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मसीही विश्वासी - प्रभु के समान प्रेम रखता है
सुसमाचारों में दिए गए प्रभु यीशु मसीह के शिष्य के गुणों में से यह सातवाँ गुण है कि मसीही विश्वासी, जैसा प्रभु यीशु ने औरों से रखा वैसे ही वह भी प्रेम रखता है। प्रभु यीशु ने क्रूस पर मारे जाने के लिए अपने पकड़वाए जाने से ठीक पहले, शिष्यों के साथ फसह का भोज खाते हुए, उन शिष्यों से कहा, “मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूं, कि एक दूसरे से प्रेम रखो: जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो। यदि आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे, कि तुम मेरे चेले हो” (यूहन्ना 13:34-35)। आगे चलकर प्रेरित यूहन्ना ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में अपनी पहली पत्री में लिखा, “जो प्रेम नहीं रखता, वह परमेश्वर को नहीं जानता है, क्योंकि परमेश्वर प्रेम है” (1 यूहन्ना 4:8); “और जो प्रेम परमेश्वर हम से रखता है, उसको हम जान गए, और हमें उस की प्रतीति है; परमेश्वर प्रेम है: जो प्रेम में बना रहता है, वह परमेश्वर में बना रहता है; और परमेश्वर उस में बना रहता हैे” (1 यूहन्ना 4:16)।
प्रभु यीशु मसीह ने न केवल अपने शिष्यों से वरन समस्त संसार के सभी लोगों से निःस्वार्थ, और अपने आप को बलिदान कर देने वाला प्रेम किया। प्रभु ने अपने इस प्रेम का उदाहरण यहूदा इस्करियोती को भी अपने साथ साढ़े तीन वर्ष रखने और उसे वही सब सामर्थ्य एवं अधिकार जो प्रभु ने अन्य शिष्यों को दिए थे देने के द्वारा, तथा क्रूस पर से उन्हें यातना देने वालों को भी क्षमा कर देने (लूका 23:34) के द्वारा दिखाया। अपनी पृथ्वी की संपूर्ण सेवकाई के दौरान “कि परमेश्वर ने किस रीति से यीशु नासरी को पवित्र आत्मा और सामर्थ्य से अभिषेक किया: वह भलाई करता, और सब को जो शैतान के सताए हुए थे, अच्छा करता फिरा; क्योंकि परमेश्वर उसके साथ था” (प्रेरितों 10:38)।
आज हमारे लिए भी परमेश्वर पिता ने यही निःस्वार्थ प्रेम दिखाया है, “प्रेम इस में नहीं कि हम ने परमेश्वर ने प्रेम किया; पर इस में है, कि उसने हम से प्रेम किया; और हमारे पापों के प्रायश्चित्त के लिये अपने पुत्र को भेजा” (1 यूहन्ना 4:10)। और प्रभु यीशु ने भी यही निःस्वार्थ, बलिदान वाला प्रेम दिखाया है “परन्तु परमेश्वर हम पर अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रगट करता है, कि जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिये मरा” (रोमियों 5:8)।
प्रभु चाहता है कि उसके शिष्य भी आपस में तथा संसार के लोगों से ऐसा ही प्रेम रखें; यही संसार के सामने उसके शिष्य होने की पहचान होगी:
“यदि आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे, कि तुम मेरे चेले हो” (यूहन्ना 13:35)।
“सो मैं जो प्रभु में बन्धुआ हूं तुम से बिनती करता हूं, कि जिस बुलाहट से तुम बुलाए गए थे, उसके योग्य चाल चलो। अर्थात सारी दीनता और नम्रता सहित, और धीरज धरकर प्रेम से एक दूसरे की सह लो” (इफिसियों 4:1-2)।
“और यदि किसी को किसी पर दोष देने को कोई कारण हो, तो एक दूसरे की सह लो, और एक दूसरे के अपराध क्षमा करो: जैसे प्रभु ने तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी करो” (कुलुस्सियों 3:13)।
यह कर पाना तब तक संभव नहीं है जब तक शिष्य छठे गुण की बात, अपने आप का इनकार करना, और पहले गुण की बात, पूर्ण समर्पण और आज्ञाकारिता के साथ प्रभु यीशु के लिए कार्यकारी एवं उपयोगी होने के लिए प्रतिबद्ध न हो। जब तक किसी में भी किसी भी बात के लिए जरा भी ‘अहं’ है, तब तक व निःस्वार्थ और बलिदान वाला प्रेम नहीं कर सकता है।
किसी भी मनुष्य के लिए, अपनी ही सामर्थ्य और योग्यता से, अथवा इच्छा के द्वारा, प्रभु द्वारा कहे गए सातों गुणों में से एक का भी निर्वाह कर पाना संभव नहीं है। किन्तु हम मसीही विश्वासियों के अंदर निवास करने वाला परमेश्वर पवित्र आत्मा हमें सामर्थ्य देता है, हमारा मार्गदर्शन करता है, कि हम अंश-अंश करके अपने प्रभु यीशु की समानता में ढलते चले जाएं (2 कुरिन्थियों 3:18), उसके समान सोचने, रहने, और व्यवहार करने वाले बनते चले जाएं। संसार के दृष्टिकोण से ये सभी गुण दुर्बलता और असफलता के चिह्न हो सकते हैं, किन्तु प्रभु ने इन्हीं गुणों को पहले जी कर दिखाया, तब ही शिष्यों से करने के लिए कहा; और हम जानते हैं कि “इस कारण परमेश्वर ने उसको अति महान भी किया, और उसको वह नाम दिया जो सब नामों में श्रेष्ठ है” (फिलिप्पियों 2:9)। आज इन्हीं गुणों के कारण प्रभु यीशु का नाम वह सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वोच्च नाम है “कि जो स्वर्ग में और पृथ्वी पर और जो पृथ्वी के नीचे है; वे सब यीशु के नाम पर घुटना टेकें। और परमेश्वर पिता की महिमा के लिये हर एक जीभ अंगीकार कर ले कि यीशु मसीह ही प्रभु है” (फिलिप्पियों 2:10-11)।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 23-25
प्रेरितों 21:18-40
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Christian Believer – Loves as Lord Did
