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सोमवार, 10 अक्टूबर 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - बपतिस्मे द्वारा गवाही देना / The Church, or, Assembly of Christ Jesus - Witnessing Through Baptism


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बपतिस्मे के द्वारा गवाही


पिछले लेखों से हम देख चुके हैं कि प्रभु यीशु की कलीसिया में कोई भी, किसी भी रीति अथवा विधि के द्वारा स्वतः ही नहीं जुड़ सकता है। जिस प्रकार से प्रभु ने अपनी कलीसिया से संबंधित सभी बातों को स्वयं ही निर्धारित किया है, और स्वयं ही अपनी कलीसिया को प्रबंधित और संचालित भी करता है, उसी प्रकार से प्रभु अपनी कलीसिया में स्वयं ही लोगों को जोड़ता भी है (प्रेरितों 2:47), और उसके द्वारा जोड़े जाने से संबंधित प्रक्रिया और बातें भी प्रभु द्वारा ही निर्धारित कर दी गई हैं। प्रथम कलीसिया की स्थापना से लेकर आज तक, सारे संसार के सभी स्थानों में प्रभु की कलीसिया के साथ जुड़ने के लिए प्रभु द्वारा स्थापित इसी एक प्रक्रिया का निर्वाह किया जाता है। इस प्रक्रिया में सात बातें हैं, जिन्हें परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरितों 2:38-42 में लिखवाया है। इनमें से पहली बात, 2:38 में प्रभु की कलीसिया के साथ जुड़ने का आरंभ, प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपने पापों से पश्चाताप करना है, जिसे हम पिछले लेख में देख चुके हैं। उस लेख में हमने यह भी समझा है कि जिस पश्चाताप की यहाँ बात की गई है, वह वास्तविक पश्चाताप, ईसाई समाज और संस्थाओं में सामान्यतः कुछ रीतियों की पूर्ति के समय, जैसे कि प्रभु-भोज या ‘पाक-आशा’ के समय औपचारिक रीति से दोहराए जाने वाले कुछ वाक्यों और खण्डों के पश्चाताप से, बहुत भिन्न है। ऐसा सांसारिक और औपचारिक पश्चाताप मृत्यु उत्पन्न करता है। हमने उस वास्तविक पश्चाताप के गुणों, पहचान, और प्रभाव के बारे में बाइबल से समझा है जो प्रभु की कलीसिया से जुड़ने के लिए अनिवार्य है। हमने यह भी देखा है कि  इसी पद, 2:38 में दूसरी बात भी लिखी गई है - हर एक पश्चाताप करने वाले के द्वारा यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा लेना।


परमेश्वर के वचन, बाइबल में जब भी बपतिस्मा लेने या देने की बात आई है, उसके साथ कुछ महत्वपूर्ण बातें भी जुड़ी हुई देखी जाती हैं, जिनकी अवहेलना करने के द्वारा बपतिस्मे को लेकर बहुत सी गलत शिक्षाएं बनाकर फैला दी गई हैं। इसलिए पहले यह समझना आवश्यक है कि बपतिस्मा क्यों लिया या दिया जाए; उसके बाद ही उसकी विधि, या नामों के प्रयोग, आदि का महत्व समझ में आ सकता है। पापों से पश्चाताप करने और प्रभु यीशु मसीह से पापों की क्षमा मांग लेने, उसे अपना जीवन समर्पित कर देने, और स्वेच्छा तथा सच्चे मन से उसकी अधीनता में जीवन जीने का निर्णय कर लेने के बाद, बपतिस्मा, व्यक्ति द्वारा किए गए अपने उस निर्णय की तथा उससे उसके जीवन में आए भीतरी परिवर्तन की केवल एक बाहरी सार्वजनिक गवाही मात्र है। 

