व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 9
क्योंकि मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है (भाग 7)
पिछले कुछ लेखों से हम तीन बातों के द्वारा यह समझने के लिए कि मनुष्य क्यों अपनी सामर्थ्य और योग्यताओं से शैतान का सामना करने में असमर्थ है, परमेश्वर के वचन बाइबल के तथ्य एकत्रित करते आ रहे हैं। ये तीन बातें, और बाइबल के आधार पर उन के निष्कर्ष हमारे सामने हैं:
(i) परमेश्वर की हर बात, उसका हर वचन, उसके द्वारा दिए गए अधिकार और वरदान अपरिवर्तनीय हैं, अटल हैं, और वह उन्हें कभी वापस नहीं लेता है। क्योंकि वह समय की सीमा से बंधा हुआ नहीं है, आदि से ही अंत को जानता है, सब कुछ के बारे में सब कुछ जानता है, इसलिए उसने जिसे भी जो भी दिया है वह सोच समझ कर, सभी संभावनाओं, अभिप्रायों, और घटित होने वाली घटनाओं को जानते हुए, सोच समझ कर किसी न किसी उद्देश्य के साथ दिया है। क्योंकि वह कभी भी कोई भी गलती नहीं करता है, इसलिए उसे अपने किसी भी निर्णय में संशोधन करने या उसे बदलने की कभी कोई आवश्यकता नहीं है।
(ii) सृष्टि के आरम्भ से ही, अपनी रचना में ही मनुष्य स्वाभाविक रीति से स्वर्गदूतों से कम सामर्थी है। अर्थात मनुष्य में अपनी किसी सामर्थ्य या योग्यता से किसी भी स्वर्गदूत से बढ़कर होने अथवा करने की क्षमता नहीं है। यह मनुष्य का परमेश्वर द्वारा निर्धारित स्तर है, और मनुष्य अपने आप से इसे बदल नहीं सकता है, केवल इसका निर्वाह ही कर सकता है।
(iii) सृष्टि के वरीयता क्रम में मनुष्य स्वाभाविक रीति से स्वर्गदूतों से निचले क्रम का है। उद्धार पाने के बाद, उसका यह क्रम, उसके परमेश्वर की संतान हो जाने और प्रभु की समानता में ढलते जाने से, परमेश्वर के आज्ञाकारी स्वर्गदूतों के संदर्भ में बदल दिया जाता है। वह उद्धार पाया हुआ मनुष्य, परमेश्वर की संतान और प्रभु की समानता में अग्रसर होते रहने के कारण, परमेश्वर के आज्ञाकारी स्वर्गदूतों से उच्च स्तर का बना दिया जाता है। किन्तु शैतान, उसके दूत, उसकी दुष्टात्माएं क्योंकि परमेश्वर के अनाज्ञाकारी हैं इसलिए जिस प्रकार से वे परमेश्वर से, उसी प्रकार से मनुष्य से निचले स्तर का होने को स्वीकार नहीं करते हैं; और वे मनुष्य पर हावी रह कर उसे गिराने के प्रयासों में लगे रहते हैं, और मनुष्य अपने आप में, अपनी सामर्थ्य से, उनपर विजयी नहीं हो सकता है।
अगले लेख में हम इन निष्कर्षों को अन्य बातों के साथ मिलाकर इनके व्यावहारिक अर्थ और अभिप्राय को देखेंगे। इनके द्वारा हम देखेंगे और समझेंगे कि मनुष्यों के शैतान का सामना करने में असमर्थ होने और पाप में गिरते रहने पर भी, क्यों परमेश्वर द्वारा प्रेरितों 17:30 में स्वाभाविक अपरिवर्तित मनुष्य द्वारा पाप करने को “अज्ञानता के समय” की बात कहकर उसे दण्ड देने में आनाकानी करता है, पश्चाताप करने के लिए कहता है, और उसे दंड से बचने का अवसर देता है।
किन्तु अभी के लिए हमें अपने जीवनों में झांक कर देखना आवश्यक है कि क्या हम परमेश्वर द्वारा दिए गए इस अवसर का, उसके आनाकानी करने का, सदुपयोग कर रहे हैं कि नहीं? क्या हमने अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, अपना जीवन उसे सच्चे मन से समर्पित किया है कि नहीं? या हम अभी भी अपने धर्म, परिवार, जन्म से धार्मिक अनुष्ठानों तथा रीति-रिवाजों के पालन करने वाले होने, अपने धर्म-गुरुओं और अगुवों के चलाए चलने वाले होने, आदि व्यर्थ और निष्फल बातों के द्वारा ही परमेश्वर की दृष्टि में भले और धर्मी, तथा उसे स्वीकार्य होने, उसके साथ स्वर्ग में प्रवेश करने वाले समझे बैठे हैं, शैतान के धोखे से अपने अनन्त जीवन के विषय निश्चिंत हो गए हैं? आज, अभी, समय और अवसर रहते हुए पापों से पश्चाताप करके अपना जीवन प्रभु यीशु मसीह को समर्पित कर दें, उससे पापों के लिए क्षमा माँग लें, परमेश्वर की संतान बन जाएं। बाद में कहीं बहुत देर न हो जाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Why The Law Cannot Save Us – 9
Because Man is Incapable of Handling Satan (Part 7)
