे विश्वास रहेगा के जो कुछ भी उसके जीवन में हो रहा है, वह परमेश्वर की इच्छा और योजना के अंतर्गत है, और अन्ततः उससे उसकी भलाई ही होगी (रोमियों 8:28)।
इसीलिए परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस द्वारा लिखवाया, “निरन्तर प्रार्थना में लगे रहो” (1 थिस्स्लुनीकियों 5:17)। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि सब कार्य छोड़कर किसी एकांत स्थान में आँख बंद करके और हाथ जोड़कर बैठे रहो और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहते रहो। वरन यह कि हर समय, हर बात के लिए, परमेश्वर के साथ मन में एक मूक संवाद, एक वार्तालाप चलते रहना चाहिए, हर बात के लिए उसकी इच्छा जानते रहना चाहिए, उसकी इच्छा के अनुसार करते रहना चाहिए। जो इस प्रकार परमेश्वर के साथ अपना घनिष्ठ संबंध बनाए रखते हैं, वे प्रभु के इस वचन को भी समझ सकते हैं और उसके प्रति आश्वस्त रह सकते हैं कि समय और आवश्यकता के अनुसार उन्हें प्रभु से वचन और सहायता मिलती रहेगी (यशायाह 30:21; लूका 12:11-12); तथा इन अंत के दिनों की भयानक घटनाओं से बचने और शांति के साथ रहने वाले भी हो सकते हैं (लूका 21:34-36; प्रकाशितवाक्य 3:10)।
मसीही विश्वासियों के लिए प्रार्थना करना कोई निर्धारित संख्या के अनुसार गिनकर करना नहीं है, जैसा हम पुराने नियम के कुछ संतों और परमेश्वर के भक्तों के साथ देखते हैं (भजन 55:17; भजन 119:164; दानिय्येल 6:10), वरन हर पल, हर समय परमेश्वर के साथ संपर्क में बने रहना, उससे हर बात के लिए वार्तालाप में बने रहना है। जो इस भाव में जीवन व्यतीत करेगा, फिर वह इस एहसास के साथ भी जीवन जीएगा कि मैं परमेश्वर के साथ, और परमेश्वर मेरे साथ निरंतर विद्यमान हैं। और ऐसी स्थिति में फिर उसके लिए किसी लोभ-लालच, बुरे विचार आदि में बहक कर पाप में गिरना कठिन हो जाएगा, वह शैतान के द्वारा सरलता से बहकाया-गिराया नहीं जाएगा। आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि जो इस प्रकार से प्रार्थना में “लौलीन” रहेगा, उसके आत्मिक जीवन का स्तर कैसा होगा। साथ ही, परमेश्वर के साथ इस प्रकार से संगति और संपर्क वही बना कर रख सकता है, जो प्रभु द्वारा अपनाया गया हो, प्रभु की कलीसिया के साथ जोड़ा गया हो। किसी मानवीय या संस्थागत प्रक्रिया के निर्वाह के द्वारा “कलीसिया” से जुड़ने वाले व्यक्ति के लिए परमेश्वर के साथ इस प्रकार प्रार्थना में जुड़े रहना संभव ही नहीं होगा।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपका प्रार्थना का जीवन कैसा है? क्या आपके लिए प्रार्थना करना परमेश्वर से कुछ माँगना ही है, या एक अंतरंग मित्र के समान उससे अपने दिल की सभी बातें साझा करना, तथा उसके दिल की बातों को जानकर उनके अनुसार कार्य एवं व्यवहार करना है? आप का प्रार्थना का जीवन और प्रार्थना के प्रति आपका रवैया प्रकट करेगा कि आप वास्तव में प्रभु द्वारा उसकी कलीसिया से जोड़े गए जन हैं कि नहीं। यदि कहीं कोई कमी है, किसी सुधार की आवश्यकता है, तो अभी समय रहते जो भी ठीक करना है, वह कर लीजिए; कहीं बाद में समय और अवसर न मिले और कोई बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ जाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यशायाह 50-52
1 थिस्सलुनीकियों 5
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The Importance for the Lord’s People of the Fourth Pillar, Prayer
In the Church of the Lord Jesus, in the lives of the people joined to the Church by the Lord, since the inception of the Church, seven things have been seen, which are given in Acts 2:38-42. Of these seven the last four have been given together in one sentence, in Acts 2:42; it is also written in the same sentence that the members of the first Church “continued steadfastly” in them. These four have also been called the four pillars giving stability and firmness to Christian life and the Church. We have seen the first three of these four, i.e, the first six of the seven things in the previous articles. Today, we will look at the last one, the importance of praying steadfastly amongst the Lord’s people.