मत्ती 28:18-20 में दिए गए क्रम को ध्यान से देखिए; यहाँ स्वयं प्रभु यीशु मसीह के शब्दों में, प्रभु ने पहले शिष्य बनाने को कहा, और फिर उन शिष्यों को बपतिस्मा देने के लिए कहा। प्रेरितों 2 में भी पतरस के प्रचार के बाद, जिन्होंने पश्चाताप किया और प्रभु को ग्रहण किया, केवल उन्हें ही बपतिस्मा दिया गया (प्रेरितों 2:41); दमिश्क के मार्ग में प्रभु का दर्शन पाने, और उसे “प्रभु” स्वीकार करने के बाद ही पौलुस (उस समय शाऊल) को बपतिस्मा दिया गया (प्रेरितों 9:5, 18); इसी प्रकार से प्रेरितों 19:1-5 के वार्तालाप में प्रकट है कि पौलुस जिन से बात कर रहा था, उन्होंने प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास कर लिया था। इन सभी उदाहरणों में वही क्रम दिया गया है - पहले प्रभु के शिष्य बनना, अर्थात उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार कर लेना, और तब प्रभु यीशु के उन शिष्यों को ही बपतिस्मा दिया जाना।

 

  यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला यरदन नदी के आस-पास के क्षेत्र में बपतिस्मा देता था, और वहीं प्रभु यीशु का बपतिस्मा भी हुआ (यूहन्ना 1:28; 3:23; मत्ती 3:6, 13-16; मरकुस 1:5, 9-11; लूका 3:3)। प्रभु यीशु और उनके चेलों के द्वारा भी बपतिस्मा दिया जाने का उल्लेख है (यूहन्ना 3:22; 4:1-2), किन्तु यह नहीं लिखा गया है कि वे किस नदी अथवा जलाशय में बपतिस्मा देते थे। फिलिप्पुस ने सामरिया में बपतिस्मा दिया (प्रेरितों 8:12-13) किन्तु यह नहीं लिखा है कि किस नदी अथवा जलाशय में बपतिस्मा दिया गया। बाद में फिलिप्पुस ने कूश देश के खोजे को, मार्ग के किनारे के एक जलाशय में बपतिस्मा दिया (प्रेरितों 8:36-37)। किन्तु इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि बपतिस्मा बहते या खड़े पानी, दोनों में ही दिया जा सकता है, इसमें कोई अनिवार्यता नहीं है कि बपतिस्मा किसी नदी में ही दिया जाए। इन हवालों से यह बात भी स्पष्ट है कि बपतिस्मा जहाँ भी दिया गया, वहाँ इतना पानी अवश्य होता था कि लोग उसमें उतर कर पानी के अंदर जा सकें, और बाहर आ सकें। कहीं पर भी छिड़काव का या पानी में उँगली भिगोकर माथे अथवा सिर पर क्रूस का निशान बना देने के द्वारा बपतिस्मा दिए जाने का बाइबल में कोई उदाहरण या उल्लेख नहीं है। बाइबल में कहीं पर भी किसी शिशु अथवा बच्चे के बपतिस्मे का उल्लेख नहीं है; हमेशा ही वयस्कों को, उनकी स्वेच्छा के अनुसार बपतिस्मा दिया गया।

  