For the previous few articles, through three things, we have been trying to gather information from God’s Word the Bible to help us understand why man is incapable of facing Satan in his own power and abilities. Now the conclusions of these three things are before us:
(i) Everything stated by God, His Word, the rights, privileges, and gifts given by Him are irrevocable, unchanging, and He does not take them back. Since He is not under the limits of time, He knows the end from the beginning, knows everything about everything, therefore, whatever He has given to anybody, he has given it knowingly and with a purpose, being fully aware of all the possibilities, implications, and the incidences that would happen related to it. Since He never makes any mistake, therefore He never has to modify to correct, or to change any of the decisions He has taken.
(ii) Man, in his natural condition, since his creation is less powerful than the angels. In other words, man has no power or ability to be or do anything greater or be more powerful than angels. This is the God given status of man, and man cannot change it on his own, he can only obey it.
(iii) Human beings, in their natural state, are lower than the angels in the hierarchy of created beings. After he is saved, because of his becoming a child of God and continually being changed into the likeness of the Lord, this order changes for the saved man, in context of God’s obedient angels; and now the saved man is elevated to a higher status than angels because of his becoming a child of God and progressively being transformed into the likeness of the Lord. But Satan, his angels, his demons, since they are all disobedient to God, therefore, just as they do not accept being of a lesser status than God, they also do not accept being of a lower status than the saved man, the child of God; and they are always trying to overpower the saved man and make him fall, and man on his own, by his own strength, is incapable of being victorious over them.
In the next article, we'll look at the practical application and implications of these conclusions, by also considering them along with some other things. Through these we will see and understand why although humans are unable to face Satan, while they continue to fall in sin time and again, yet God calls this tendency of the unregenerate man to sin something done in "times of ignorance" in Acts 17:30 and is reluctant to punish him for it; rather, asking him to repent of his sins and be saved from the punishment.
But for now, we need to look into our lives and see whether we are making good use of this opportunity given to us by God, or, are we ignoring Him and His benevolence? Have we sincerely committed our lives to Him, repenting of our sins or not? Or, have we fallen for Satan's deceit, and we are still assuming of being good and righteous in the eyes of God through vain and ineffective things like our religion, family, our following and fulfilling religious rituals and customs since our birth, by our being obedient to our religious leaders, etc. and falsely believe that because of following these we will be considered acceptable to God, worthy of entering heaven with Him? Today, now, while having the time and opportunity to repent of sins, make the right decision, repent of your sins, submit your life to the Lord Jesus Christ, ask Him for forgiveness of sins, become a child of God. It may be too late afterwards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.