We see from this verse that in the lives of those initial disciples of the Lord, prayer had a very important place. Usually, prayer is seen and understood as asking something from God, or pleading to get something from Him. But according to God’s Word the Bible, prayer was conversing with God, as the Lord Jesus often used to do (Mark 1:35; Matthew 14:23; Luke 5:16; 6:12-13). This conversation was not the fulfilling of a formality, rather, it is having an open-hearted conversation with a close and dear friend. It is unhesitatingly, freely sharing all you have on your heart with God, and also listening to what God has to say to you. In other words, to pray is like having a fellowship session with God, to be in close touch with Him for everything, learning His will and way for everything and doing accordingly. When a Christian Believer will remain in such close contact and relationship with God, will take every decision in God’s will and fulfill it too, then automatically the power of God too will be manifest in his life, he will be successful in all that he does, and he will never be discouraged or overwhelmed with situations and problems, since he will keep trusting that whatever is happening in his life is in the will of God and eventually will turn out to be for his good (Romans 8:28).
That is why God the Holy Spirit had it written through the Apostle Paul, “pray without ceasing” (1 Thessalonians 5:17). This does not mean to leave everything aside and be sitting all the time with closed eyes and folded hands and keep telling something or the other to God. Rather, it means to be in a constant state of silent conversation with God about everything happening in and around you, and keep doing as the Lord God guides and directs in every situation. Those who maintain their close, intimate relationship with God in this manner, they can well understand this verse; they will always remain assured and confident that as and when they need God’s help and guidance, they will keep receiving it (Isaiah 30:21; Luke 12:11-12). They will also be able to live in peace and with confidence through the terrible events and things of these end times that we are in (Luke 21:34-36; Revelation 3:10).
For the Christian Believers there are no set times of the day or the prescribed number of times to pray, as we see in the lives of some of the Old Testament saints and prophets of God (Psalm 55:17; Psalm 119:164; Daniel 6:10). The Born-Again child of God is expected to remain in constant conversation and touch with God about everything. The person who lives with this attitude, will also be confident that at all times and for everything he is with God and God is with him. Then, with such confidence it will be very difficult for him to be led astray into sin through any temptation, covetousness, wrong thoughts and desires etc. and Satan will not be able to make him fall into his traps. You can imagine for yourself the high spiritual state of those who “continue steadfastly” in prayer in this manner. This also implies that this kind of constant fellowship and conversation is only possible for a person who has been accepted by the Lord and been joined to His Church by the Lord. No person joined by any man, or Institution devised process to the Church will be able to remain in prayer with God in this manner.
If you are a Christian Believer, then what is the state of your prayer life? Does prayer only mean asking God for things, or is it a time of sharing your heart with a close intimate friend, learning what is on His heart for you, and then living your life accordingly? Your prayer life and your attitude towards prayer will make evident whether you actually have been joined to the Lord’s Church or not. Evaluate and see, and if there is any deficiency anywhere, if there is anything that needs to be rectified, do it now while you have time and opportunity available from God. May it not be so that by the time you realize, and want to take any remedial measures, it is too late, and you end up paying a heavy price.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Isaiah 50-52
1 Thessalonians 5