  जो प्रभु के शिष्य बन गए, अर्थात जिन्होंने प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार कर लिया और अपना जीवन उन्हें समर्पित कर दिया, वे स्वतः ही, बपतिस्मा लेने से पहले ही प्रभु के अनुयायी, परमेश्वर की संतान (यूहन्ना 1:12-13), और जिस पल से वे प्रभु यीशु में विश्वासी हुए हैं उसी पल से स्वर्ग में जाने के अधिकारी हो गए। बाइबल की शिक्षाओं और उदाहरणों के अनुसार, बपतिस्मा न तो उद्धार प्रदान करता है, और न ही व्यक्ति को परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी अथवा स्वीकार्य बनाता है – बपतिस्मा केवल प्रभु यीशु में लाए गए विश्वास के द्वारा बदले हुए जीवन की सार्वजनिक रीति से गवाही देने का एक माध्यम है। ध्यान कीजिए, क्रूस पर टंगे हुए डाकू ने पापों की क्षमा पाई, और स्वर्ग चला गया – बिना बपतिस्मा लिए। ऐसे न जाने कितने लोग होंगे जिन्होंने प्रभु पर विश्वास किया, पापों से पश्चाताप किया, किन्तु किसी-न-किसी कारण वश, कोई बाधा अथवा विपरीत परिस्थिति के कारण बपतिस्मा नहीं लेने पाए – किसी दुर्घटना के बाद, किसी युद्ध भूमि में घायल होने के बाद अंतिम साँसें लेते हुए; रेगिस्तान अथवा बर्फीले इलाके में प्रभु को ग्रहण करने पर भी बपतिस्मे की सुविधा न होने के कारण; किसी सुदूर एकांत के इलाके में रेडियो पर सुसमाचार सुनकर विश्वास करने किन्तु किसी अन्य विश्वासी जन के उनके पास या साथ न होने के कारण – ऐसी कितनी ही परिस्थितियाँ हो सकती हैं, जिनके अंतर्गत बपतिस्मा लेना कई बार संभव नहीं होता है, और मनुष्य चाह कर भी बपतिस्मा नहीं लेने पाता है। क्या ऐसे लोग केवल इसलिए स्वर्ग में प्रवेश नहीं पाएँगे, क्योंकि सांसारिक परिस्थितियों के कारण वे चाहते हुए भी बपतिस्मा नहीं लेने पाए? यदि क्रूस पर लटका हुआ डाकू पश्चाताप करके, बिना बपतिस्मा लिए स्वर्ग जा सकता है, तो अन्य कोई क्यों नहीं?


  साथ ही, ध्यान कीजिए, शमौन टोन्हा करने वाले के समान (प्रेरितों 8:9-13, 18-24), सभी कलीसियाओं में ऐसे अनगिनत लोग हैं जिन्होंने रस्म के समान बपतिस्मा तो लिया, किन्तु उन्होंने सच्चा पश्चाताप कभी नहीं किया, उनके जीवनों में कोई परिवर्तन नहीं आया, वे अभी भी अपने पापों और सांसारिकता के जीवन में बने हुए हैं। वे प्रभु भोज में भी भाग लेते हैं, कलीसिया के सदस्य भी हैं, त्यौहार और पर्व भी मनाते हैं, किन्तु पाप और समझौते तथा सांसारिकता का जीवन भी जीते हैं। उनके बपतिस्मे से उन्हें क्या लाभ हुआ? क्या परमेश्वर उनके बपतिस्मे से मजबूर हो गया कि उसे अब उन्हें स्वर्ग में प्रवेश देना ही पड़ेगा, यद्यपि उनके जीवन दिखा रहे हैं कि उन्होंने उद्धार नहीं पाया है?


एक अन्य व्यर्थ बहस करने की बात बपतिस्मा प्रभु यीशु मसीह के नाम से दिया गया, या “पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा” के नाम से को लेकर उठाई जाती है। मत्ती 28:19 के अनुसार, प्रभु यीशु मसीह के ही शब्दों में बपतिस्मा “पिता, पुत्र, और पवित्र आत्मा” के नाम से दिया जाना है – ये तीनों ही त्रिएक परमेश्वर के स्वरूप हैं और पूर्णतः एक समान हैं, कोई भी दूसरे से न तो भिन्न है और न किसी रीति से कम है। यही “त्रिएक परमेश्वर” जब इस धरती पर अवतरित होकर सदेह आया, तो परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार उसका नाम “यीशु” रखा गया; अर्थात “यीशु” त्रिएक परमेश्वर ही का नाम है, जो उसके उद्धारकर्ता स्वरूप को दिखाता है (मत्ती 1:21)। इसलिए चाहे तीनों का नाम लो, या किसी एक का, अभिप्राय तो उसी एक परमेश्वर को आदर देने और उसकी आज्ञाकारिता को पूरा करना है। इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता है कि केवल प्रभु यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा दिया/लिया जाए, या तीनों, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से कहकर दिया/लिया जाए, बात एक ही है; विशेषकर जब, जैसा हम ऊपर देख चुके हैं बपतिस्मे का उद्धार मिलने के लिए अनिवार्य है ही नहीं। यह शिक्षा, कि केवल यीशु के नाम में दिया गया बपतिस्मा ही सही है अन्यथा नहीं, विलियम ब्रैनहैम के Jesus Only समुदाय के द्वारा फैलाई जाती रही है; और ये लोग त्रिएक परमेश्वर पर विश्वास नहीं रखते हैं। वे केवल यीशु ही को मानते हैं, इसलिए त्रिएक परमेश्वर के अस्तित्व और बातों पर जहाँ और जैसे संभव है, संदेह उत्पन्न करते हैं, और बाइबल त्रिएक परमेश्वर के तथ्य के विरोध में धारणाएं उत्पन्न करते हैं। और उनके इसी प्रयास की एक कड़ी उनके द्वारा बपतिस्मे के बारे फैलाई जाने वाली यह शिक्षा है।