The seventh characteristic of a disciple of the Lord Jesus, given in the Gospels is that the Christian Believer, loves others as the Lord Jesus did. The Lord Jesus just before being caught for being crucified, while eating the Passover feast with His disciples, said to them, “A new commandment I give to you, that you love one another; as I have loved you, that you also love one another. By this all will know that you are My disciples, if you have love for one another” (John 13:34-35). Later, under the guidance of the Holy Spirit, the Apostle John wrote in his first letter, “He who does not love does not know God, for God is love” (1 John 4:8); and “And we have known and believed the love that God has for us. God is love, and he who abides in love abides in God, and God in him” (1 John 4:16).
The Lord Jesus Christ not only loved His disciples, but all of mankind, with a selfless love, and sacrificed Himself for the salvation of all the people of the whole world. During His time on earth, the Lord Jesus practically demonstrated His love by keeping with Him Judas Iscariot, and giving him the same power and privileges as the other disciples, never exposing or ridiculing him. The Lord also showed this love when He was being crucified, by forgiving those who were tormenting Him at that time (Luke 23:34). It was later written for the Lord Jesus, “how God anointed Jesus of Nazareth with the Holy Spirit and with power, who went about doing good and healing all who were oppressed by the devil, for God was with Him” (Acts 10:38).
God the Father has shown this same selfless love towards us also, “In this is love, not that we loved God, but that He loved us and sent His Son to be the propitiation for our sins” (1 John 4:10). The Lord too has shown this selfless, sacrificial love towards us “But God demonstrates His own love toward us, in that while we were still sinners, Christ died for us” (Romans 5:8). The Lord wants that His disciples should have the same love towards each other, and towards the people of the world; by this will the people of the world recognize them as disciples of the Lord:
John 13:35 “By this all will know that you are My disciples, if you have love for one another.”
Ephesians 4:1-2 “I, therefore, the prisoner of the Lord, beseech you to walk worthy of the calling with which you were called, with all lowliness and gentleness, with longsuffering, bearing with one another in love.”
Colossians 3:13 “bearing with one another, and forgiving one another, if anyone has a complaint against another; even as Christ forgave you, so you also must do.”
Doing this is not possible unless a person first fulfills what is stated in the first and the sixth Characteristics of a disciple of Christ, i.e., be fully surrendered and obedient to the Lord and committed to being working and useful for the Lord, and is willing and ready for self-denial for his service towards the Lord. As long as there is even a little bit of ego in a person, he cannot love selflessly with a sacrificial love as the Lord did.
No man is capable of living out even one of these seven characteristics of a disciple of the Lord Jesus, by his own ability and strength. But the Holy Spirit of God residing in the Christian Believers gives us the strength, provides the guidance, so that we are transformed bit by bit into the likeness of the Lord (2 Corinthians 3:18), and we start to think, live, and behave as He did. The world might look upon these seven characteristics as signs of weakness and failure; but the Lord first lived out and demonstrated these characteristics, and only then did He ask His disciples to do likewise. We also know that because the Lord lived them out, “Therefore God also has highly exalted Him and given Him the name which is above every name” (Philippians 2:9). It is for this reason that the name of Lord Jesus is the name above all names, “that at the name of Jesus every knee should bow, of those in heaven, and of those on earth, and of those under the earth, and that every tongue should confess that Jesus Christ is Lord, to the glory of God the Father” (Philippians 2:10-11).
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 23-25
Acts 21:18-40