 

   परमेश्वर के नाम, तथा पानी के स्थान के साथ बपतिस्मे को जायज़-नाजायज़ दिखाना, शैतान के द्वारा लोगों को गलत शिक्षाओं और व्यर्थ के वाद-विवादों में फंसा कर, उनका ध्यान कर्मों की धार्मिकता की ओर लगाने का प्रयास है, जिससे वे परमेश्वर के अनुग्रह से मिलने वाली क्षमा और धार्मिकता की सादगी और आशीष से निकलकर व्यर्थ के अनुचित कर्मों में फँसे रहें, आपस में विवाद करते, लड़ते रहें, पापों से पश्चाताप के स्थान पर विधि-विधानों के निर्वाह के चक्करों में पड़कर प्रभु के मार्गों से भटक जाएँ। इन बातों को ध्यान में रखते हुए, यह प्रकट है कि महत्व प्रभु यीशु मसीह की आज्ञाकारिता में होकर बपतिस्मे को लेने का है, बपतिस्मे के समय किस या किन नामों का उच्चारण किया जाता है, उसे बहते पाने में दिया/लिया जाता है अथवा खड़े पानी में, इन बातों का नहीं। इसलिए बपतिस्मे को अनावश्यक रीति से ऐसा कोई महत्व नहीं देना चाहिए जो प्रभु ने उसके लिए नहीं कहा अथवा सिखाया है। बपतिस्मा लेना प्रभु की आज्ञा है, और आज्ञाकारिता में आशीष है। किन्तु बपतिस्मा न लेने से उद्धार नहीं चला जाता है; और बपतिस्मा ले लेने से उद्धार नहीं मिल जाता है।


     यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं तो आपके लिए यह बिलकुल स्पष्ट समझना बहुत आवश्यक है कि प्रत्येक उद्धार पाए हुए मसीही विश्वासी को, समय और अवसर के अनुसार, प्रभु की आज्ञा के अनुसार बपतिस्मा अवश्य ही लेना है – अनुग्रह से मिले उद्धार को स्थापित करने के लिए नहीं, वरन उस उद्धार की सार्वजनिक गवाही देने के लिए। यह बपतिस्मा व्यक्ति चाहे पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से ले अथवा दे, या यीशु के नाम से; बहते पाने में ले या खड़े पानी में – इससे उसके उद्धार की दशा और परमेश्वर के साथ बने संबंध पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। किन्तु जैसे पश्चाताप के लिए, वैसे ही बपतिस्मे के लिए भी है - यह कोई रस्म का निर्वाह करना, एक औपचारिकता पूरी करना नहीं है। इसका आपना महत्व और उद्देश्य है, जिसकी सीमाओं के अंतर्गत इसे देखना, समझना, और निभाना चाहिए।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।    


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यशायाह 34-36 

  • कुलुस्सियों 2


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English Translation


Witnessing through Baptism


We have seen in the previous articles that no one can join the Church of the Lord Jesus Christ on his own through fulfilling any rituals or ceremonies. Just as the Lord God has determined and established everything related to His Church, and He Himself manages and directs the functioning of His Church, similarly, it is the Lord who adds people to His Church (Acts 2:47). He has determined and given the process, the way of how a person can join His Church. Since the establishing of the first Church, till date, all over the world, it is this one process that is followed for people to join the Lord’s Church. There are seven steps in this process, that have been given in Acts 2:38-42. The first two steps are given in Acts 2:38, of which the first, every person individually repenting of their sins, we have seen in the previous article. In that article we have also seen that the actual repentance that has been stated here is much different than the “the sorrow of the world produces death” i.e., a formal recitation of some words and passages that is commonly seen in Christendom, in many Christian organizations and denominational Churches, usually at the time of certain rituals, e.g., taking the Holy Communion. We have seen and understood the characteristics and effects of the true repentance which is mandatory for joining the Church of the Lord, and how to identify it. Today we will consider the second step of this process and also the second thing mentioned in Acts 2:38 - everyone who repents should take baptism in the name of the Lord Jesus.


In God’s Word the Bible, whenever taking baptism has been mentioned, certain related important things have been mentioned as well; and it is because of overlooking these associated important things that many wrong doctrines and false teachings have come about and been spread about baptism. The first thing we need to understand is why should baptism be taken? Only after properly understanding this can we really understand the way it is to be administered and under what names it is to be administered, etc. Once a person repents of his sins, asks the Lord Jesus for forgiveness of his sins, surrenders his life to the Lord willingly and fully, and commits himself to living in obedience to the Lord and His Word, after that baptism is only the external public witnessing to this inner decision and transformation that has come about in the person.


Consider carefully the sequence stated by the Lord Jesus in Matthew 28:18-20. Here we see, in the Lord Jesus’s own words that His disciples were to first go and make other disciples, and then baptize those who became His disciples. In the events of Acts 2 also, we see that after the preaching of Peter, only those who repented and accepted the Lord Jesus as their savior were baptized (Acts 2:41). On the way to Damascus, after Paul, then called Saul, first accepted Jesus as “Lord” after that he was baptized (Acts 9:5, 18). Similarly, in Acts 19:1-5, from the conversation between Paul and the people, it is quite clear that they had already believed in the Lord Jesus, and then they were baptized. In all these examples the same sequence is given - first become the disciples of the Lord Jesus, i.e., accept Him as Savior, and then as disciples, get baptized - always, in the Bible, only those who had repented and become disciples were baptized.


John the Baptist used to baptize in the region around the river Jordan, and the Lord Jesus too was baptized in that area (John 1:28; 3:23; Matthew 3:6, 13-16; Mark 1:5, 9-11; Luke 3:3). There is mention of the Lord and His disciples too baptizing (John 3:22; 4:1-2), but in which river, stream, pond, or water-body they baptized has not been mentioned. Phillip baptized in Samaria, but again, in which river, stream, pond, or water-body they baptized has not been mentioned. Later, Phillip baptized the Ethiopian Eunuch in some water-body on the road-side (Acts 8:36-37). But what is clear from these examples is that baptism could be given in both, flowing or still water; there is no necessity that it has to be administered only in a river. From these examples, another fact that is quite apparent is that wherever baptism was given, it was always in a place where people could go inside the water and come out of it. At no place in the Bible has the method of sprinkling water for baptizing, or of someone dipping their finger in water and then making the sign of the Cross on the head or forehead been mentioned. Also, there is no mention or example of any infant, baby, or child being baptized; always it has been adults who voluntarily came forward to get baptized, only they have been baptized.


Now, those who have become the disciples of the Lord Jesus, i.e., those who have received the Lord Jesus as their personal savior and have surrendered their lives to Him, they have already become the children of God (John 1:12-13), and are destined to be in heaven from the moment they have come into faith in the Lord Jesus, even before their having taken baptism. Biblically speaking, baptism neither saves anybody, nor makes anyone righteous and acceptable in the eyes of God. Baptism is nothing more than a method of giving a public testimony of a person’s coming into faith in the Lord Jesus and the inner change that has come into him because of his faith in the Lord. Take note, the thief that repented while hanging on the cross, received forgiveness from the Lord and went to heaven - without being baptized. There will be countless people all over the world, who have accepted the Lord Jesus as savior, believed in Him, have repented of their sins, but due to some reason, due to some problem or impediment, could not be baptized despite being desirous of and willing for it, e.g., after being involved in an accident, or being wounded on a battlefield and taking their last breaths; or having accepted Jesus as Lord in some desert or snow-bound area where they could not be baptized; or having heard the gospel in some remote distant area through radio transmission, where there was no one to baptize them - there can be so many different situations and circumstances in which it may not be possible for a person to get baptized, although wanting to get it done. Will all such people be denied entry into heaven just because despite having repented of sins, having come into faith and having accepted the Lord Jesus as savior, due to some earthly situation or circumstance, they could not get baptized? If the thief on the cross could repent and go to heaven, without getting baptized, then why can’t anyone else?


Also take note that like Simon the sorcerer (Acts 8:9-13, 18-24), in every local Church there are numerous people who have taken baptism ritualistically, but have never ever truly repented of their sins; no change has come in their lives, they are still living in their sins, in worldliness. They partake of the Lord’s Table, are members of their local Church, celebrate the traditions, feasts, and festivals, but also live a life of compromising with the world and in sin. Of what benefit is their baptism for them? Has their baptism put God under a compulsion to accept them into heaven, although their lives are demonstrating that they never came into faith in the Lord Jesus?


Another point of contention related to baptism is whether it has been administered “in the name of Jesus”, or, “in the name of the Father, the Son, and the Holy Spirit”! According to Matthew 28:19, in the words of the Lord Jesus Christ, baptism was to be given “in the name of the Father, the Son, and the Holy Spirit” - all three of them are God, co-equal in every manner, none is less than or different than the other. This “Triune” God, when He was born on earth as a man, His incarnation was named “Jesus” by divine instructions (Matthew 1:21). In other words, “Jesus” is the name of the Triune God that depicts His being the Savior of the world. Therefore, whether one takes the name of all three, or of anyone, it is the same God who is being honored and obeyed. So then, what difference will it make if baptism is given “in the name of Jesus”, or, “in the name of the Father, the Son, and the Holy Spirit”; more so, when as we have seen above baptism has nothing to do with obtaining salvation? This wrong teaching has been spread by the “Jesus Only” group, because they do not believe in the Triune God. Since they Believe only in the Lord Jesus, therefore wherever possible they create doubts and confusions about the teachings related to the Holy Trinity, i.e., the Triune God; they create and spread concepts that speak against the Biblical fact of Trinity. One of their false doctrines is this confusion they have spread about the name under which baptism is to administered.


If one carefully considers these issues, it becomes apparent that through trying to show baptism to be valid or invalid because of the name it has been administered in, the place it has been administered in, etc. Satan has tried to beguile people away into vain arguments and dissensions, into trusting in righteousness of works. These are satanic ploys to turn the minds of people away from the salvation by grace of God through simple faith in the Lord Jesus Christ; to get them entangled in trying to be acceptable to God through vain works and methodologies; to get entangled in unnecessary disputes, keep fighting amongst themselves, instead of preaching and propagating the gospel, as they ought to be doing. By keeping these things in mind, it is clear that what is important is taking of baptism to fulfill the commandment of the Lord Jesus; and not what names were being spoken while administering it and whether it was taken in flowing or still water. Therefore, besides what the Lord Jesus has said and instructed, no other unnecessary and unintended importance should be attached to baptism. Being baptized is a commandment of the Lord, and obeying the Lord brings blessings. But baptism neither gives salvation; nor, not being baptized take salvation away.


If you are a Christian Believer, then as instructed by the Lord Jesus, it is essential that every Born-Again Believer take baptism at the first available opportunity - not to confirm or establish the salvation received by the grace of God, but to publicly witness for it. Whether this baptism is taken “in the name of Jesus”, or, “in the name of the Father, the Son, and the Holy Spirit”; in flowing water or still water - will not impact the state of salvation of the person one way or the other. As it is for repentance, similarly for baptism too, taking or giving baptism is not a formality to be fulfilled, it is not merely for keeping a tradition. Baptism has its purpose and importance, and other than what has been taught by the Lord, no other concepts and teachings should be attached to it and given undue importance.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Isaiah 34-36 

  • Colossians 2